महाभारत!
जब यह नाम लिया जाता है, तो आंखों के सामने अवतरित होते हैं कुरूक्षेत्र में अर्जुन को गीता का ज्ञान देते भगवान श्री कृष्ण. उनके पीछे दिखाई देता है अपार जन समूह.... जहां तक नजर दौडाते हैं, वहां तक केवल हाथी, घोडे, रथ और हाथ में हथियार लिए सैनिक नजर आते हैं.
यह युद्ध मानव समाज को बहुत सी सीख देता है, पर इस सीख के पीछे 40 लाख से ज्यादा सैनिकों का रक्त बहा है. कहा जाता है कि कुरूक्षेत्र की धरती आज भी लाल सिर्फ इसलिए है, क्योंकि महाभारत के युद्ध के 18 दिनों में इतना रक्त पात हुआ था कि उससे वहां की माटी ने ही अपना रंग बदल लिया.
कौरवों की हार और नरसंहार के बाद कुरूक्षेत्र में चारो ओर केवल चीखें सुनाई दे रही थीं. लाखों के ढेर के बीच यदि कोई जीवत था तो 12 वीर पुरूष!
तो चलिए मिलते हैं महाभारत के उन नायकों से, जिन्होंने ऐतिहासिक युद्ध को अपने नाम कर लिया.
अक्षौहिणी में दर्ज है सारा हिसाब
प्राचीन भारत में सेना के माप के लिए 'अक्षौहिणी' विधि की मदद ली जाती थी. महाभारत के संदर्भ में अक्षौहिणी विधि के अनुसार 21870 रथ, 21870 हाथी, 65610 घुड़सवार और 109350 पैदल सैनिक थे. अक्षौहिणी में इनका अनुपात 1 रथ, 1 गज, 3 घुड़सवार और 5 पैदल सैनिक होता था.
इस प्रकार महाभारत में कुल मनुष्यों की कुल संख्या 46 लाख 81 हजार 920 थी.
दिलचस्प बात यह है कि भगवान श्री कृष्ण महाभारत के एक-एक दिन की घटना से पहले ही भली भांति परिचित थे, लेकिन फिर भी प्रश्न यह आता है कि इतने सारे सैनिको की मृत्यु का हिसाब किताब आखिर रखा कैसे गया?
इस संदर्भ में महाभारत में एक कथा है. जिसके अनुसार राजा उडुपी के पास महाभारत में शामिल होने वाले सैनिकों के लिए भोजन का इंतजाम करने की जिम्मेदारी थी. चूंकि रोजाना युद्ध में हजारों सैनिकों का मरना तय था, इसलिए इस बात का अंदाजा नहीं लग पाता था कि आखिर रोज शाम को युद्ध के बाद आखिर कितने लोगों का भोजन बनना है. वे नहीं चाहते थे कि भोजन ज्यादा बने तो बर्बाद हो और कम बने तो सैनिक भूखे रह जाएं.
इसके लिए उन्होंने श्रीकृष्ण की मदद ली. वे रोजाना शाम को कृष्ण के पास उनकी मनपंसद उबली हुई मूंगफलियां ले जाते थे. कृष्ण मूंगफली के कटोरे में से कुछ दाने उठाते और बाकी शेष छोड़ देते. इसके बाद राजा उडुपी उन दानों की गिनती करते. यदि कटोरे में से 10 दाने कम हैं तो इसका अर्थ था कि अगले दिन 10 हजार सैनिकों की मृत्यु होगी.
इस तरह उडुपी रोजना वीरगति को प्रप्त होने वाले सैनिकों की संख्या का पता करते और फिर भोजन बनाते थे.
कृपाचार्य का जीवन था सुरक्षित
महाभारत के युद्ध में सबसे सुरक्षित योद्धा कृपाचार्य को माना जाता है. क्योंकि उन्हें चिरंजीवी रहने का वरदान था. कृपाचार्य के बल पर ही दुर्योधन को इस बता का घमंड था कि उनकी युद्ध में जीत निश्चित है. कृपाचार्य अश्वत्थामा के मामा और कौरवों के कुलगुरु थे.
इतिहास के अनुसार महाराज शिकार खेलने के दौरान शांतनु को दो शिशु जंगल में मिले थे. उन्होंने उनका नामकरण कृपी और कृप किया और फिर उनका लालन पालन किया था. शरद्वान गौतम ने कृप को धनुर्विद्या सिखाई थी.
कृप ही आगे चलकर कृपाचार्य बने और धृतराष्ट्र व पांडु की संतानों को धनुर्विद्या सिखाई. बताया जाता है कि जब महाभारत में कर्ण वीरगति को प्राप्त हुआ तो दुर्योधन काफी दुखी था. तब कृपाचार्य ने उसे पांडवों से संधि कर लेने की सलाह दी थी.
अश्वत्थामा का साथी कृतवर्मा
भोजराज ह्रदिक के पुत्र कृतवर्मा यादव थे. जब एक बार मथुरा पर आक्रमण हुआ था तो श्रीकृष्ण ने कृतवर्मा को पूर्वी द्वार की रक्षा का भार सौंपा था. जहां उन्होंने मंत्री कूपकर्ण को हराया था. कृतवर्मा श्री कृष्ण के सबसे वफादार और साहसी सैनिकों में से थे.
यही कारण था कि युद्ध शुरू होने से पहले श्रीकृष्ण ने कृतवर्मा को हस्तिनापुर भी भेजा था, जहां वे पांडवों, द्रोण तथा विदुर आदि से मिले थे. उन्होंने ही कृष्ण को बताया था कि हस्तिनापुर में क्या हालात बने हुए हैं!
युद्ध के दौरान वे कृष्ण के आदेश से ही कौरवों की सेना में शामिल हुए और अश्वत्थामा के साथी बने.
आज भी जीवित है अश्वत्थामा!
गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा के मस्तक पर अमूल्य मणि विद्यमान थी, जो कि उसे दैत्य, दानव, शस्त्र, व्याधि, देवता, नाग आदि से निर्भय रखती थी. यही कारण था कि युद्ध में कोई उनका बाल भी बांका नहीं कर सका. महाभारत में उन्होंने भीम-पुत्र घटोत्कच को परास्त किया तथा घटोत्कच पुत्र अंजनपर्वा का वध किया.
द्रोणाचार्य के साथ अश्वत्थामा ने पांडवों की हार सुनिश्चित कर दी थी. इसी वजह से श्रीकृष्ण ने यह अफवाह फैला दी कि अश्वत्थामा मारा गया! यह सुनने के बाद द्रोणाचार्य ने हथियार फेंक दिए और द्रौपदी के भाई धृष्टद्युम्न ने तलवार से उनका सिर काट डाला.
जब अश्वत्थामा के मारे जाने की घोषणा हो रही थी तब उनके पुत्र अश्वत्थामा की नहीं बल्कि हाथी अश्वत्थामा के मारे जाने खबर दी जा रही थी, लेकिन घोषणा के समय श्रीकृष्ण ने शंख बजाया और द्रोणाचार्य हाथी शब्द नहीं सुन पाए.
पिता के साथ हुए धोखे से दुखी अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया. जिसके बाद श्रीकृष्ण ने उन्हें कलयुग खत्म होने तक कोढ़ी के रूप में जीवित रहने का शाप दे डाला. ऐसा माना जाता है कि अश्वत्थामा आज भी हिमालय की गुफाओं में जीवित हैं.
कौरवों का सौतेला भाई युयुत्सु
महाराज धृतराष्ट्र और दासी के पुत्र युयुत्सु को महाभारत के बाद भी जीवन मिला. माना जाता है कि युयुत्सु को जीवन भर सम्मान नहीं मिला. वे धृतराष्ट्र के पुत्र थे, पर कौरवों ने कभी उन्हें अपना भाई नहीं समझा. यही कारण था कि उन्होंने कौरवों की ओर से नहीं बल्कि पांडवों की ओर से युद्ध किया.
माना जाता है कि युयुत्सु के वंशज आज भी मौजूद हैं पर उनके बारे में कोई आधिकारिक जानकारी नहीं है.
अर्जुन का खास सात्यकि
यादव योद्धा सात्यकि अर्जुन का परम स्नेही था. अभिमन्यु के निधन के बाद अर्जुन ने शपथ ली थी कि वह जयद्रथ को मार देगा या फिर खुद आत्मदाह कर लेेंगे. तब उन्होंने युधिष्ठिर की सुरक्षा की जिम्मेदारी सात्यकि को ही दी थी. पूरे युद्ध में अर्जुन और श्रीकृष्ण ने सात्यकि की रक्षा की थी.
सात्यकि ने कौरवों के अनेक योद्धाओं जैसे जलसंधि, त्रिगर्तों की गजसेना, सुदर्शन, म्लेच्छों की सेना, भूरिश्रवा, कर्णपुत्र प्रसन आदि को मार गिराया था.
पांडु पुत्र युधिष्ठिर
पांडु पुत्र और भाइयों में सबसे बडे़ युधिष्ठिर महाभारत के बाद जीवित बचे थे. उन्होंने युद्ध के मैदान में युधिष्ठिर भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और मामा शल्य से जीत का आर्शीवाद लिया था. युधिष्ठिर ने युद्ध समाप्त होने के बाद सभी सैनिकों का दाहसंस्कार और तृपण किया था.
जीत के बाद भी उन्होंने संपत्ति, धन, राज्य से वैराग्य ले लिया था.
बलशाली भीम
द्रौपदी के चीरहरण का बदला लेने के लिए दुःशासन की छाती फाड़कर उसका रक्तपान करने वाले दूसरे पांडु पुत्र थे जो महाभारत में जीवित बचे. महाभारत के युद्ध में भीम ने ही कौरवों का वध किया था. जब उन्होंने दुर्योधन का वध किया तब उसके बाद युद्ध समाप्त हो गया.
अर्जुन
पांडु पुत्रों में अर्जुन का तीसरा स्थान है. महाभारत में श्री कृष्ण उनके सारथी बने थे. जब कृष्ण सारथी हों तो भला कैसे कोई उसके प्राण हर सकता है. हिमालय में तपस्या करते समय अर्जुन का किरात वेशधारी शिव से युद्ध हुआ था.
शिव से उन्हें पाशुपत अस्त्र और अग्नि से आग्नेयास्त्र, गांडीव धनुष तथा अक्षय तुणीर प्राप्त हुआ. इसके साथ ही द्रोणाचार्य ने अर्जुन को प्रयोग और उपसंहार सहित ब्रह्मशिर अस्त्र का प्रयोग करना सिखाया था. वरुण ने नंदिघोष नामक विशाल रथ प्रदान किया था.
इन सभी अस्त्रों शस्त्रों का प्रयोग अर्जुन ने महाभारत युद्ध में किया था.
नकुल-सहदेव
पांडु और रानी माद्री के पुत्र नकुल सहदेव पांडवों में सबसे छोटे थे लेकिन वे किसी भी मामले में अर्जुन और भीम से कम नहीं थे. उन्होंने युद्ध में अपने तीनों बड़े भाईयों की रक्षा की. इसके साथ ही उनके पुत्रों की रक्षा करने और कौरवों को परास्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी.
सारथी श्री कृष्ण
अर्जुन के सारथी बने श्री कृष्ण ने महाभारत में सीधे तौर पर तो हथियार नहीं उठाए थे पर फिर भी उनकी युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका रही.
श्री कृष्ण ने अपनी नारायणी सेना को कौरवों के हवाले कर दिया था और खुद को पांडवों के साथ. श्री कृष्ण की युक्तियां नहीं होती तो पांडवों की इस जंग में हार निश्चित थी. श्री कृष्ण ने केवल अर्जुन का रथ ही नहीं सम्हाला था, बल्कि समूची पांडव सेना को साधने का काम किया था.
कर्ण पुत्र वृषकेतु
कर्ण पांडवों के भाई थे पर, उन्होंने अपने मित्र दुर्योधन की ओर से युद्ध लडा. अपने पिता का साथ देने के लिए वृषकेतु ने भी कौरव सेना की ओर से पांडवों के खिलाफ युद्ध लडा था. पर जब महाभारत में कर्ण की मृत्यु हो गई तब पांडव ही थे जिन्होंने वृषकेतु को मानसिक रूप से संबल दिया.
उन्हें स्नेह को देखते हुए वृषकेतु पांडवों के निकट आ गया था.
इस प्रकार कौरव सेना के तीन नायक और पांच पांडवों और श्रीकृष्ण समेत अन्य 3 वीरों ने महाभारत का वो मंजर देखा था, जब उनके सामने केवल लाशें ही लाशें थीं. इस भीषण त्रासदी के बाद पांडवों ने अपना राज्य और संपत्ति छोड़ दी और मोक्ष यात्रा के लिए हिमालय का रूख कर लिया.
Web Title: Surviving warriors after the Mahabharata, Hindi Article
Feature image Credit: mysteryofindia