कैसा होगा, जब बातें करने के लिए लोग होेंगे, आवाज होगी, विचार होंगे, किन्तु उन्हें अभिव्यक्त करने वाली भाषा न हो! दो लोग आपस में बातें करना भी चाहें तब भी उन्हें शब्द न मिलें! शायद अरबों-खरबों मनुष्यों से भरी यह दुनिया अचानक ही गहरे सन्नाटे में गुम हो जाएगी या फिर कुछ और…
यह ख्याल अजीब लगता है, लेकिन ऐसा होने की संभावनाओं को नकारा नहीं जा सकता. वैज्ञानिकों की मानें तो मनुष्य फिर उसी दौर में लौट रहा है, जहां उसके पास अभिव्यक्त के लिए भाव तो थे, लेकिन वह नहीं जानता था कि उसे कैसे बोलें…
यूनेस्को ने हाल ही में अपनी एक सर्वे रिपोर्ट जारी की है, जिसमें कहा गया है कि यदि हमने अपनी बोली-भाषाओं को सहेजने की कोशिश नहीं की तो 2 हजार भाषाएं ऐसी हैं, जो लुप्त हो जाएंगी. अनुमान लगाया जा रहा है कि हर दो सप्ताह में एक बोली या भाषा खत्म हो रही हैं.
यही यह क्रम जारी रहा तो आने वाले सालों में दुनिया से हजारों भाषाएं गायब हो जाएंगी और इनके साथ ही खत्म हो जाएगी उस भाषा को बोलने वालों की संस्कृति.
तो आइए जानते हैं कि क्यों शब्द हमारा साथ छोड़ रहे हैं और क्या उन्हें रोका जा सकता है अगर हां तो कैसे—
कोई नही जानता कहां से आई भाषा!
फ्रांस की ‘भाषा-विज्ञान परिषद’ ने अपने कार्यक्रमों में भाषा की उत्पत्ति के विचार पर आजीवन के लिए बैन लगा दिया है. इसकी वजह है कि आज तक यह कोई भी पूरे विश्वास से नहीं कह पाया कि मनुष्य ने कब पहली बार किसी शब्द का इस्तेमाल किया या उसे अनुभव हुआ कि भाषा जैसी कोई चीज भी होती है.
भाषा की उत्पत्ति के लिए दुनियाभर के वरिष्ठ वैज्ञानिकों ने अपने-अपने स्तर पर अनुमान लगाए हैं. जी. रेवेज ने भाषा उत्पत्ति के लिए सम्पर्क सिद्धान्त दिया है. जिसके अनुसार आदिमानव जब समूह के सम्पर्क में आया होगा, तो पहले कुछ ध्वनियाँ उसके मुंह से निकली होगी और कालांतर में शब्द और फिर भाषा का जन्म हुआ होगा.
इसी तरह डॉ. राये, ‘रिचर्ड’ और जेहान्सन की मानें तो मनुष्य जब पानी पीता था तो ‘पा-पा’ जैसी ध्वनि निकालती थी, जिससे पिपासा जैसा कोई शब्द बना. यानि अपनी ही ध्वनियों को अपभ्रंश करते हुए शब्दों का निर्माण किया गया.
इसके बाद आवेश सिद्धान्त सुझाया गया. जिसके अनुसार मानव आवेश में आकर जिन ध्वनियों का उपयोग करता है वे बाद में शब्दों के रूप में इस्तेमाल हुईं. जैसे- ‘आहा’, ‘ओहो’, ‘फिक्’ ‘छिः’ पूह आदि.
प्रसिद्ध विद्वान् ‘रेनन’ के अनुसार ध्वनियों का उत्पादन करने में मनुष्य पशु-पक्षियों की मदद लेता था. जैसे वे आवाज निकालते थे, वैसी ही आवाजें मनुष्य ने निकालनी शुरू की और फिर किसी घटना विशेष अथवा वस्तु के लिए एक ध्वनि को निर्धारित कर दिया.
हालांकि, इन सिद्धान्तों का कोई आधार नहीं है. यानि मनुष्य कैसे किसी पशु की हूबहू आवाज निकाल सकता है! अपने अपनी सांसों के उतार चढ़ाव के बारे में कैसे जानकारी हो सकती थी! जब इनमें से कोई भी सिद्धान्त सटीक नहीं बैठा, तो लोगों ने यह मान लिया कि भाषा दैव्य कृपा है.
जैसे भारत में संस्कृत को ‘देवभाषा’ माना जाता है!
बौद्ध लोग ‘पालि’ को सबसे प्राचीन मानते है. जैन अर्धमागधी को प्रचीन मानते हैं. यहां तक की इस भाषा को मनुष्य और पशु-पक्षियों के बीच संवाद की एकमात्र भाषा माना है.
हिब्रू भाषा के कुछ विद्वानों ने तर्क दिया है कि दुनिया की सबसे प्राचानी भाषा हिब्रू है. जिसके शब्द बंटते हुए और उच्चारण में बदलाव होते होतेे अलग-अलग भाषाएं बन गईं. हालांकि, यदि भाषा किसी दैव्य कृपा का नतीजा होती तो पूरी दुनिया में एक जैसी भाषा और शब्द बोले जाते.
यहां तक कि बच्चा भी पैदा होते ही सीधे बोलना शुरू कर देता. इस सिद्धान्त की हकीकत जानने के लिए बादशाह अकबर ने एक प्रयोग किया था. उन्होंने दो शिशुओं को ऐसे निर्जन स्थान में अकेला छोड़ दिया, जहां उनसे बात करने वाला कोई नहीं था. कुछ सालों बाद वे दोनों लड़के गूंगे निकले.
बाद में भाषा को दैव्य कृपा मानने वाला सिद्धान्त खत्म हो गया.
कुल मिलाकर निष्कर्ष यही निकलता है कि कोई नहीं जानता है कि मनुष्य ने कब पहली बार कोई शब्द अपने मुंह से निकाला. यूनाइटेड नेशन्स एजुकेशनल साइंटिफिक एंड कल्चरल ऑर्गेनाइजेशन ने अपने शोध में कहा है कि ईसा से आठ हजार वर्ष पूर्व तकरीबन दो लाख भाषाएं और बोलियां थीं.
इनमें से आज दुनिया में महज 6 हजार भाषाएं बची हैं. भारत में तकरीबन 780 भाषाएं बोली जाती हैं, लेकिन इनमें से केवल 22 को आधिकारिक मान्यता मिली है. जबकि, 196 भाषाएं लगभग खत्म होने की कगार पर पहुंच चुकी हैं.
…तो खत्म होने को हैं भाषाएं
1961 की जनगणना के अनुसार भारत में 1652 भाषाएं थीं और 2001 की जनगणना में इनकी संख्या केवल 224 मिली. यानि पिछले पांच दशकों में भारत से 1418 भाषाएं लुप्त हो चुकी हैं.
भाषाओं पर खतरे के मामले में अमेरिका भी पीछे नहीं है. यहां करीब 196 भाषाएं लुप्त होनी की कगार पर हैं और इंडोनेशिया में 146 भाषाएं खत्म हो रही हैं.
पीपुल्स लिंग्युस्टिक सर्वे आॅफ इंडिया की माने तो 780 देशों से 250 भाषाएं गायब हो गई हैं. इनमें से 22 भाषाएं अधिसूचित हैं. सबसे ज्यादा सुरक्षित भाषाएं पापुआ न्यू गिनी में हैं. जहां करीब 800 तरह की भाषाएं बोली जाती हैं.
इनमें से केवल 80 पर ही खतरा मंडरा रहा है.
आयरिश भाषाई विद्वान जार्ज अब्राहम गिर्यसन ने पहली बार 1898 से 1928 तक भाषाओं पर एक सर्वे किया था और बताया था कि दुनिया भाषाओं के मामले में कितनी समृदृध है और आने वाले समय में उसका हश्र क्या हो सकता है?
पीपुल्स लिंग्युस्टिक सर्वे आॅफ इंडिया द्वारा चार साल तक भारतीय भाषाओं पर सर्वे किया गया और फिर 2013 में 72 पुस्तकों में 50 खंडों की रिपोर्ट प्रकाशित हुई.
इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में सबसे सुरक्षित भाषाएं अरूणाचल प्रदेश में हैं. जहां 90 से ज्यादा भाषाएं बोली जाती हैं. इसके बाद महाराष्ट और गुजरात में 50 से ज्यादा भाषाएं बोलने वाले लोग रहते हैं.
ओडिशा में 47, पश्चिम बंगाल में 38 भाषाएं बोली और पढ़ी जाती हैं. भारत की पांच प्रतिशत भाषाएं और दस प्रतिशत लिपियां बंगाल में हैं. इसी सर्वे में कहा गया है कि भारत के उत्तर-पूर्व में बोली जाने वाली भाषाएं दुनिया में सबसे ज्यादा बोली और समझी जाती हैं. इसके बाद भी पूर्वोत्तर की 130 भाषाओं पर संकट है.
हाल ही में सामने आया है कि अंडमान निकोबार में 65 हजार साल से आदिवासियों द्वारा बोले जानी वाली भाषा ‘बो’ पूरी तरह समाप्त हो गई. बो भाषा बोलने वाले परिवारों ने साल 2004 में आई सुनामी में जीवन खो दिया.
इनमें केवल एक लड़की जिंदा बची, जो ‘बो’ भाषा जानती थी और इस भाषा को दूसरा कोई नहीं जानता था. वह ‘बो’ भाषा की मदद से चिड़ियों से बात कर सकती थी पर इंसानों सेे नहीं. आखिर वह तब से खामोश है.
वैज्ञानिक मानते हैं कि य ह भाषा प्रि-नियोथोथिक काल की है.
खरोष्ठी लिपि अब विलुप्त हो चुकी है, जो कभी गांधार क्षेत्र में बोली जाती थी. इसी तरह 1974 में आइसले आॅफ मैन में नैड मैडरेल की मौत के साथ ही ‘मैक्स’ भाषा खत्म हो गई. साल 2008 में अलास्का में मैरी स्मिथ के साथ ‘इयाक’ भाषा ने दम तोड़ दिया. उत्तरी पाकिस्तान की पहाड़ियों में बदेशी भाषा बोलने वाले दुनिया के आखिरी तीन इंसान बचे हैं.
दुनिया की एक तिहाई भाषाएं दक्षिण अफ्रीका में बोली जाती हैं. ऐसा अनुमान है कि इनमें से 10 फीसदी आने वाले कुछ सालों में खत्म हो जाएंगी. यूक्रेन में कराइम भाषा बोलने वाले दुनिया के आखिरी 6 इंसान बचे हैं.
अमेरिका के ओकलहामा विशिता भाषा बोलने वाले 10 लोग जीवित हैं. इंडोनेशिया में लेगिंलु भाषा समझने वाले 4 लोग हैं. इस तरह 150 भाषाएं ऐसी हैं जिन्हें बोलने वालों की संख्या 170 से भी कम है.
भारत के अरुणाचल प्रदेश की भाषा अका संकट में है. क्योंकि अब यहां के युवा अपनी भाषा भूलकर हिंदी बोलते हैं और यही समझते हैं.
मलय प्रायद्वीप के छोटे से गांव में जेडेक भाषा बोलने वाले 280 लोग ही बचे हैं. खास बात यह है कि इस भाषा में बेचने, खरीदने और चोरी करने के लिए कोई शब्द बनाया ही नही गया.
आइसलैंडिक भाषा जो आइसलैंड की प्राचीन भाषा है अब खत्म हो रही है, क्योंकि यहां के युवा अंग्रेजी में संवाद करते हैं. मार्शल द्वीप पर बोली जाने वाली मार्शलीज पर जलवायु परिवर्तन का असर हुआ है. पानी का स्तर ज्यादा होने के बाद यह भाषा बोलने वालों ने अलग-अलग जगह पलायन कर लिया है.
यूनेस्को के अनुसार विंटू बोलने वाला एक ही व्यक्ति दुनिया में बचा है.
टोफा भाषा बोलने वालों की संख्या केवल 40 है. यह साइबेरियाई भाषा है जिसे तीन गांव के बुजुर्ग बोलते हैं. आठवीं से दसवीं शताब्दी के बीच उत्तर सागर के समुद्री डाकुओं द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली एल्फादालियां भी खत्म हो रही है.
वैश्वीकरण और विकास का प्रभाव
दुनियाभर में सबसे ज्यादा अंग्रेजी का इस्तेमाल किया जा रहा है. इसके अलावा उर्दु और फिर कुछ जगहों पर हिंदी इस्तेमाल होगी है. इसके अलावा फ्रेंच, जर्मन और चायनीज का भी अस्तित्व बचा है. यह इसलिए है कि लोग विकास की धारा से जुड़ गए हैं. एक देश के लोगों को दूसरे देश के लोगों से बात करने के लिए एक ही भाषा की जरूरत है.
अंग्रेजी इस कमी को काफी हद तक पूरा कर रही है, लेकिन इसके दुष्परिणाम यह है कि भारत समेत पूरी दुनिया में 80 के दशक से पैदा हो रहे बच्चों को अंग्रेजी सिखाने पर जोर दिया जा रहा है, ताकि वे दुनिया के बाकी देशों के लोगों से संवाद कर सकें.
सोशल मीडिया पर सर्वाधिक अंग्रेजी भाषा का इस्तेमाल हो रहा है. इंटरनेट, फिल्में और विज्ञापन जो भाषाओं के प्रचार का आज के समय में सबसे बेहतर माध्यम हैं. वे भी अंग्रेजी के प्रभाव से अछूते नहीं है.
ऐसा नही है कि अंग्रेजी भाषा में कोई बुराई है पर यदि इस भाषा का दायरा व्यापारिक होता तो क्षेत्रीय भाषाओं पर संकट नही होता.
वैज्ञानिकों का मानना है की आधुनिकीकरण के इस दौर में युवा अपनी मातृभाषाएं बोलने से कतराते हैं. शब्दों को बोलने का उनका लहजा और टोन बदल रही है. इसके अलावा एक मूलभूत कारण है कि वे अपनी मातृभूमि से दूर हो रहे हैं. नए देश में नई भाषा के साथ जी रहे हैं, ऐसे में अपनी भाषा पर संकट स्वभाविक है.
भारत में लखनऊ और अलीगढ़ विश्वविद्यालय भाषाओं को बचाने की दिशा में पहल कर चुके हैं. वे भारत की लुप्त हो रही भाषाओं और बोलियों को डिजीटल रूप में संरक्षित कर रहे हैं. इसकी वीडियो और आॅडियोग्राफी हो रही है.
इसमें उक्त भाषा बोलने वाले के हाव-भाव और अभिव्यक्ति को भी रिकॉर्ड किया गया है. इन रिकॉर्डिंग को विश्वविद्यालय के पुस्कालयों को संरक्षित रखा जा रहा है ताकि युवा खत्म हो चुकीं या खत्म हो रही भाषाओं को याद रख सकें.
इंटरनेशनल फोनेटिक्स अल्फाबेट में लिखा गया है कि इन रिकॉर्डिंग को वैज्ञानिकों तक भी पहुंचाया जाएगा, ताकि वे भाषाओं को समझ सकें और इनके संरक्षण के लिए काम कर सकें. अब तक करीब 25 भाषाओं का संरक्षण किया जा चुका है.
कुछ देशों ने भाषाओं के लुप्त होने के संकट को गंभीरता से लिया और उन पर काम करना शुरू किया. नतीजतन ब्रिटेन की भाषा कर्निश और न्यू कैलेडोनिया, जिसे लगभग खत्म हुआ मान लिया गया था, उसे पुन:जीवित किया है.
अब यहां यह भाषा बोलने वालों की तादाद बढ रही है.
भाषाई संकट को देखते हुए यूनेस्को ने 21 फरवरी 1999 को अन्तर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस घोषित किया था. जिन लोगों का इस खास दिवस से परिचय है, वे अपनी मातृभाषा को याद कर लेते हैं.
बड़े-बड़े मंचों पर भाषाई संकट पर चर्चा हो जाती है लेकिन इतना काफी नहीं है.
मातृभाषा या बोली आम लोगों से जुड़ी है और इसे बचाने की जिम्मेदारी भी आम लोगों की ही है. यदि अपनी भाषाओं को नहीं बचाया गया तो वह दिन दूर नहीं है, जब दुनिया पूरी तरह से खामोश हो जाएगी.
Web Title: Facts on World Languages Threat, Hindi Article
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