कमजोरी, आंख, जीभ, त्वचा और मूत्र का रंग पीला होना पीलिया का मुख्य लक्षण हैं!
ऐसा सामान्यत: यकृत या लीवर रोग के प्रभाव से खून में पित्त रस की वृद्धि होने से होता है.
शरीर में लाल रक्त कोशिका की जिंदगी 120 दिन की होती है, इसके बाद ये टूटने लगती हैं, हालांकि साथ ही साथ इनका उत्पादन अस्थि मज्जा या बॉन मैरो में होता रहता है. लेकिन अगर इससे पहले ही ये टूटने लगें तो बिलिरुबिन नामक एक पदार्थ लीवर में ज्यादा मात्रा में इकट्ठा हो जाता है. इस स्थिति को ही पीलिया कहते हैं.
पीलिया को अंग्रेजी में जॉनडिस कहा जाता है. इस बीमारी को कई बार पीला आतंक भी कह दिया जाता है.
तो चलिए आज एक नजर पीलिया पर डालते हैं –
‘बिलिरुबिन’ बनता है पीलिया का कारण!
पीलिया को अच्छे से समझने के लिए आपको सबसे पहले इंसानी शरीर में पित्त के उत्पादन में यकृत की भूमिका के बारे में जानना होगा.
यकृत का सबसे महत्वपूर्ण कार्य कोलेस्ट्रोल जैसे रसायनिक अपशिष्ट उत्पादों की चयापचय यानि मैटाबोलिक प्रक्रिया को सक्रिय रखना होता है.
इस प्रक्रिया में रसायनिक पदार्थों को आंतों के अंदर से बाहर निकाला जाता है.
अगर आम भाषा में कहें, तो यकृत इंसानी शरीर में मौजुद एक रसायनिक कारखाना होता है. जहां से हर आने जाने वाले रसायन को गुजरना ही पड़ता है. जब भी हम कोई पौष्टिक, विषाक्त या फिर दवा का सेवन करते हैं, तो वह पहले इसी पड़ाव से गुजरती है.
यकृत शरीर में रक्त के संचालन हेतु रसायन भी एकत्रित करता है. इनमें से कई बाध्य रसायनों को पित्त में उत्सर्जित किया जाता है, जिनमें से एक पदार्थ बिलिरुबिन भी होता है, जो पीले रंग का होता है.
बिलिरुबिन हिमोग्लोबिन टूटने से बनने वाला एक उत्पाद है, जो कि एक प्रकार का प्रोटीन होता है और यह रक्त कोशिका के अंदर पाया जाता है. अगर बिलिरुबिन शरीर से नहीं निकलता तो यह अन्य ऊतकों को जमा व विघटित करता है.
इंसानी शरीर में आमतौर पर इसका स्तर 0.2 मिलीग्राम रहता है, लेकिन अगर इसका स्तर 3 मिलीग्राम या उससे ज्यादा हो जाए तो यह त्वचा व आंखों के सफेद भाग को पीला कर देता है.
Bilirubin is a Component of the Heme Catabolic Pathway. (Pic: cell)
आर.बी.एस. का टूटना है बड़ी वजह
पीलिया होने के कई कारण हो सकते हैं!
बाहरी कारणों से तो काफी लोग परिचित होंगे, पर बहुत कम लोग जानते होंगे कि शरीर के अंदर वो कौन सी स्थिति होती है या फिर शरीर में ऐसा क्या घटता है कि कोई इंसान पीलिया का शिकार हो जाता है.
दरअसल पीलिया होने की एक मुख्य वजह शरीर में बिलिरुबिन नामक तत्व की मात्रा बढ़ना भी है.
बिलिरुबिन आमतौर पर शरीर में रक्त निर्माण करने वाले अंगों या फिर हमारे बॉन मैरो में हीमोग्लोबिन के रूप में मौजूद होता है. यदि शरीर में लाल रक्त कोशिकाओं का उत्पादन स्तर सामान्य से कम हो जाए तो अतिरिक्त हीमोग्लोबिन बिलिरुबिन में जाकर मिल जाता है.
हीमोग्लोबिन लाल रक्त कोशिकाओं में मौजूद रहता है और यह उन कोशिकाओं में उनके पूरे जीवन काल तक रहता है. हीमोग्लोबिन कोशिका से तभी अलग होता है, जब कोशिका मरने लगती है. जब हीमोग्लोबिन कोशिका से अलग होता है, तो यह बिलिरुबिन रसायन में बदल जाता है.
यानी अगर किसी कारणवश लाल रक्त कोशिकाएं तेजी से मरती हैं तो रक्त में बिलिरुबिन की मात्रा बढ़ जाती है, जो पीलिया का कारण बनती है.
वैसे तो ऐसी कई बीमारियां हैं, जो शरीर में लाल रक्त कोशिकाओं को मारने की गति को तीव्र करती हैं. कोशिकाओं को खत्म करने की इस प्रक्रिया को हेमोलिसिस और जिन बीमारियों के कारण यह क्षति होती है उसे हेमोलिटिक डिसऑर्डर कहा जाता है.
अगर लाल रक्त कोशिकाओं के खत्म होने की गति उनके उत्पादन से ज्यादा है, तो संभव है कि रोगी को एनीमिया हो जाए.
Red Blood Cells. (Pic: Transfusion News)
1956 में बनी पहली फोटोथेरेपी मशीन
पीलिया बीमारी की बात करें, तो इसके सबसे ज्यादा शिकार नवजात बच्चे ही बनते हैं. आज कल जन्म के बाद अधिकतर बच्चों के रक्त में बिलिरुबिन की मात्रा बढ़ जाती है, जिस कारण वह पीलिया की चपेट में आ जाते है.
ऐसे बच्चों को जन्म के तुरंत बाद ही फोटोथेरेपी मशीन में रखा जाता है.
लेकिन क्या आप जानते हैं कि इस मशीन का आविष्कार किसने किया था.
दरअसल इस मशीन को 1925 में ब्लीन में पैदा हुए डाॅक्टर रिचर्ड क्रेमर ने बनाया था. अपनी डाॅक्टरी की शिक्षा पूरी करने के बाद रिचर्ड ने रॉकफोर्ड हॉस्पिटल में एक रजिस्ट्रार के तौर पर अपना काम शुरू किया.
यहां रिचर्ड ने पीडब्ल्यू पेरीमैन और डीएच रिचर्ड्स के साथ अपनी रिसर्च की शुरुआत की.
वह पीलिया ग्रस्त बच्चे से लिए गए खून के एक नमूने पर सूरज की सीधी किरणों के प्रभाव की जांच करते थे. उन्होंने खून के दो सैंपल लिए, जिनमें से एक को सूरज की किरणों में रखा गया और दूसरे को सामान्य जगह पर.
जांच के दौरान क्रेमर ने पाया कि सूरज की रोशनी में रखे गए खून के सैंपल में बिलिरुबिन की मात्रा काफी कम हो गई है.
Bilirubin Blood Test. (Pic: Blood Tests)
कृत्रिम प्रकाश की ली मदद
इसके बाद क्रेमर ने नवजात बच्चों में पीलिया के सफल इलाज हेतु अपनी कोशिशें शुरू कर दीं. अपने दोनों साथी पेरीमैन और रिचर्डस के साथ मिलकर लगातार कोशिशों के चलते आखिरकार उन्होंने एक मशीन बनाई.
इस मशीन को बनाते समय उन्होंने पाया कि सूर्य के प्रकाश की नीली तरंगें बिलिरुबिन को घटाने में अधिक प्रभावी हैं. लेकिन ये नवजात शिशु के दिमाग पर बुरा प्रभाव डाल सकती थीं, इसलिए उन्होंने कुछ सैंपलों की जांच की और सभी मापदंडों को परखा.
सूर्य की रोशनी से होने वाले दुष्प्रभावों ने क्रेमर को कृत्रिम प्रकाश के लाभों के बारे में सोचने का रास्ता दिखाया. इसके लिए उन्होंने हर तरह के स्त्रोत का इस्तेमाल किया. आखिरकार उन्होंने 24इन जीईसी फ्लोरोसेंट ट्यूब के प्रकाश में उन सभी लाभों को पाया, जो पीलिया को खत्म करने में प्रभावी हैं.
इस दौरान उन्होंने अस्पताल की इंजीनियरिंग टीम के सहयोग से पहली फोटोथेरेपी मशीन बनाई. हालांकि इसका प्रभाव सूर्य की रोशनी से कम था, मगर इससे वह कोई भी नुकसान नहीं था, जो सूर्य की रोशनी से होने की संभावना थी.
Jaundice Newborn in Phototherapy. (Pic: Health Magazine)
इस पहले मॉडल को स्टेनलेस स्टील से बने एक पालने की शक्ल में बनाया गया था, जिसमें 8 नीली लाइटें लगाई गई थीं. साल 1958 में इस तिकड़ी के इस महान आविष्कार के बारे में एक लेख प्रकाशित हुआ था.
आगे चलकर इस आविष्कार को विश्व स्तर पर उपयोग में लाया गया.
Web Title: The Natural History of Jaundice, Hindi Article
Feature Image Credit: Fiveprime