एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत की कुल आबादी में करीब 8.6 प्रतिशत आदिवासी हैं. यानि लगभग 1.2 बिलियन भारतीयों में 104 मिलियन लोग आदिवासी समुदाय से हैं. ये आंकड़ा ही भारत में आदिवासियों की स्थिति को लेकर काफी कुछ कह जाता हैं.
जल, जंगल और जमीन आदिवासियों का पूरा जीवन इन्हीं तीन चीजों के इर्द-गिर्द घूमता है और नए वाले विकास का सबसे बुरा असर इन्हीं पर हुआ है. सरकारें और निजी कंपनियां सालों से विकास के लिए आदिसवासियों के अधिकारो की बलि चढ़ाती आ रही हैं. पिछले कुछ सालों में ये सिलसिला और भी तेज हुआ है.
ऐसे में ये आदिवासी किससे अपने अस्तित्व को बचाने की गुहार लगाएं. यह बढ़ा सवाल है. वहीं लाख आलोचनाओं और अपने खिलाफ तरह-तरह की बातें सुनने के बावजूद कई सामाजिक कार्यकर्ता इन आदिवासियों की आवाज बने हुए हैं.
इनमें से ही एक नाम है विद्या दास. वोओडीशा में पिछले तीन दशकों से भी ज्यादा समय से आदिवासियों के अधिकारों के लिए काम करती आ रही हैं. न केवल आदिवासियों के अधिकारों की बल्कि, उन्हें सशक्त करने में विद्या अहम भूमिका निभा रही हैं.
तो आइए विद्या को जरा नजदीक से जानने की कोशिश करते हैं-
'बड़ा मां' कहकर बुलाई जाती हैं विद्या
भारत में आदिवासियों की हालात उन इलाकों में ज्यादा खराब है, जो खनिजों में समृद्ध माने जाते हैं. एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ कोयला समृद्ध इलाकों में केवल सरकारी कंपनी कोल इंडिया लिमिटेड ने 87 हजार लोगों को पिछले 40 साल में विस्थापित किया है. विस्थापन का दंश झेलने वाले इन लोगों में हर 6 में से एक आदिवासी है.
ओडीशा उन्हीं राज्यों में से एक है, जहां के आदिवासी, नक्सलियों और निजी कंपनियों की महत्वाकांक्षाओं का शिकार बन रहे हैं. एक तरफ निजी कंपनियां अपने मुनाफे के लिए इन आदिवासी लोगों की जमीने हड़प कर उनसे अपनी कमाई में लगी हुई हैं. वहीं नक्सली उन आदिवासियों के अधिकारों के लिए लड़ने की बात पर अपने हित साधने में लगे हैं.
किन्तु, विद्या दास जैसे सामाजिक कार्यकर्ता इन आदिवासियों को दोनों के ही चुंगल में फंसने से बचाए हुए हैं. ओडीशा के रायगढ़ में स्थित काशीपुर इलाके में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो, जो विद्या को न जाता हो. विद्या वहां के लोगों के लिए 'बड़ी मां' जो हैं. इन लोगों के बीच विद्या की जो पकड़ है, वो सिर्फ और सिर्फ उनके काम के चलते है.
विद्या अपने पति अच्युत दास के साथ मिलकर ओडिशा के आदिवासियों के लिए 1987 से काम कर रही हैं. विद्या दास जिस एनजीओ अग्रगामी को चलाती हैं, उसकी खास बात ये है कि वो किसी एक क्षेत्र में आदिवासियों की सहायता नहीं करता. बल्कि उनका एनजीओ आदिवासियों की शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, मानवाधिकार जैसे क्षेत्रों में उनका विकास करने में जुटा हुआ है.
आदिवासियों के अधिकारों के साथ, जो खेल खेला जा रहा है, उसे विद्या दास अविकसितों की राजनीति कहती हैं. उनका कहना है कि भारत में सबसे खतरनाक बात ये है कि यहां गरीबों को केवल अपनी गरीबी का बोझ नहीं उठाना पड़ता.
बल्कि उन्हें अपने से काफी बेहतर लोगों का भी बोझ ढोना पड़ता है. विद्या के एनजीओ अग्रगामी के तहत कई संस्थाएं काम करती हैं, जो आदिवासियों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करती हैं.
हकों के प्रति बढ़ा रही जागरूकता
शिक्षा के बिना जागरुकता ला पाना संभव नहीं है, इसलिए विद्या दास आदिवासियों के लिए स्कूल भी चलाती हैं. इसमें महिलाओं को भी शिक्षित किया जाता है. आदिवासी महिलाओं को इस लायक बनाने की कोशिश की जाती है कि वो मनरेगा के तहत मिलने वाले तनख्वाह का ब्यौरा ले पाएं.
मनरेगा के तहत काम करने के बाद इन आदिवासियों को अपना मेहनताना भी सही से नहीं मिल पाता है. जानकारी न होने के कारण ठेकेदार इन्हें जितना भी पैसा देता है, ये उसे स्वीकार कर लेते हैं. इसलिए महिलाओं को कम से कम इतनी शिक्षा दी जाती है, जिससे वो अपने हक पहचान सकें.
दास के मुताबिक यहां गरीबी के चलते लोग इतने परेशान हैं कि वो सरकार द्वारा निर्धारित की गई तनखवाह से कम में भी काम करने को तैयार हैं. आदिवासी महिलाओं की मेहनत को ठेकेदारों से बचाने के लिए विद्या और उनका संगठन बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. वो आदिवासियों की सारी शिकायतों को सरकारी अफसरों तक पहुंचाने का काम करते हैं.
रोजगार मुहैया करवाने में की मदद
गरीबी जैसे हालातों में पुरूष आदिवासियों को शराब की लत लगना आम बात है. इसका नुक्सान सीधे आदिवासी महिलाओं को होता है. शराब के प्रभाव को कम करने के लिए विद्या दास ने 12 जिलों में अमासंगठन के तहत एक मुहिम चलाई, जिससे इलाके में कई शराब की भट्ठीयों को बंद किया गया.
विद्या दास के नेतृत्व में अग्रगामी और अमासंगठन ने आदिसावासियों के लिए कई लड़ाईयां लड़ी हैं. इनमें से एक को ब्रूम रेवोल्यूशन भी कहा गया. दरअसल आदिवासियों पर ये दबाव बनाया जाता था कि वो अपने जंगलों से चुना गया सारा सामान एक सरकारी बेंचे. वो भी कंपनी द्वारा तय किए गए दामों पर.
आदिवासियों के सामान को बेचकर कंपनी फायदा कमाती, लेकिन आदिवासी घाटे में रहते. विद्या दास ने आदिवासियों के लिए लड़ाई लड़ी, जिसे मंदबीसी संघर्ष कहा गया. इस संघर्ष का ये नतीजा रहा कि सरकार को कानून में बदलाव करना पड़ा. इस बदलाव से अब आदिवासी अपने दाम पर अपना सामान बेचने में कामयाब हुए.
इससे आदिवासी महिलाओं के लिए रोजगार के अवसर भी मिले, जिसमें वो अपने सामान से झाडू बनाने का काम करती हैं और फिर उन्हें बेचती हैं. ऑर्गेनिक फार्मिंग के तरीके सिखाने से लेकर आदिवासियों से जुड़ी कमिटियों में आदिवासी महिलाओं को पहुंचाने में विद्या दास ने अहम भूमिका निभाई है.
इन्हीं के चलते साल 2000 में उन्हें वाईडब्लूसीए रोल ऑफ ऑनर के पुरस्कार से सम्मानित किया गया और 2003 में उन्हें जमनलाल बजाज पुरस्कार से सम्मानित किया गया.
Web Title: Vidhya Das, Fighting For Poor Women In India, Hindi Article
Feature Image Credit: jamnalalbajaj