जब हम किसी बाहरी समस्याओं से घिरते हैं, तो बेहद निराश हो जाते हैं. यही निराशा धीरे-धीरे हताशा में परिणत हो जाती है. हम उनसे लड़ने की बजाए दूसरों को दोष देने में लग जाते हैं और दुःख को प्राप्त करते हैं.
किन्तु, ऐसे भी लोग हुए हैं जिन्होंने घोर निराशा की स्थिति को इतना सकारात्मक बना लिया कि हजारों साल बाद भी लोग मिसाल दिया करते हैं. हम बात कर रहे हैं अद्वैत वेदान्त के महत्वपूर्ण ग्रन्थ अष्टावक्र गीता के रचयिता ऋषि अष्टावक्र की.
जानकर आश्चर्य होगा कि इनका शरीर आठ जगह से टेढ़ा था!
असल में इनका नामकरण भी इसी आधार पर 'अष्टावक्र' 'आठ जगह से टेढा' हुआ. ऐसे टेढ़े-मेढ़े शरीर प्राप्त करने के बावजूद इन्होंने हार न मानी और परम प्रतिभा का परिचय देते हुए जग समादृत विद्वान बने.
कहते हैं जब ये गर्भ में ही थे तो पिता के कोप का भोजन बनना पड़ा और इन्होंने शापित शरीर के साथ जन्म धारण किया.
पिता ने गर्भ में ही क्यों दिया था शाप!
बेहद रोचक किन्तु आश्चर्यजनक प्रसंग है ये! उद्दालक ऋषि को अपने शिष्य कहोड़ की प्रतिभा से बेहद प्रसन्नता थी. कहोड़ जब सम्पूर्ण वेदों का ज्ञान हासिल करने में सफल रहे तो उन्होंने अपनी रूपवती एवं गुणवती कन्या सुजाता का विवाह उनसे कर दिया.
समय बीता और नया जोड़ा नये संतति को जन्म देने वाला था. उन्हीं दिनों एक दिन कहोड़ वेदपाठ कर रहे थे. तभी सुजाता के गर्भ में पल रहा बालक बोल उठा– ‘पिताजी! आप वेद का गलत पाठ कर रहे हैं।’
इतना सुनते ही कहोड़ गुस्से से लाल हो उठे और बोले, ‘गर्भ से ही तुम्हारी बुद्धि वक्र है और तुमने मेरा अपमान किया है. इसलिये तू आठ स्थानों से वक्र (टेढ़ा) हो जायेगा.’
इस घटना के कुछ दिन बाद कहोड़ मिथिला के राजा जनक के दरबार में एक बंदी से शास्त्रार्थ करने गए, जहां उनकी हार हो गई. नियम के अनुसार, कहोड़ को जल में डुबा दिया गया. ठीक इस घटना के बाद अष्टावक्र का जन्म होता है.
नाना को समझते रहे पिता, मगर...
टेढ़े अंगों वाला बालक पिता को न देख सका था लिहाजा नाना उद्दालक को ही पिता समझता रहा और अपने मामा श्वेातकेतु को बड़ा भाई. एक दिन वह अपने नाना की गोद में था तभी श्वेतकेतु ने उन्हें बताया कि उद्दालक उनके पिता नहीं हैं. अष्टावक्र को गहरा धक्का लगा और उसने अपनी माता से पिता के विषय में पूछा. माता ने उन्हें पूरी सच्चाई बता दी.
इसके बाद अष्टावक्र अविलंब अपने मामा श्वेतकेतु को साथ लेकर मिथिला रवाना हो गए. वह बंदी से शास्त्रार्थ करने के लिये सीधे राजा जनक के यज्ञशाला में पहुंचे. द्वारपालों ने उन्हें बच्चा समझकर रोका तो उनका कहना था कि केवल बाल सफेद हो जाने या उम्र अधिक होने से कोई बड़ा आदमी नहीं बन जाता. जिसे वेदों का ज्ञान हो और जो बुद्धिमान हो, वही बड़ा होता है.
ये कहते हुए वे राजा जनक की सभा में दाखिल हुए और बंदी को शास्त्रार्थ के लिये ललकारा. लेकिन बालक अष्टावक्र को देखकर सभी सभासद जोर-जोर से हंसने लगे.
अपने पांडित्य से सबको चौंकाया
अष्टावक्र को देखकर सभासद की हंसी रुक नहीं रही थी. असल में आठ जगह से टेढ़े अष्टावक्र को चलते देखकर किसी की भी हंसी छूट जाती थी. लोगों को हंसते देखकर अष्टावक्र भी हंसने लगे. दरअसल उन्होंने अपनी विकलांगता पर तनिक भी मन छोटा नहीं किया था. उन्होंने ऐसी विद्वता हासिल की थी कि इस पर सोचना और दुखी होना उनके लिए शोभा नहीं देती थी.
सभासद अष्टावक्र को देखकर हंस रहे थे तो अष्टावक्र सभासदों पर. ऐसी विचित्र स्थिति में राजा जनक ने अष्टावक्र को पूछा - ‘हे बालक! सभासद की हंसी तो समझ आती है, लेकिन तुम क्यों हंस रहे हो?
मात्र बारह वर्ष के बालक अष्टावक्र का जवाब सुनकर सभी दंग रह गए. अष्टावक्र ने कहा– ‘मेरे हाड़-मांस की वक्रता पर हंसने वालों की वक्र-बुद्धि पर मैं हंस रहा हूं. ये सभी लोग मानसिकता वक्रता से पीड़ित हैं और ये विद्वान् तो कतई नहीं हो सकते. इसीलिए मुझे हंसी आ रही है!
राजा जनक ने धैर्य पूर्वक अष्टावक्र से कहा, ‘धृष्ट बालक! तुम्हारा अभिप्राय क्या है...
अष्टावक्र ने इस पर जवाब दिया, ‘ये सभी चमड़े के पारखी हैं, बुद्धि के नहीं. मन्दिर के टेढ़े होने से आकाश टेढ़ा नहीं होता है और घड़े के फूटे होने से आकाश नहीं फूटता है.
वह तो निर्विकार है और ज्ञानी पुरुष आकाश सदृश ही निर्विकार होते हैं. बालक के मुख से इस ज्ञानपूर्ण बात को सुनकर सभी सभासद आश्चर्यचकित तो हुए ही, लज्जित भी हुए. उन्हें अपनी मूर्खता पर बेहद पश्चाताप हुआ.
राजर्षि जनक ने खुद ली परीक्षा
इस प्रकरण के बाद राजा जनक ने अष्टावक्र की खुद परीक्षा ली. अष्टावक्र ने सभी प्रश्नों का बेहद चतुरता से जवाब दिया. इतना ही नहीं, बंदी भी उनकी विद्वता से चकित होकर नतमस्तक हो गया.
शास्त्रार्थ में बंदी की हार होने अष्टावक्र ने बंदी को जल में डुबोने का आग्रह किया.
बंदी ने हंसते हुए कहा कि वह वरुण का पुत्र है और उसने सब हारे ब्राह्मणों को पिता से पास भेजा है. उन्हें अभी वापस बुला लेगा. ऐसा ही हुआ और सभी हारे हुए ब्राह्मण वापस आ गए. उन्हीं में अष्टावक्र के पिता कहोड़ भी थे.
अष्टावक्र पिता को पाकर बेहद हर्षित हुए.
शंख के पुत्र अघ पर हुए थे कुपित
शंख के पुत्र अघ कामदेव की तरह सुंदर था और उसे इस बात का अभिमान भी बहुत था. एक बार वह मलयाचल पर्वत पर भ्रमण कर रहा था. तभी उसकी नजर टेढ़े-मेढ़े अष्टावक्र पर पड़ी. वह अट्टाहास कर हंसने लगा. अष्टावक्र को जब उस पर नजर पड़ी तो उन्होंने उसे समझाया किन्तु उसकी हंसी रुकने का नाम नहीं ले रही थी.
क्रोध पर विजय प्राप्त कर चुके अष्टावक्र ने अघ की बुद्धि ठीक करने के लिए उसे शाप दे दिया. उन्होंने उसे सबसे वक्र और कुटिल प्रजाति का शर्प बनने का अभिशाप दे दिया. अभिशाप सुनते ही अघ अष्टावक्र के चरणों में गिर पड़ा.
अष्टावक्र को दया आ गई. उन्होंने अघ से कहा कि शीघ्र भगवान विष्णु अवतार ग्रहण करने वाले हैं और वही तुम्हारे उदर में प्रवेश कर तुम्हारा उद्धार करेंगे. यही अघ द्वापर में अघासुर बन जाता है और कृष्ण को मित्र और गायों सहित निगल जाता है.
भगवान कृष्ण उसका पेट फाड़ देते हैं और अपने सखा और गायों को मुक्त करते हुए अघ का उद्धार करते हैं.
अष्टावक्र के पिता कहोड़ बेहद प्रसन्न होकर उन्हें समंगा नदी में स्नान करने की सलाह देते हैं. अपने पिता की शाप से मुक्त होने के लिए वे समंगा नदी में स्नान करते हैं और उनका सभी वक्र अंग सीधा हो जाता है.
अष्टावक्र की कथा हमें धैर्यवान बनने के साथ-साथ गुण-आग्रही बनने की सीख देती है.
Web Title: Story of Sage Ashtavakra, Hindi Article
Feature Image Credit: ajourney