इन दिनों उड़ीसा राज्य का पुरी दुल्हन की तरह सज रहा है. गलियां सोने की झाडू से साफ हो रही हैं और फूलों झलरों से रास्ते महकाएं जा रहे हैं. यह सारी तैयारी हो रही है ऐतिहासिक 'जगन्नाथ पुरी रथ यात्रा' की.
कहा जाता है कि इस रथयात्रा के दौरान जो बारिश होती है, वह पुण्य की वर्षा कहलाती है. जिसने भगवान के रथ को थोड़ा सा भी धक्का दे दिया समझिए उसे मोक्ष मिल गया.
भारत के चार पवित्र धामों में से एक पुरी में निकलने वाली इस विशाल रथ यात्रा का अपना पौराणिक महत्व है.
इन रथों पर बैठकर भगवान श्री कृष्ण अपने भाई-बहनों के साथ मौसी के घर जाते हैं. फिर अपनी रूठी हुई पत्नी को मनाते हैं और वापस आते हैं. 10 दिन तक चलने वाला यह महोत्सव हिंदू परिवारों के लिए बहुत खास है.
तो चलिए आपको लेकर चलते हैं कि इस रथ यात्रा की इतिहास यात्रा पर!
भगवान विश्वकर्मा ने बनाई थी अधूरी मूर्तियां
जगन्नाथपुरी मंदिर की मूर्तियों को ध्यान से देखा जाए तो ये तीनों अधूरी दिखाई देती हैं.
इन अधूरी मूर्तियों के पीछे एक पौराणिक कथा है. जिसके अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के जल समाधि लेने के बाद भाई बलराम और बहन सुभद्रा इतने दुखी थे कि उन्होनें भी समुद्र में जलसमाधि ले ली. उस समय पुरी के राजा इंद्रविमुना को स्वप्न आता है, जिसमें वह देखता है कि समुद्र में भगवान श्रीकृष्ण का शरीर तैर रहा है. तभी आकाशवाणी होती है...
देवदूत राजा को आदेश देते हैं कि श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा की लकड़ी की मूर्तियां बनवाकर एक मंदिर में उन्हें स्थापित करें. साथ ही श्री कृष्ण की मूर्ति में छेद करके उनकी अस्थियों को उसमें सम्हालकर रखा जाए. जब राजा की नींद खुलती है तो वह समुद्र के किनारे पहुंचता है और देखता है कि वहां वाकई श्री कृष्ण की अस्थियां पड़ी हुई हैं.
इसके बाद वह पुरी में वापस लौटता है और मंदिर निर्माण का कार्य शुरू करवाता है. मंदिर का काम तो शुरू हो जाता है, पर मूर्तियां बनाने के लिए उन्हें अच्छा कारीगर नहीं मिलता.
तब भगवान विश्वकर्मा बढ़ई का भेष धरकर धरती पर आते हैं और मूर्तियों का निर्माण शुरू कर देते हैं. पर वे काम शुरू करने से पहले शर्त रखते हैं कि जब तक मूर्तियां पूरी न बना जाएं कोई भी उन्हें रोके नहीं, नहीं तो वे काम अधूरा छोडकर चले जाएंगे.
मूर्तियां बनने का का काम शुरू होता है, पर राजा को देखने की बेचैनी इतनी ज्यादा होती है कि वह बढ़ई की बात भूल जाता है और कमरे में दाखिल हो जाता है. यह देखकर विश्वकर्मा काम अधूरा छोड़कर अर्तंध्यान हो जाते हैं.
हालांकि, राजा उन अधूरी मूर्तियों को ही मंदिर में स्थापित करवा देता है.
इस प्रकार से जगन्नाथ मंदिर में तीनों भाई-बहनों की अधूरी मूर्तियों की पूजा शुरू हो जाती है.
आश्चर्य से कम नहीं है जगन्नाथ का मंदिर
जगन्नाथ पुरी का मंदिर किसी आश्चर्य से कम नहीं है. इसी सबसे खास बात यह है कि दिन के किसी भी पहर में इस मंदिर की के मुख्य शिखर की परछाई नहीं बनती. इस मंदिर के ऊपर से कभी किसी पक्षी को न तो गुजरते देखा गया है, न ही कभी कोई पक्षी मंदिर के शिखर पर बैठा पाया गया है.
इस तथ्य को इतना महत्व दिया गया है कि मंदिर के शिखर के ऊपर से कोई हवाई जहाज तक नहीं गुजरता है. 800 साल पुराना यह मंदिर समुद्र तट के नजदीक स्थित है. बावजूद इसके जैसे ही आप मुख्य द्वार से प्रवेश करके मंदिर में दाखिल होंगे वैसे ही समुद्र की लहरों की आवाज सुनाई देना बंद हो जाती है.
ठीक वैसे ही जब एक कदम बाहर निकालेंगे तो लहरों की आवाज फिर से कानों में आने लगेगी. मंदिर के शिखर पर एक सुदर्शन चक्र बनाया गया है. इस चक्र को किसी भी दिशा से खड़े होकर देखने पर ऐसा लगता है कि चक्र का मुंह आपकी तरफ है.
इसके साथ ही यह दुनिया का इकलौता ऐसा मंदिर है, जहां शिखर पर लगा झंडा हमेशा हवा की विपरीत दिशा में लहराता है. यह झंडा हर रोज बदला जाता है.
ऐसी मान्यता है कि यदि किसी रोज यह झंडा नहीं बदला गया तो मंदिर के पट 18 साल के लिए स्वत: ही बंद हो जाएंगे. इसलिए मंदिर का एक पुजारी हर रोज 45 मंजिला मंदिर के शिखर पर जाता है और झंडा बदलकर वापस आता है.
मंदिर की तरह ही यहां का भोग भी बेहद खास है. मंदिर की रसोई में भोग बनाने के लिए मिट्टी के 7 बर्तन उपयोग किए जाते हैं. इन बर्तनों को एक के ऊपर एक रखा जाता है. भोग बनाने के लिए आज भी चूल्हे का इस्तेमाल होता है.
कहा जाता है कि हर दिन बनने वाला प्रसाद भक्तों के लिए कभी कम नहीं पड़ता. जैसे ही मंदिर के पट बंद होते हैं वैसे ही प्रसाद भी खत्म हो जाता है. मंदिर के महाप्रसाद में मालपुआ बनाएं जाते हैं और साथ में मिश्रित खिचड़ी का भोग लगाया जाता है.
जो बाद में सभी भक्तों को बांटा जाता है.
रथ यात्रा से जुड़ी हुई प्रचलित कहानियां
जगन्नाथ मंदिर की स्थापना की तो एक ही कहानी है पर रथ यात्रा से जुड़ी हुई कई तरह की किवदंतियां हैं. कुछ लोगों का मानना है कि जब कृष्ण ने मामा कंस का वध किया था तब उसके बाद वे अपने भाई—बहनों को लेकर नगर भ्रमण पर निकले थे. जबकि कुछ कहते हैं कि कंस ने इसी दिन श्री कृष्ण और बलराम को लाने के लिए मथुरा से रथ भेजा था.
एक अन्य कहानी के अनुसार सुभद्रा इसी दिन अपने मायके आईं थीं. मायके आकर वे पूरी प्रजा से मिलना चाहती थीं इसलिए श्री कृष्ण ने रथ यात्रा का इंतजाम करवाया, ताकि प्रजा जन अपनी राजकुमारी से मिल सकें. उनके साथ रथ में बलराम भी सवार हुए और वे नगर भ्रमण करते हुए अपनी मौसी के घर यानि गुंडीचा मंदिर पहुंचे.
जहां उन्होंने 10 दिन विश्राम किया और फिर वापस अपने धाम लौट गए.
पौराणिक इतिहास में रथ यात्रा के पीछे एक और कहानी है. यह कहानी माता रोहिणी से जुड़ी है. जिसके अनुसार एक बार श्री कृष्ण की सभी रानियों ने माता रोहिणी से आग्रह किया कि वे उन्हें कृष्ण की रासलीला के बारे में बताएं.
वहां सुभद्रा भी बैठी थी. माता रोहिणी नहीं चाहती थीं कि बतौर बहन सुभद्रा अपने भाई की रासलीला के बारे में सुने इसलिए उन्होंने सुभद्र को भाई श्री कृष्ण और बलराम के साथ रथ यात्रा पर भेज दिया. दिलचस्प बात तो यह है कि जब तक वे नगर भ्रमण करती रहीं रोहिणी श्री कृष्ण की रानियों को रासलीला की कहानियां सुनती रहीं.
कील के इस्तेमाल के बिना बनता है रथ
जगन्नाथ रथ यात्रा के लिए तीन रथ तैयार किए जाते हैं. खास बात यह है कि सभी रथ नीम की पवित्र लकड़ियों से बनते हैं जिन्हें ‘दारु' कहते हैं. और तो और रथ बनाने के लिए किसी औजार या धातू का इस्तेमाल नहीं होता.
यानि इन रथों को जोडने के लिए कहीं भी एक कील तक इस्तेमाल नहीं होती. बसंत पंचमी के दिन रथ के लिए लकड़ियों का चुनाव होता है और अक्षय तृतीया के दिन से इनका निर्माण शुरू हो जाता है.
आषाढ़ शुक्ल पक्ष की द्वितीया से रथ यात्रा शुरू होती है. पुरी में रथ यात्रा का महोत्सव 10 दिनों तक चलता है. 10वें दिन उसी रथ पर सवार होकर भगवान श्री कृष्ण, सुभद्र और बलराम को उनके धाम में वापस लाया जाता है.
भगवान जगन्नाथ के रथ को ‘गरुड़ध्वज’ या ‘कपिलध्वज’ भी कहा जाता है. जो तीनों रथों से सबसे बड़ा होता है. 16 पहियों पर चलने वाले इस रथ की उँचाई 13.5 मीटर होती है.
रथ बनाने में रंग लाल व पीले रंग के कप़ड़े का इस्तेमाल होता है. इस रथ की रक्षा की जिम्मेदारी गरुड़ के पास होती है.
ठीक ऐसे ही बलराम का रथ ‘तलध्वज’ कहलाता है. 14 पहियों पर चलने वाला यह रथ सुभ्रदा के रथ से बड़ा होता है. जिसकी उँचाई 13.2 मीटर होती है. इस रथ के रक्षक वासुदेव और सारथी मताली होते हैं.
इसके बाद सुभ्रदा के रथ की बारी आती है, जो दोनों भाईयों के रथ से छोटा होता है और इसे “पद्मध्वज” कहा जाता है. यह रथ 12.9 मीटर उँचा होता है और 12 पहियों पर चलता है.
इस रथ को लाल और काले कपड़े से बनाया जाता है. जबकि इसके रक्षक जयदुर्गा व सारथी अर्जुन होते हैं.
रूठी पत्नी को मनाकर गर्भ गृह जाते हैं श्री कृष्ण
माना जाता है कि जो भी इन रथों को हाथ से खींचता है उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है. तिथी के दिन रथों पर तीनों भाई—बहनों की मूर्तियां स्थापित होती हैं और उन्हें गर्भ गृह से निकालकर श्री कृष्ण की मौसी के घर यानी गुंडीचा मंदिर ले जाया जाता है.
गुंडीचा मंदिर में श्री कृष्ण दस दिनों तक वास करते हैं. इसके पीछे भी एक पौराणिक कथा है. जिसके अनुसार जब श्री कृष्ण अपनी मौसी के यहां वास करते हैं तो उन्हें तलाश करते हुए माता लक्ष्मी अपने मंदिर से निकलकर गुंडीचा मंदिर पहुंचती है पर उनके आने के पहले ही द्वारपाल मुख्य द्वार बंद कर देते हैं. जिससे लक्ष्मी जी रूठ कर वापस अपने मंदिर चली जाती हैं.
10 दिन बाद जब भगवान श्री कृष्ण अपने धाम जाने के लिए निकलते हैं तो पहले उनका रथ लक्ष्मी मंदिर पहुंचता है, जहां वे अपनी रूठी हुई पत्नी को मानते हैं. इसके बाद वे भाई-बहनों के साथ वापस गर्भ गृह पहुंचते हैं.
इस तरह से यह उत्सव पूरा होता है और पुरी की प्रजा अपने ईष्ट के दर्शनों के लिए फिर से एक साल का इंतजार करती है. इस त्यौहार को देखने के लिए देश-दुनिया से लोग पुरी में जमा होने शुरू हो गए हैं. जिनके मन में मोक्ष की कामना नहीं भी है वे भी इन दिनों पुरी में रहते हुए इस दिलचस्प यात्रा का हिस्सा बनकर अपनी स्मृतियां तैयार कर रहे हैं!
Web Title: Jagannath Puri Rath Yatra, Hindi Article
Feature Image Credit: Rediff.com