भारतीय सांस्कृतिक पर्वों की बात दुर्गा उत्सव के बिना अधूरी है, और दुर्गा उत्सव बंगाल के बिना!
बंगाल जो आज से कुछ दिनों बाद शक्तिमय हो जाएगा, भक्ति में डूब जाएगा, मां दुर्गा के जयकारों से गूंज उठेगा... जो कुछ दिनों के लिए 'सिटी आॅफ जॉय' हो बन जाएगा. इन दिनों कलकत्ता समेत पूरा बंगाल दुर्गा पूजा के लिए सज रहा है.
मैसुरु के जंबू सावरी दशहरे, गुजरात के डांडिया और कुल्लू-मनाली के दशहरे के बीच बंगाल ही वो जगह दिखती है, जहां 'शक्ति पूजा' का मूल रूप दिखाई देता है. बंगाली हिंदुओं के लिए दुर्गा और काली की आराधना से बड़ा कोई उत्सव नहीं है.
भारत के बाकी हिस्सों के लिए यह एक अविस्मणीय यात्रा है!
सोचने वाली बात यह है कि जब पूरा देश मां दुर्गा के आगमन पर ढोल बजाता है, तब भी गूंज बंगाल से ही सुनाई देती है. सिंदूर तो हर कोई मां के चरणों में अर्पित करता है, पर लाल होता है तो बस बंगाल!
तो आइए जानते हैं मां दुर्गा से बंगाल के इस खास रिश्ते को-
कभी न भूलने लायक कृत्तिबास का योगदान
कृत्तिबास ओझा! बेशक पूर्वी और मध्य भारत समेत बाकी हिस्सों में यह नाम कम सुनने को मिलता है, पर बंगाल में यह नाम उतना ही महत्व रखता है, जितना हमारे लिए तुलसीदास. कृत्तिबास ओझा पंद्रहवीं सदी के सुप्रसिद्ध बांग्ला भक्तकवि थे. जिन्होंने वाल्मीकि द्वारा संस्कृत में लिखी गई ‘रामायण’ का बांग्ला संस्करण ‘श्री राम पांचाली’ अनुवादित किया. संस्कृत से इतर किसी भी अन्य उत्तर भारतीय भाषा में लिखी गई यह पहली रामायण है. यानि रामचरित मानस से डेढ़ सदी पहले की बात.
कृत्तिबासी ने रामायण की मौलिक कल्पनाओं में राम को रावण से युद्ध करने से पहले मां शक्ति की पूजा करते बताया गया है. इस महाकाव्य में पहली बार शक्ति पूजा का विस्तार से वर्णन किया गया. जिसने बंगाल के जनमानस में नारी की छवि को अप्रीतम बना दिया. महाकाव्य में लिखा गया है कि जब राम को महसूस हुआ कि उनकी ताकत रावण के सामने कम पड़ रही है तो, उन्होंने विचलित होकर कहा-हाय! उद्धार प्रिया (सीता) का हो न सका.
उनके वेदना को समझते हुए जमवंत ने कहा-‘शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन! छोड़ दो समर जब तक सिद्धि न हो, रघुनंदन!! अर्थात वे यह लड़ाई, इसलिए हार रहे हैं कि उनके साथ केवल नैतिक बल है. जबकि जीत के लिए शक्ति का आह्वान जरूरी है. इन बातों का आशय दुर्गा की नौ दिनों तक कठोर साधना से था.
इसका जिक्र रामचरित मानस में भी मिलता है. चूंकि बंगाल में श्री राम के चरित्र को ‘श्री राम पांचाली’ के जरिए सबसे बेहतर तरीके से प्रस्तुत किया गया था, इसलिए 'शक्ति पूजा' को भी काफी महत्व मिला.
नारी की अहमियत भी बरकरार रही
1381 को बंगाल में जन्में कृत्तिबास कवि होने के साथ-साथ दार्शनिक भी थे. उनके बाद मध्यकाल में सूरदास, तुलसीदास, कबीरदास, रैदास, दादू, नानक, शंकरदेव, तुकाराम, मीराबाई जैसे तमाम भक्ति कवि हुए. जिन्होंने कृत्तिबास की मान्यताओं को महत्व दिया. ओझा का मत था कि अद्वैत वेदांत के ‘सब बराबर हैं’ कह देने से लोग निठल्ले हो गए हैं. भक्त और भगवान में सदैव एक निश्चित अंतर होना चाहिए. भक्त यदि पूजा, साधना, जप-तप करता है तब उसे भगवान का संग मिलता है.
यही कारण रहा कि बंगाल में शक्ति पूजा को महत्व दिया गया. वहां मां दुर्गा भक्तों की भक्ति, उनकी साधना से प्रसन्न होती. मां को प्रसन्न करने के लिए आम-जन ने कभी कोई कसर बाकी नहीं रखी. एक दूसरा महत्वपूर्ण कार्य जो कृत्तिबासी ने किया वह यह था कि वे बंगाल के शाक्त संप्रदाय और वैष्णव संतों के बीच की दूरियां मिटा पाए.
दरअसल नारी शक्ति की पूजा करने वाले शाक्त संप्रदाय का समूचे बंगाल में अाधिपत्य रहा. दूसरी ओर वहां वैष्णव संत भी हुए हैं, जो राम और कृष्ण की आराधना में यकीन रखते हैं. इन दोनों के बीच अक्सर द्वंद का माहौल बना रहता. इस प्रसंग से राम का नायकत्व तो स्थापित हुआ ही, शक्ति यानी नारी की अहमियत भी बरकरार रही.
कृत्तिबासी के साथ ही धीरे-धीरे पूरे बंगाल में शक्ति की आराधना शुरू हुई. जो शताब्दियों से चली आ रही है.
परंपरा में आधुनिकता का प्रयोग
भारतीय आधुनिकता ने उन्नीसवीं शताब्दी में दस्तक दी और द्वार था बंगाल. बंगाल से ही आधुनिकता की पहली लहर का उन्मेष हुआ. यहां आधुनिकता के बीज अंकुरित हो रहे थे. पर उसमें खाद के रूप में परंपराओं का इस्तेमाल हुआ. यही वजह रही की आधुनिक होते हुए भी बंगाल ने अपनी परंपराओं का दामन नहीं छोड़ा.
सामाजिक सुधार, स्वराज्य आंदोलन, भारतीय समाज और साहित्य में आधुनिकता का प्रयोग बंगाल से ही शुरू हुआ.
शक्ति को अपना सबकुछ मानने वाले बंगाल से ही पहली बार आजादी की लौ जली थी, जिसने पूरे देश को अपनी आगोश में ले लिया. नवजागरण काल के दौरान भी बंगाल ने दुर्गा उत्सव को पिछड़ा मानकर छोड़ा नहीं. दरअसल उन्होंने आधुनिकता में परंपरा का एक बेहतर प्रयोग किया या शायद परंपरा को आधुनिकता के साथ जोड़ने का सफल प्रयास.
ऐसा केवल बंगाल में ही नहीं हुआ. बल्कि महाराष्ट्र के नवजागरण में लोकमान्य तिलक ने गणेशोत्सव का पर्व मनाना शुरू किया. बीसवीं शताब्दी में प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया ने चित्रकूट में रामायण मेला शुरू किया. भारतीय आधुनिकता को स्वीकार करने के साथ ही उन्होंने सांस्कृतिक स्तर को भी बरकरार रखा.
बंगाल में दुर्गा पूजा का इतिहास
दुर्गा पूजा शुरू होने की कोई निश्चित तारीख बंगाल के इतिहास में दर्ज नहीं है. फिर भी कुछ किताबों में इस बात का जिक्र मिलता है कि शक्ति की पूजा तो यहां सदियों से हो रही थी पर पहली बार मूर्ति स्थापना साल 1790 में हुई.
कलकत्ता के पास हुगली के बारह ब्राह्मणों ने दुर्गा पूजा के सामूहिक अनुष्ठान की शुरूआत की थी. जहां मां दुर्गा की विशाल मूर्ति स्थापित हुई. फिर यह चलन गांव-गांव से होते हुए समूचे बंगाल में फैल गया. हालांकि दुर्गोत्सव पर मूर्ति निर्माण की परंपरा यहां ग्याहवीं शताब्दी से है पर यह मूर्तियां विशाल पंडालों की जगह घरों में स्थापित होती रहीं थीं.
दुर्गाउत्सव को सांस्कृतिक वैभव का पर्व बनाने का श्रेय ताहिरपुर (बंगाल) के महाराजा कंस नारायण को दिया जाता है. कहते हैं कि उन्होंने ही सबसे पहले इतिहास की सबसे विशाल दुर्गा पूजा की थी. दुर्गा पूजा की आखिरी दिन महिषासुर वध के सूचक के तौर पर भैंसों की बलि दी जाती थी. हालांकि बाह्य रायवंश में पैदा हुए शिवायन के प्रणेता कवि रामकृष्ण राय ने इस हिंसक परंपरा का पुरजोर विरोध किया और फिर धीरे-धीरे यह बंद हो गई.
महाषष्ठी से होती है विशेष पर्व की शुरुआत
पश्चिम बंगाल में यूं तो पूरे 10 दिन मां दुर्गा की आराधना के होते हैं पर विशेष पर्व की शुरुआत महाषष्ठी से शुरू होती है. विशेष प्रकार के ड्रम, जिसे ढाक कहा जाता है, की गूंज के साथ मां दुर्गा पंडालों में विराजित होती है. इस खास दिन पर बोधन, आमंत्रण और अधिवास होता है. सप्तमी दुर्गापूजा का पहला दिन होता है. महाअष्टमी को संधिपूजा होती है जो अष्टमी और नवमी का संधिकाल होता है. इसके बाद नवमी पूजा का शुभारंभ होता है. हालांकि इन पूजाओं के महत्व के बारे में हम अलग से बात करेंगे.
इन पूरे नौ दिनों तक भक्तगण मंत्रों का उच्चारण करते हैं, गाना या भजन गाते हैं ताकि देवी उनके भक्ति से प्रसन्न हो. ठीक वैसे ही जैसे श्री राम की तरह. ‘दुर्गा’ कोई सांस्कृतिक मिथ नहींं है, यह वह लावा है जो हर औरत के भीतर अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार के लिए धधकता है. वैसे तो देवताओं ने ही असुरों को बनाया, उनको शक्ति दी और जब वे उस शक्ति का गलत इस्तेमाल करने लगे, तब देवताओं ने 'मां दुर्गा' को बनाया, राक्षसों को खत्म करने के लिए.
कहते हैं सब मांओं की ताकत को मिलाकर 'दुर्गा मां' को बनाया गया... हर साल मां आती हैं, सब बुराई मिटाती हैं और वापस चली जाती है. ताकि हम सब बिना किसी डर के खुशी और शांति से जी सकें.
यदि आप 'शक्ति पूजा' का बंगाल से विशेष लगाव महसूस करना चाहते हैं, तो बेशक इस दुर्गाउत्सव को वहां जरूर पहुंचे. जहां मां है, शक्ति है, भक्त हैं, भक्ति है और आर्शीवाद की वर्षा!
Web Title: Untold historical story of Durga Festival of Bengal, Hindi Article
Feature Iamge Credit: BuzzingBubs