जब हताशा और निराशा हमें चारों ओर से घेर ले, विवादों के बीच सुलह का रास्ता न मिले, हर प्यारी चीज पराई लगने लगे, तो ख्याल आता है कि बस अब सन्यास ले लेना चाहिए. यह ख्याल पहले 60 की उम्र के बाद आते थे, पर आजकल जिस तरह का तनाव व्यक्ति झेल रहा है, उसे देख कर लगता है कि सन्यास के ख्याल से 25-30 साल का युवा भी दो-चार हो चुका है.
हालांकि, सन्यास का ख्याल जितनी जल्दी आता है, उतनी जल्दी ही फुर्रर भी हो जाता है. क्योंकि यह डगर इतनी आसान नहीं. साढ़े तीन शब्द और एक मात्रा का यह शब्द 'सन्यास' अपने आप में एक जीवन को समेंटे हुए है.
सनातन धर्म में सन्यास को 15वें संस्कार की जगह दी गई है. यदि आपके ख्यालों में भी सन्यास जैसा कोई शब्द गूंज रहा है, तो जरा एक बार इसे विस्तार से समझ लीजिए और फिर तय कीजिए कि यह कितना आसान है-
सनातन धर्म में सन्यास का बड़ा महत्व
बात यदि धर्म के अनुसार की जाए तो सनातन धर्म में व्यक्ति के जीवन के लिए निर्धारित संस्कारों में सन्यास को 15वां स्थान दिया गया है. शास्त्रों के अनुसार सन्यास लेने या देने की वस्तु नहीं है. यह एक मानसिक भाव है, जिसके प्रति आकर्षण परमात्मा की कृपा से ही प्राप्त होता है. हालांकि, ज्यादातर लोग गलती यह करते हैं कि सन्यास कब लेना है. इसका निर्धारण वे स्वयं करते हैं.
बताते चलें कि दीक्षा, आचरण के नियम, वेशभूषा, विधि आदि का सन्यास में कोई महत्व नहीं है.
सन्यास के सही समय की बात की जाए तो शास्त्र कहते हैं कि भावनात्मक चोट से या स्वयं की विचार शक्ति से भौतिक जगत से मोह छूटता जाता है, और यही सन्यास की राह पर चलने का निर्णय लेने का सही समय होता है.
भावनात्मक ज्ञानमार्ग है, जो विचार शक्ति, तर्क शक्ति, मनन शक्ति के जरिए अंतिम सत्य तक पहुंचने में मदद करता है. अपने सभी कर्तव्यों को पूरा करने के बाद, मोह-माया त्यागकर अपने इष्ट के चरणों में सर्वस्व न्यौछावर कर देना ही सन्यास है.
सनातन धर्म के अनुसार ब्रह्मचर्य आश्रम के दौरान गृहस्थ आश्रम की तैयारी होती है, ठीक उसी प्रकार गृहस्थ में वानप्रस्थ और फिर वानप्रस्थ में सन्यास आश्रम की प्रक्रिया शुरू हो जाती है. एक प्रकार से सन्यास आश्रम ब्रह्मचर्य आश्रम की पुर्नवृत्ति कही जा सकती है. पुराणों में सन्यास आश्रम के दो भेद हैं.
पहले भेद के अनुसार संन्यास आश्रम को जीने वाला व्यक्ति योगी कहलाता है. वह योगाभ्यास द्वारा अपनी इन्द्रियों को वश में करने का प्रयास करता है. दूसरे भेद में व्यक्ति मोक्ष की प्राप्ति के लिए ध्यान में लीन होता है. अपने भीतर ही ब्रह्म का साक्षात्कार करता है. इन दोनों भेदों का उपसंहार अंतिम सत्य से एकाकार होना ही है. साधू वैष्णव, शैव, शाक्त, दसनामी और नाथ संप्रदाय में बंटे हुए हैं, इनके योग, ध्यान और विधि-विधान में नाम मात्र का फर्क होता है, परन्तु एक शब्द में सभी सन्यासी कहलाते हैं.
जीते जी करना होता है अपना पिंडदान
पढ़ाई खत्म हुई तो नौकरी करने लगे, नौकरी की तो शादी हो गई, शादी की तो बच्चे!
यह सब एक स्वभाविक प्रक्रिया है. व्यक्ति एक आश्रम से दूसरे आश्रम में आसानी से प्रवेश करता जाता है, पर बात जब सन्यास आश्रम की आती है तो यहां परीक्षा में उर्तीण हुए बिना प्रवेश नहीं मिलता.
भारत में सन्यास लेने की प्रक्रिया अखाड़े से शुरू होती है. हर तरह के योगियों, संतों, साधुओं का एक समूह मिलकर अखाड़े का निर्माण करता है. यदि मन में सन्यास लेने की कामना है तो सबसे पहले अखाड़े से संपर्क किया जाता है.
अखाड़े में प्रवेश का पहला नियम है ब्रह्मचर्य भाव का पालन. यानि सभी तरह के रिश्तों, परिवार, अभिलाषाओं, इच्छाओं की इतिश्री कर दी जाती है. यह परीक्षा कुछ दिनों की नहीं होती, बल्कि अखाड़े तय करते हैं कि व्यक्ति को कितने सालों तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना होगा. इसकी कोई निर्धारित सीमा नहीं. परीक्षा उर्तीण करने में 10 साल भी गुजर सकते हैं. जब अखाड़ा विश्वास करता है कि व्यक्ति ने कई सालों तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया है, तब जाकर उसे सन्यासी होने की दीक्षा दी जाती है.
इस दीक्षा को 'पंच गुरु दीक्षा' कहा जाता है. जिसमें अखाड़े के गुरू सन्यासी बन रहे व्यक्ति को लंगोटी, चोटी, भभूत, रुद्राक्ष एवं भगवा वस्त्र देते हैं. इसके बाद गुरू के सानिध्य में रहते हुए विर्जा हवन दीक्षा दी जाती है.
यह सबसे कठिन क्षण होता है, क्योंकि इसमें व्यक्ति जनेऊ पहनकर हाथ में दण्ड-कमंडल लेकर नदी के तट पर जाता है और अपने सभी रिश्तों, परिवार के सदस्यों आदि का पिण्डदान कर आता है.
अर्थात सभी जीवित रिश्ते भी उसके लिए मृत समान हो जाते हैं. पिंडदान की अंतिम प्रक्रिया में व्यक्ति स्वयं का भी पिंडदान करता है, यानि परिवार और संसार के लिए वह मृत समान है.
गुप्त होती हैं सन्यासी बनने की प्रक्रिया
पिंडदान के साथ ही लौकिक जगत से सारे बंधन खत्म हो जाते हैं और व्यक्ति स्वयं को परमात्मा और गुरू को समर्पित कर देता है. इसके साथ ही सन्यास का पहला चरण पूरा होता है. इस प्रक्रिया को पूरी करने वाले को सन्यासी होने का पदक मिल जाता है, पर इसे सार्थक करना बाकी होता है. पूर्ण सन्यासी होने के लिए सब त्याग देने के बाद गुरू से धर्म की शिक्षा ली जाती है.
योग, ध्यान, वैराग्य आदि चरणों को पार किया जाता है.
वास्तविक सन्यासी कभी धर्म या वेदों की निंदा नहीं करते. परामात्मा में विश्वास रखते हैं. किसी को चमत्कार का प्रलोभन नहीं देते और न ही आडंबर करते हैं. गुरू के सानिध्य में रहते हुए सन्यासी तपन संस्कार को पूरा करते हैं. जिसके अंतर्गत श्मशान घाट की धूनी से स्नान करना पड़ता है और फिर गुरू वैदिक मंत्रों के जरिए उसे नया नाम देते हैं.
नया नाम मिलने के बाद सन्यासी को आखिरी दीक्षा दी जाती है. इसे 'दिगंबर दीक्षा' कहा जाता है. यह चरण सबसे आखिरी और सबसे कठिन होता है. सन्यासी को अखाड़े की ध्वाजा की नीचे 24 घंटे तक हाथ में दण्ड और मिट्टी का पात्र लेकर खड़ा रहना पड़ता है. इसके बाद एक अन्य सन्यासी उसका लिंग भंग करता है.
इस दीक्षा के साथ ही सन्यासी का पलंग पर सोना और सिले हुए वस्त्र आदि पहनना बंद हो जाता है. सन्यास के दौरान की यह सभी प्रक्रियाएं गुप्त होती हैं. किसी सांसारिक सदस्य को इन प्रक्रियों को देखने की अनुमति नहीं होती.
इन दीक्षाओं के अलावा भी अलग-अलग अखाड़े के अलग नियम होते हैं.
हर रंग कुछ न कुछ कहता है
अक्सर देखा होगा कि कुछ सन्यासी भगवा रंग तो कुछ काले रंग के वस्त्र धारण करते हैं. वस्त्रों का रंग उनकी सिद्धियों, उपलब्धियों और ज्ञान के आधार पर निर्धारित होता है. सन्यास की शुरूआती प्रक्रिया के दौरान व्यक्ति को सफेद रंग के वस्त्र धारण करने होते हैं. साधक को ध्यान रखना पड़ता है कि उस पर कहीं कोई दाग न लगे.
सन्यास की पहली परीक्षा पास करने पर पीले रंग के वस्त्र धारण किए जाते हैं. पीला रंग दया, क्षमा और करुणा का प्रतीक माना जाता है. इस अवस्था के साधू अत्यंत सहनशील होते हैं. अगले चरण में जब व्यक्ति साधना की स्थिति में पहुंचता है, तो लाल रंग के वस्त्र धारण करने का अधिकारी होता है. लाल रंग क्रोध, खतरे और अग्नि का प्रतीक है.
यानि साधक अपनी तमाम इच्छाओं और आकांक्षाओं को स्वाहा करता है.
आखिरी में सन्यासी काले रंग के वस्त्र धारण करने के अधिकारी होते हैं. साधना पूर्ण होने पर संन्यासी काले वस्त्र धारण कर सकते हैं. काला रंग सभी रंगों का मिश्रण है. यह पूर्णता और परम पवित्रता का प्रतीकऔर दैवत्व की पराकाष्ठा का प्रतीक माना जाता है. इन चरणों में से गुजरते हुए एक सांसारिक व्यक्ति सन्यास को प्राप्त होता है.
यदि संन्यासियों को और करीब से जानना चाहते हैं तो देश में लगने वाले कुंभ मेले उसका सबसे अच्छा उदाहरण हो सकते हैं. देश-दुनिया से लोग यहां भारत के सन्यासियों को देखने पहुंचते हैं.
हर साल कुंभ में हजारों लोग सामुहिक रूप से सन्यास की दीक्षा लेते हैं. यदि आप भी सन्यास का मन बना चुके हैं, तो आने वाले कुंभ का इंतजार कीजिए और तब तक उक्त प्रक्रियाओं से गुजरने के लिए खुद को तैयार कीजिए!
Web Title: Untold Story of Being a Sannyasi, Hindi Article
Feature Image Credit: siddharthvastav