महाभारत भारतीय संस्कृति के ऐतिहासिक महान ग्रंथों का एक महत्वपूर्ण अंग है. इसमें कई ऐसे पात्र हैं, जो अति पराक्रमी रहे, जो आज भी पूजनीय हैं.
इसी के साथ कुछ पात्र ऐसे भी रहे, जो अथाह शक्तिशाली थे, बावजूद इसके वे गुमनाम हो गए.
इन्हीं में से एक योद्धा थे एकलव्य. जिन्होंने गुरु दक्षिणा में अपने दाएं हाथ का अंगूठा काटकर अपने गुरु को भेंट कर दिया.
एक बार को अर्जुन को ब्रह्मांड का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर माना लिया गया है, लेकिन एकलव्य को अर्जुन से भी बड़ा धनुर्धर माना जाता है.
ऐसे में एकलव्य के महानतम धनुर्धर बनने की कहानी को पढ़ लेना आवश्यक हो जाता है –
आदिवासी थे एकलव्य!
एकलव्य भील (निषाद) जाति से संबंधित थे, जो जंगलों में रहती थी और जिसका मुख्य काम शिकार करना था.
उनके पिता का नाम हिरण्यधनु था, जो भील जाति के राजा थे. इस तरह एकलव्य एक राजा के बेटे थे.
इस तरह से इन्हें भीलपुत्र के नाम से भी जाना जाता था.
पिता शिकारी थे, तो बेटा भी शिकार पर जाया करता था, यहीं से उन्होंने तीरंदाजी सीखी.
एकलव्य तीरंदाज तो थे, लेकिन एक बेहतर तीरंदाजी वो नहीं जानते थे. लिहाजा इसके प्रशिक्षण के लिए वह एक गुरु की तलाश में लग गए.
एक दिन एकलव्य की ये प्रतिभा देखकर पुलक मुनि भौचक्के रह गए और उनके पिता के पास गए. मुनि ने पिता से कहा कि उनका पुत्र एक महान धनुर्धर बन सकता है, बस उसे अच्छी शिक्षा की जरूरत है.
एकलव्य भी शिक्षा प्राप्त करना चाहते थे, तो पिता हिरण्यधनु ने गुरु द्रोणाचार्य से बात करने का फैसला किया. हालांकि उन्हें ज्ञात था की गुरु द्रोणाचार्य सिर्फ ब्राह्मण और क्षत्रियों को ही शिक्षा देते हैं.
गुरु ने धनुर्विद्या सिखाने से मना कर दिया
जब एकलव्य के पिता हिरण्यधनु ने गुरु द्रोणाचार्य से अपने पुत्र को धनुर्विद्या सिखाने का आग्रह किया तो वही हुआ जिसका उन्हें पहले से आभास था.
द्रोणाचार्य ने एकलव्य को धनुर्विद्या सिखाने से इंकार कर दिया. गुरु द्रोणाचार्य के इंकार के बाद भी एकलव्य ने हिम्मत नहीं हारी और उन्होंने तय किया कि वह यह विद्या सीख कर ही रहेंगे.
बहारहाल, गुरु द्रोणाचार्य के इंकार के बाद कुछ समय तक एकलव्य उनके आश्रम में सेवक के रूप में कार्य करते रहे और वहीं पर उन्होंने कुछ विद्या ग्रहण कर ली.
लेकिन द्रोणाचार्य ने उसे नियम तोड़ने के कारण निकाल दिया, जिससे उसे वापस जंगल में लौटना पड़ा.
छिपकर सीखी धनुर्विद्या
गुरुकुल से निकलकर जब एकलव्य जंगल में पहुंचे तो उन्होंने गुरु द्रोणाचार्य की मिट्टी से एक मूर्ति बनाई और उसी को गुरु मान कर धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगे.
पेड़ों और पौधों के बीच छिपकर उन्होंने इसके नियमों को सीखा और जो भी गुरु गुरुकुल के बच्चों को बताते वो सब सीखते और उनका अभ्यास करते रहे.
वक्त बीतते-बीतते और अपनी निरंतर मेहनत के कारण एक दिन एकलव्य उत्तम श्रेणी के धनुर्धर बन गए.
जब गुरु ने मांग लिया एकलव्य से अंगूठा
एक समय की बात है, जब एकलव्य अपनी धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहे थे, तो एक कुत्ता आकर भोंकने लगा, जिससे अभ्यास में बाधा पड़ रही थी. इसलिए एकलव्य ने उस कुत्ते पर इस प्रकार तीर चलाए की उसका मुंह भी बंद हो गया और उसे चोट भी नहीं आई.
कुत्ता भाग कर द्रोणाचार्य के पास गया और जब गुरु ने उस कुत्ते को देखा तो वह चौक गए.
उन्होंने जब कुत्ते की ऐसी स्थिति करने वाले को ढूंढा तो एकलव्य मिले.
गुरु द्रोणाचार्य और गुरुकुल में मौजूद सब लोग यह देख कर हैरान थे. इसके बाद द्रोणचार्य को चिंता हुई कि कहीं एकलव्य दुनिया का श्रेष्ठ धनुर्धर न बन जाए.
द्रोणाचार्य अपने वचन से प्रतिबद्ध थे कि अर्जुन ही दुनिया का श्रेष्ठ धनुर्धर बनेगा, लेकिन एकलव्य के होते ये मुमकिन न था.
बहरहाल, जब एकलव्य ने बताया की कुत्ते का मुंह उसने बंद किया है, तो उसने सारी कहानी गुरु द्रोणाचार्य को बताई कि कैसे उसने छुप कर धनुर्विद्या सीखी.
फिर आखिर में एकलव्य ने कहा कि मेरी शिक्षा पूरी हुई.
इतना सुनकर गुरु बोले कि अब तुम्हें मेरी गुरु दक्षिणा देनी पड़ेगी. और उन्होंने उसी हाथ का अंगूठा एकलव्य से मांग लिया जिससे वह बाण चलाता था
और एकलव्य ने बिना कुछ सोचे अपने गुरु के कहने पर अपना अंगूठा काट कर गुरु दक्षिणा के रूप में द्रोणाचार्य को भेंट कर दिया.
इस तरह द्रोणाचार्य ने अर्जुन को महान धनुर्धर बनाने के लिए एकलव्य का अंगूठा लेकर उसे धनुष-बाण चलाने से रोक लिया. कहीं न कहीं गुरु के मन में उसका दुःख था लेकिन उसे अपना वचन पूरा करना था.
इस तरह एक महान शिष्य ने अपने गुरु के कहने से गुरु दक्षिणा में अपना अंगूठा दे दिया.
Web Title: Eklavya: The Great Archer, Who Offered his Thumb as Guru Dakshina to Guru Dronacharya, Hindi Article
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