कैसा रहा होगा उनका जीवन, 42 साल तक बिना कुछ बोले, बिना हिले-डुले बिस्तर पर अकेले…
जी हां! अरुणा शानबाग ने अपने 42 साल इसी तरह इच्छा मृत्यु के इंतज़ार में बिता दिए.
बावजूद इसके उन्हें वो कभी नसीब नही हुई.
उनके जीवन में ऐसा क्या हादसा हुआ. जिसकी वजह से वो इतने लंबे समय तक कोमा में रहीं. उन्होंने अपनी देखने और सुनने की शक्ति भी खो दी थी.
उन्हें डॉक्टर ने ब्रेन डेड घोषित नहीं किया था. लिहाज़ा, वो जिंदा तो थीं, उनकी सिर्फ सांसें चल रही थीं, लेकिन शरीर मर चुका था.
अब वो केवल एक जिंदा लाश की तरह थीं, लेकिन उनका शरीर अभी खाक नहीं हुआ था.
जिस इच्छा मृत्यु को वो खुद तो कभी प्राप्त नहीं कर पाईं, लेकिन उनके इस केस की वजह से भारत में निष्क्रिय इच्छा मृत्यु को कानूनी दर्ज़ा मिला है.
ऐसे में, उनकी इस संघर्ष की कहानी को जानना बेहद दिलचस्प हो जाता है –
पढ़ाई में हमेशा से रहीं आगे
अरुणा शानबाग का जन्म एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था.
वह कर्नाटक के हल्दीपुर नाम के गांव में रहती थीं. उनके 6 भाई और 3 बहनें थीं. जिसमें से दो भाइयों की मानसिक हालत खराब थी.
जब वो सिर्फ 10 साल की थीं, तब उनके पिता की मौत हो गई.
पिता की मौत के बाद उनके दो भाई काम के सिलसिले में मुंबई चले गए.
घर के खराब हालात के बावजूद, उन्होंने अरुणा की पढ़ाई में कोई कसर नहीं छोड़ी. उन्हें पढ़ना बहुत पसंद था. लिहाज़ा, सभी भाई-बहनों में सिर्फ उन्होंने ही उच्च शिक्षा प्राप्त की.
अरुणा कर्नाटक के हल्दीपुर से नर्सिंग की पढ़ाई करने के लिए मुंबई आईं. इसके बाद, वह केईएम अस्पताल में जूनियर नर्स के पद पर काम करने लगीं.
1966 से 1973 तक वह नर्सिंग हॉस्टल में ही रहीं.
प्यार ने दी ज़िंदगी में दस्तक
एक छोटे से गांव से आने वाली अरुणा अब काफी बदल गई थीं. उन्होंने अपने बाल छोटे करवा लिए.
वो अब ज्यादा सुंदर और आत्मविश्वास से भरी महिला लगती थीं.
उन्हें फ़िल्में देखना बहुत पसंद था. वो अक्सर फ़िल्में देखने सिनेमा घर जाया करती थीं. उनका जीवन मुंबई में काफी अच्छा बीत रहा था.
इसी दौरान, प्यार ने भी उनकी जिंदगी में दस्तक दी.
उन्हें अस्पताल के ही एक लड़के से प्यार हो गया था, जो उसी अस्पताल में एम.डी. की पढ़ाई कर रहा था. नाम था डॉ. प्रताप देसाई. दोनों की सगाई हो चुकी थी, बस शादी होनी बाकी रह गई थी.
दरिंदगी का शिकार बनीं
अस्पताल में ही उन्होंने एक बार वार्ड ब्वाॅय को खाना चुराकर खाने से रोका था, क्योंकि वह खाना जानवरों के लिए रखा गया था.
वार्ड ब्वाॅय का नाम सोहनलाल वाल्मीकि था. वह इस बात से अरुणा से चिढ़ गया और उसने मन ही मन अरुणा से बदला लेने की ठान ली.
सोहनलाल बस एक मौके की तलाश में था.
और नवंबर, 1973 को उसे इंतकाम लेने का मौका मिल गया.
ड्यूटी खत्म होने के बाद अरुणा जब अपने कपड़े बदल रही थीं, तब उसने अरुणा को अकेला पाकर उनके साथ बलात्कार किया.
उसकी दरिंदगी बस यहीं तक नहीं रुकी, उसने अरुणा के गले में कुत्तों को पहनाने वाली चेन कसकर बांध दी थी.
इस शर्मसार कर देने वाली घटना के 11 घंटे बाद अरुणा अस्पताल के बेसमेंट में बेसुध हालात में मिलीं.
वह खून से सनी हुई थीं, गले में वो चेन अभी तक बंधी हुई थी. इससे उनके दिमाग में ऑक्सीजन की सप्लाई रुक गई थी.
जिसकी वजह से अरुणा कोमा में चली गईं.
बिस्तर पर गुजार दिए 42 साल
दिमाग में ऑक्सीजन की सप्लाई की कमी की वजह से वह अंधी, बहरी और लकवाग्रस्त हो गईं.
अब वह न कुछ बोल पाती थीं, न ही सुनती थीं और न देख पाती थीं.
वह 42 साल तक अस्पताल के बिस्तर पर इसी हालत में पड़ी रहीं.
उन्हें भोजन भी मैश कर के दिया जाता था. वह अपने हाथ-पैर भी हिला नहीं पाती थीं.
उनकी इस दशा के जिम्मेदार सोहनलाल को हिंसा और चोरी के लिए दोषी ठहराया गया.
जिसके लिए, उसे सात साल की सजा मिली.
लगाई इच्छा मृत्यु की गुहार
साल 2009 में पत्रकार पिंकी विरानी ने अरुणा की इस हालत पर इच्छा मृत्यु के लिए एक याचिका दाख़िल की.
इस मामले में, अस्पताल के स्टाफ ने इस याचिका का विरोध किया था.
उनके मुताबिक़, अरुणा ने कई बार प्रतिक्रियाएं भी दी थीं. उन्होंने कई बार अपनी पसंद और नापसंद भी जाहिर की थी. तो ऐसे में उनके अनुसार, अरुणा में अभी भी जान बाकी है. वह सिर्फ एक जिंदा लाश नहीं हैं.
लिहाजा, 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने याचिका खारिज कर दी.
उनके जीते जी तो उन्हें इच्छा मृत्यु नहीं मिल पाई. लेकिन उनके मरने के बाद मुख्य रूप से, उनके केस की वजह से सुप्रीम कोर्ट ने भारत में निष्क्रिय इच्छा मृत्यु को कानूनी रूप से मान्यता दे दी.
18 मई, 2015 को अरुणा की मृत्यु निमोनिया की वजह से हो गई.
क्या है निष्क्रिय इच्छा मृत्यु (पैसिव यूथेनेशिया)
अरुणा की तरह किसी लाइलाज और कष्टकारी बीमारी से जूझ रहे व्यक्ति को निष्क्रिय रूप से इच्छा मृत्यु दी जा सकती है.
इसका मतलब ये है कि पीड़ित इंसान को दवाई, डायलिसिस और वेंटिलेशन जैसी सुविधाएं देना बंद कर दिया जाएगा या फिर रोक दिया जाएगा.
ऐसे में पीड़ित स्वयं मृत्यु को प्राप्त होगा, यानी कि वह इलाज़ के अभाव में खुद ही मर जाएगा.
जबकि दूसरी ओर, ऐक्टिव इच्छा मृत्यु का मतलब है, इंजेक्शन या किसी अन्य माध्यम से पीड़ित को मृत्यु दे देना.
सुप्रीम कोर्ट ने पैसिव इच्छा मृत्यु की अनुमति तो दी है, लेकिन ऐक्टिव इच्छा मृत्यु की नहीं.
मार्च, 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए इसे कानूनी तौर पर मान्यता दी कि हर व्यक्ति को गरिमा से मरने का अधिकार है. सबसे पहले नीदरलैंड की सरकार ने इस तरह के कानून को मान्यता दी थी.
महज 23 साल की उम्र में अरुणा इतने बड़े हादसे का शिकार हुई थीं. उन्होंने 42 साल तक एक लाश का जीवन जीया.
उनके इस केस ने उनकी तरह ही कई सारे ऐसे लोगों को मुक्ति दिलाने का काम किया.
Web Title: The Aruna Shanbaug case which changed euthanasia laws in India, Hindi Article
Feature Image Credit: Republic