दशरथनंदन श्रीराम पुरुषों में उत्तम कहे जाते हैं. उन्होंने अपने जीवन को मानव समाज के लिए आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया. राजकुमार होते हुए भी उन्होंने घोर पीड़ा का सहन किया.
तो वहीं सपत्नी वनगमन, बिछोह और फिर भारी संघर्ष के उपरांत सफलता प्राप्त की. चिरकाल तक हम उनसे प्रेरणा लेते रहेंगे, उनको पूजते रहेंगे. किन्तु, क्या आप जानते हैं कि श्रीराम को एक शाप की वजह से पत्नी-बिछोह का सामना करना पड़ा था!
वह तो भगवान राम ने इस विपत्ति को भी एक अवसर के रूप में देखा और मानव समाज को दैत्य-आतंक से मुक्त किया.
तो आइए जानते हैं कि वह शाप क्या था और वह उन्हें क्यों मिला-
नारद मुनि को अभिमान ने जकड़ा
नारद मुनि ब्रह्मा जी की मानस संतान हैं और जगकल्याण हेतु सदा तत्पर रहते हैं. लिहाजा सकल जगत में उन्हें स्नेह दिया जाता है. वे परम तपस्वी होने के साथ-साथ भक्ति और नीति में पारंगत हैं.
एक बार वे जब तप में लीन थे, तो इंद्र देवता को भय हुआ. उन्होंने नारद जी की तपस्या को भंग करने के लिए अप्सराएं भेजी. लेकिन नारद मुनि पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. यहां तक कि साक्षात कामदेव भी उनसे क्षमा मांग लेते हैं.
एक वक्त ऐसा आया जब नारद मुनि को यह अभिमान हो गया कि उन्होंने काम को जीत लिया है. वो ये बातें जहां-तहां प्रचारित करने लगे. अब चूंकि, अहंकार ईश्वर का भोजन होता है और वे अपने भक्तों के अहंकार को तोड़कर उसे सही रास्ता दिखाते हैं.
ऐसे में देवर्षि नारद का अहंकार भी ईश्वर का भोजन बना!
नारद मुनि ने भगवान शिव के समक्ष खुद अपनी प्रशंसा के पुल बांध दिए. महादेव उनके अभिमान को भांप गए. उन्होंने नारद को सलाह दी कि वे इसे भगवान विष्णु के पास जाकर न प्रकट करें.
महादेव को पता था कि नारायण अहंकार का भक्षण करते हैं. नारद मुनि बुरे फंस सकते हैं.
मद में चूर नारद मुनि से रहा नहीं गया. उन्होंने भगवान विष्णु के सामने भी अपने अभिमान को प्रकट करते हुए अपने गुणों की चर्चा कर डाली. भगवान विष्णु सब कुछ जान रहे थे और उन्हें लीला करने का अवसर मिल गया.
श्रीहरि विष्णु ने उनके अभिमान को खंडित करने की ठानी.
‘माया’ ने अपना काम किया शुरू
भगवान की आज्ञा पाकर माया ने एक सुन्दर नगर का निर्माण किया. ये नगर नारद मुनि के मार्ग में ही पड़ता था. इस दिव्य नगर को देखकर जिज्ञासु नारद से रहा नहीं गया. वे नगर में प्रवेश करते हैं तो वहां स्वयंवर के आयोजन की खबर प्राप्त होती है.
वे इस ‘मेगाइवेंट’ के बारे में पता लगाते हुए नगर राजकुमारी के पास पहुंचते हैं. वे राजकुमारी के सौन्दर्य से मोहित हो जाते हैं. ये सब नारायण की ही माया थी. नारद मुनि ये भांप नहीं पाते हैं और उनके मन में स्वयंवर में भाग लेने की इच्छा प्रबल होती है.ॉ
नारद इतने प्रेमातुर होते हैं कि किसी भी सूरत में राजकुमारी को प्राप्त करना चाहते हैं. इसके लिए वे कुछ भी करने को उद्यत होते हैं और बैकुंठ जाकर भगवान से अपेक्षित वरदान की इच्छा रखते हैं.
नारद मुनि श्रीहरि भगवान विष्णु के पास आकर उनसे उनका सुन्दर रूप मांगते हैं. ताकि राजकुमारी को मोहित कर उसका वरण कर सकें. वे भगवान श्रीहरि से कहते हैं कि उन्हें वे ‘हरि’ का मुख प्रदान करें.
लीलाधर भगवान विष्णु उन्हें तथास्तु कहकर विदा कर देते हैं. इसके बाद जो घटित होता है वो बेहद दिलचस्प है.
भगवान नारद मुनि को वानरमुख प्रदान करते हैं ताकि उनका अहंकार टूट सके. बता दें कि हरि का एक अर्थ ‘वानर’ भी होता है. अपने बदले रूप के साथ नारद स्वयंवर में पधारते हैं. उनका कांफिडेंस बहुत ही ज्यादा रहता है.
इस स्वयंवर में कुछ शिवगण भी ब्राह्मण वेश में उपस्थित रहते हैं. उनको सब कुछ पहले से मालूम होता है. इसमें भगवान विष्णु भी राजकुमार बनकर आते हैं. नारद इतने अहंकार में होते हैं कि इन्हें पहचान नहीं पाते.
नारद मुनि बनते हैं मजाक के पात्र
जब राजकुमारी स्वयंवर में आती हैं तो वे नारद जी के वानरमुख को देखकर कुपित होती हैं. नारद जी का वरण न कर वे राजकुमार के रूप में उपस्थित भगवान विष्णु का वरण करती है. नारद अचंभित होकर देखते ही रह जाते हैं.
सभा में उपस्थित दो शिवगण नारद का मजाक उड़ाने लगते हैं और साफ जल में मुख देखने की सलाह देते हैं. नारद अपना चेहरा जब वानर की तरह पाते हैं तो गुस्से से लाल हो जाते हैं.
नारद उपहास कर रहे दोनों शिवगणों को राक्षस योनि में जन्म लेने का श्राप देते हैं. इसके बाद वे सीधे विष्णु भगवान के पास पहुंचते हैं. माया से मोहित नारद भगवान विष्णु को न केवल भला-बुरा कहते हैं, बल्कि श्रीहरि को शाप भी दे देते हैं.
नारद मुनि उनको शाप देते हैं कि जिस प्रकार उन्होंने स्त्री का वियोग सहा है उसी प्रकार भगवान को मनुष्य जन्म लेकर वियोग सहना होगा. तब वानर ही उनके काम आएंगे.
जैसे ही नारद मुनि शाप देते हैं, भगवान उन्हें माया से मुक्त कर देते हैं. पश्चात नारद जी का अहंकार तो दूर चला ही जाता है, उन्हें ग्लानि भी होती है. भक्त वत्सल भगवान नारद जी को तत्क्षण क्षमा दान देते हैं.
यही शाप त्रेता में उस समय फलित होता है जब भगवान श्रीराम अवतार लेते हैं. इसी शाप के कारण श्रीराम को पत्नी सीता का वियोग सहना पड़ता है बल्कि घोर कष्ट झेलने पड़ते हैं.
इसलिए कहा जाता है कि किए की सजा जरूर मिलती है. शाप और पाप कभी पीछा नहीं छोड़ते!
Web Title: Narad Muni Shraap And Vishnu Ji, Hindi Article
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