जब लाइफ हो आउट ऑफ कंट्रोल, होठों को करके गोल...
बॉलीवुड की फिल्म '3 इडियट्स' का ये गाने शायद ही कोई नहीं जानता हो. इस फिल्म ने पढ़ाई करने के तरीके को एक नए रूप में पेश किया. दर्शकों द्वारा इस फिल्म को बहुत सरहाया गया. इस बात को कम ही लोग जानते हैं कि यह फिल्म लद्दाख के एक असल व्यक्ति से प्रेरित है.
सोनम वांगचुक से प्रेरित इस फिल्म को तो आपने परदे पर खूब सरहाया है, लेकिन आज असली हीरो की जिंदगी के बारे में जानना दिलचस्प रहेगा.
जानते हैं, सोनम के बारे में जिन्होंने सिर्फ इंजीनियरिंग छोड़कर, एक टीचर के रूप में अपना पूरा जीवन बिताना चुना-
रटने वाली विद्या से हमेशा रहे असंतुष्ट
साल 1966 में सोनम का जन्म लेह में हुआ. वह अपनी नौ साल की उम्र तक स्कूल की सीढियाँ नहीं चढ़ पाए थे. इसकी वजह यह है कि उनके गाँव अलीची में कोई स्कूल था ही नहीं.
जब सोनम नौ वर्ष के हुए तो, तब उनका दाखिला श्रीनगर के एक स्कूल में हुआ. पहली बार स्कूल गए सोनम का मन वहां नहीं लगता था. वह वहां बहुत अकेलापन महसूस करते थे. चूँकि, वह खुद को वहां की संस्कृति से अलग-थलग महसूस करते थे.
उन्होंने अपने अंकल के घर रहकर करीब 18 महीने स्कूल में पढ़ाई की. वह नन्ही उम्र में पढ़ाई के रटाने वाले पैटर्न से बहुत नाखुश रहे.
उन्हें रटने वाली विद्या हमेशा से ही बुरी लगी.
साल 1975 में उनके पिता के साथ वह श्रीनगर आ गए. उनके पिता सोनम वांग्याल कांग्रेस से जुड़े हुए थे. जो आगे एक मंत्री भी बने.
जब वह धरती पर स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर में आए, तो उन्हें यह कुछ रास नहीं आया. यहाँ उनका मन नहीं लगता था. यहां हिंदी, इंग्लिश और उर्दू विषय भी पढ़ाई में शामिल थे.
सोनम को इन तीन भाषाओं का ज्ञान था ही नहीं. वह यहाँ अकेला महसूस करने लगे. आलम कुछ ऐसा हो गया कि उनके टीचर उन्हें क्लास के बाहर खड़ा कर देते, जिसकी वजह से वह बहुत बुरा महसूस करने लगे.
एक तो पहले से ही वह खुद को वहां बहुत अलग महसूस कर रहे थे. उसके बाद अपने साथ इस तरह की आये दिन होने वाली चीज़ों से उनका मन और भी ज्यादा ख़राब हो गया.
12 साल की उम्र में अकेले ही पहुंच गए दिल्ली
वांगचुक को चूँकि लेह से थे, तो उनका रहन-सहन श्रीनगर के लोगों से भी काफी अलग था. लोगों का भी उनके प्रति व्यवहार अलग रहता, क्लास में लोग उनका मजाक उड़ाया करते.
वहां बिताये तीन सालों में अगर सोनम ने कुछ सीखा था, तो वो हिंदी और अंग्रेजी सीखी.
वहां से तंग आकर उन्होंने 12 साल की उम्र में ही दिल्ली की ओर अपना रुख कर लिया. वह पहली बार अकेले यात्रा कर रहे थे. दिल्ली जाने का उनका एक ही मकसद था, विशेष केंद्रीय विद्यालय में दाखिला लेना. यह विद्यालय बॉर्डर क्षेत्र पर रहने वाले बच्चों के लिए था.
अब परेशानी ये हो गई थी कि जिस समय वह दिल्ली गए, उस समय दाखिला नहीं हो रहा था. लेकिन, ये भी सोनम थे उन्हें वहीं दाखिला चाहिए था.
उन्होंने जाकर प्रिंसिपल के सामने प्रार्थना की. इतनी मासूमियत से की गयी प्रार्थना को प्रिंसिपल इनकार नहीं कर पायीं. उन्होंने वांगचुक को दाखिला दे दिया.
दिल्ली के इस स्कूल में उनका मन लग गया. यहाँ उनका कोई भी मजाक नहीं बनाता था. यहाँ के टीचर उन्हें पढ़ाई में ज्यादा मदद किया करते, उन्हें प्रतियोगिताओं में भाग लेने के लिए प्रेरित करते.
एक किस्सा यूँ हुआ था कि एक बार उनके टीचर ने इंटर-क्लास प्रतियोगिता में उनका नाम दे दिया. सोनम बहुत नर्वस हो गए, इतना ज्यादा की वह स्टेज पर भी नहीं चढ़ पा रहे थे. उनके टीचर ने उनका हाथ पकड़ा और स्टेज पर बोलने के लिए प्रोत्साहित भी किया.
इसके बाद स्कूल में होने वाली एक्स्ट्रा एक्टिविटीज में उन्होंने भाग लेना शुरू कर दिया. इसी तरह उन्होंने अपनेआप को निखारा.
पास होने के बावजूद पढ़े 'दोबारा' सारे पाठ
सोनम हमेशा से ‘रैंकिंग' की बजाय ज्ञान को ठीक प्रकार से जानने में विश्वास रखते थे. वह अपनी दसवीं क्लास को दोबारा पढ़ना चाहते थे, उन्हें ऐसा लग रह था कि उन्हें उस क्लास के पाठ अभी ठीक प्रकार से नहीं आए हैं. लेकिन, जब उनके पिता को इस बात के बारे में पता चला तो, उन्होंने इसके लिए साफ़ मना कर दिया.
पिता के मना करने के बाद आखिर उन्होंने 58 प्रतिशत के साथ दसवीं कक्षा पास कर ली. लेकिन, उन्होंने एक बार फिर उस क्लास के सभी पाठ पढ़े.
12वीं क्लास उन्होंने जम्मू के मॉडल अकैडमी से पास की. जिसके बाद उन्होंने ‘अवतल शीशे’ पर काम करना शुरू कर दिया. वह अपने आसपास की बिल्डिंग में अंधेरे को दूर करने के लिए इसका इस्तेमाल करना चाहते थे. इसके अलावा, वह इसके जरिये खाना पकाने में भी करना चाहते थे.
उन्होंने अपनी इस कोशिश के बारे में अपने एक अंकल को बताया. इस पर उनके अंकल ने उनसे कहा कि अगर सोनम ने मैकेनिकल इंजीनियरिंग की होती तो, वह इस काम को कर लेते.
बस फिर क्या था, पकड़ लिया उन्होंने इंजीनियरिंग का रास्ता. उन्होंने श्रीनगर के ही एक इंजीनियरिंग कॉलेज में अपना एडमिशन करा लिया. लेकिन उनके पिता चाहते थे कि वो सिविल इंजीनियरिंग करें.
इस बार सोनम ने अपने मन का ही करना चाहा. वह इस मामले में बहुत साफ़ हो चुके थे कि उनके मैकेनिकल इंजीनियरिंग ही करनी है. लिहाजा, उन्होंने अपने पिता को सिविल करने से साफ मना कर दिया.
बेटे के इस बर्ताव के बाद उनके पिता ने भी उनकी फीस जमा करने से साफ इनकार कर दिया.
ट्यूशन पढ़ाकर भरी अपनी इंजीनियरिंग की फीस
इसके बाद उन्हें अपनी फीस भरने की चिंता सताने लगी. उन्हें इंजीनियरिंग के लिए हर महीने 300 रुपयों की जरुरत थी. इसके बाद उन्होंने बच्चों को कोचिंग देना शुरू कर दिया. दो महीने में ही उन्होंने 17,000 रुपए कम लिए थे. ये पैसे उनकी फीस से भी ज्यादा थे.
कॉलेज में पढ़ाई के दौरान ही वह एक प्रोटो-टाइपराइटर, साइकिल और म्यूजिक सिस्टम लेका आये. दिलचस्प बात ये है कि उन्होंने अपने म्यूजिक सिस्टम को अपनी घड़ी से जोड़ दिया. इसके अलावा, उन्होंने एक धागा घड़ी और पानी के मग को इस प्रकार से जोड़ा कि जब कभी भी अलार्म बजता, म्यूजिक बजता और धागे से जुड़े मग से पानी सीधे उनके मुंह पर आकर गिरता.
इसके अलावा, उन्होंने अपनी खिड़की पर एक तरह का एसी भी लगाया था. अवतल मिरर अभी भी उनकी दिलचस्पी रही. उन्होंने 1987 में अपनी ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल कर ली थी.
SECMOL के जरिये खेल-खेल में शिक्षा
इंजीनियरिंग करने के एक साल बाद, उन्होंने अपने भाई और पांच और लोगों की मदद से SECMOL (Students’ Educational and Cultural Movement of Ladakh) बनाया. इसके लिए फंड इक्कठा करने के लिए उन्होंने पूरे लदाख में एक ‘प्राइड ऑफ लद्दाख’ नाम का सांस्कृतिक शो किया. इसकी वजह से उन्हें एक लाख रुपए मिल गए.
उन्होंने सबसे पहले ड्रापआउट बच्चों और 10वीं के बच्चों को पढ़ाना शुरू किया. लेकिन यह कुछ ज्यादा सफल नहीं हुआ. सोनम समस्या की जड़ जानना चाहते थे.
सोनम पढ़ाई को नए तरीके से परिचित कराना चाहते थे. ऐसी पढ़ाई जिसे बच्चे खेल-खेल में सीख जाएं.
साल 1994 में, SECMOL ने शिक्षकों को बड़े स्तर पर ट्रेन करना शुरू किया. जिसमें वह उन्हें 10 दिन की ट्रेनिंग दिया करते, ट्रेनिंग में बच्चों को खेल, गाने और कहानियों के जरिये पढ़ाने के बारे में सिखाया गया.
ग्लेशियर 'स्तूप' रहा एक अनोखा आईडिया
लद्दाख में पानी की बहुत कमी रहती है. जिसकी वजह से वहां के लोगो को खेती समेत कई कामों के लिए पानी की किल्लत का सामना करना पड़ता है. इस बात ने सोनम का ध्यान ख़ासा तौर पर खींचा.
उन्होंने इस समस्या के हल के बारे में सोचना शुरू कर दिया. एक दिन उन्होंने यह भांपा कि पुल के नीचे जमी हुई बर्फ जल्दी नहीं पिघलती. इसका मतलब ये था कि ग्लेशियर पर सीधी धूप पड़ने से ही वह पिघलती है.
बस, फिर क्या था! उन्हें अपना आईडिया मिल चुका था. इस बार उन्होंने इस बात को ध्यान रखते हुए पूरा तालाब पिघलने से बचा लिया.
उन्होंने साल 2013 में सर्दियों के दौरान, अपने छात्रों के साथ मिलकर 1.5 लाख लीटर पानी की बर्फ से 6-फुट का प्रोटोटाइप स्तंभ बनाया.
तकरीबन 3,000 मी की ऊंचाई पर अपनी टीम की मदद से वह नदी के बहाव के दबाव के जरिए इस स्तम्भ से पानी का फव्वारा निकालने में सफले रहे. इसके बाद पानी के बाहर निकलते ही और जमीन पर गिरकर बर्फ में तब्दील हो जाता है.
जब बसंत का मौसम आता है तब पानी पिघलने लगता है. इसी पानी को वो टैंक में इकट्ठा कर लेते हैं. फिर अपनी जरुरत के अनुसार पानी का इस्तेमाल किया जाता है.
बता दें, लद्दाख का ये आइस कोन अब तक 10 लाख लीटर पानी सप्लाई कर चुका है. इन कृत्रिम ग्लेशियरों को लद्दाख में 'स्तूप' कहा जाता है.
इस प्रकार उन्होंने इतनी बड़ी समस्या का बहुत खूब समाधान निकाला. इसके अलावा, उन्होंने कभी अपना निजी स्कूल नहीं खोला. उनका कहना था कि, बच्चों को तालाब के पानी में उतारने से उनकी उड़ान सीमित हो जाती है. उन्हें समुद्र के पानी में उतरने देना चाहिए, जहां वह ज्यादा बेहतर तैर सकते हैं.
सोनम को रेमन मैगसायसाय पुरस्कार से भी नवाजा गया है. उनकी सोच और शिक्षा को समझाने का तरीक इतना अच्छा है कि आज उन्हें पूरी दुनिया जानती है. उनके हर विचार को सराहती है. उन्होंने शिक्षा देने के तरीके को भी अलग ढंग से पेश किया. जिससे बच्चे भागते नहीं हैं बल्कि खुद आगे बढ़कर खेल-खेल में सीखते हैं.
Web Title: Story Of The Real Hero Of Three Idiots, HIndi Article
Feature Image Credit: nextbigwhat