महाभारत की कहानी और घटना चक्र ऐसे हैं कि उनके बारे में जितनी बात की जाए कम है. हर बार कोई न कोई घटना चक्र या पात्र ऐसा होता है, जो छूट ही जाता है. जबकि, महाभारत के हर छोटे-बड़े पात्र का हर घटना से महत्वपूर्ण संबंध है.
महाभारत की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी द्रौपदी का चीर हरण. इस घटना ने पांडवों और कौरवों के बीच उस खाई को पैदा किया जो समय के साथ-साथ गहरी होती गई. फिर एक दिन उस खाई में महाभारत के सभी अहम पात्र खोते चले गए.
किन्तु उन सभी में कोई था, जो इस भीषण युद्ध के बाद भी अपने धर्म-कर्म के कारण जाना गया. यूं तो वह कौरव ही था, पर शायद वह इकलौता ऐसा इंसान था, जिसने द्रौपदी के चीर हरण में भाईयों का साथ नहीं दिया.
उस महान युद्धा का नाम है विकर्ण!
तो चलिए आज विकर्ण के चरित्र से पर्दा उठाते हैं और जानते हैं कि आखिर उसमें यह साहस कैसे आया!
गांधारी पुत्र नहीं विकर्ण, मगर...
विकर्ण होने को तो कौरव था, लेकिन वह गांधारी पुत्र नहीं था.
हालांकि, विकर्ण को सौ कौरव पुत्रों में ही गिना जाता है, किन्तु विकर्ण का इतिहास बाकी भाईयों से अलग था. कहा जाता है कि विकर्ण को गांधारी ने जन्म नहीं दिया था, बल्कि वह एक दासी पुत्र था. यह सर्वविदित है कि धृतराष्ट्र और पांडू के बीच हस्तिनापुर के सिहांसन के लिए शीत युद्ध चलता रहता था. दोनों भाई चाहते थे कि उनके पुत्र सिंहासन पर बैठे.
बस शर्त यह थी कि जिसका पुत्र पहले जन्म लेगा, वही हस्तिनापुर के सिंहासन पर बैठेगा. धृतराष्ट्र बड़े थे और गांधारी से उनका विवाह भी पहले हुआ था, इसलिए यह मत था कि उनका पुत्र सिंहासन पर विराजेगा.
दुखद यह था कि विवाह के कई वर्षों के बाद भी गांधारी को संतान प्राप्ति नहीं हुई.
इस बीच कुंती और पांडू के विवाह की तैयारियां शुरू हो गईं, जिससे यह बात भी तय थी कि विवाह के बाद उनकी संतान भी होंगी और हो सकता है कि उनका पहला पुत्र हस्तिनापुर के सिंहासन पर बैठे.
इस बात के भय से धृतराष्ट्र व्याकुल थे. वे अपने मन की वेदना गांधारी से भी नहीं कह पा रहे थे. इस बीच महल की एक दासी उनके कक्ष में पहुंची. अपने राजा को दु:खी देखकर उसने कारण पूछा. धृतराष्ट्र अपने मन की बात किसी से करना चाहते थे और यही वो क्षण था, जब उन्होंने उस दासी से अपनी मन की सारी व्यथा कह दी.
दुर्योधन का सौतेला भाई था
दासी ने उनके मन को समझा और सांत्वना दी. इसी बीच धृतराष्ट्र के मन में दासी के लिए भावनाएं जाग्रत होने लगीं. उन्हें लगा कि केवल वही है, जो उसे बुरे समय में उनके साथ है. इन भावनाओं को और गति मिली और उसी रात धृतराष्ट्र के अपनी दासी के साथ शारीरिक संबंध बने.
यह संबंध अवैध था इसलिए धृतराष्ट्र ने दासी से कहा कि वे कभी उसे सार्वजनिक तौर पर नहीं अपना सकते. दासी को इस बात से कोई गुरेज नहीं था. कुछ समय बाद पता चला कि दासी गर्भ से है और वह जल्दी ही संतान को जन्म देने वाली है. वहीं गांधारी ने भी ठीक उसी समय गर्भधारण किया, लेकिन संतान के रूप में उसने मांस का टुकड़े को जन्म दिया.
जबकि, ठीक उसी समय दासी को प्रसव पीड़ा शुरू हुई. मांस के टुकड़े को देख धृतराष्ट्र के सब्र का बांध टूट गया और उसने गांधारी को अपने और दासी के संबंधों के बारे में सब कुछ कह दिया. गांधारी इस बात से दुखीं हुईं, लेकिन वे जानती थी राज्य के लिए पुत्र जन्म कितना आवश्यक है, इसलिए उन्होंने धृतराष्ट्र का विरोध नहीं किया.
साथ ही गांधारी ने जन्म दिए गए मांस के टुकड़े को कलश में रखा, जिससे पहले दुर्योधन का जन्म हुआ था. दुर्योधन के बाद दुशासन का जन्म हुआ. तीसरे पुत्र का जन्म होता इसके पहले उसी समय दासी ने पुत्र को जन्म दे दिया.
इस बात का समाचार धृतराष्ट्र और गांधारी को मिला. इस तरह से दासी पुत्र धृतराष्ट्र का तीसरा पुत्र कहलाया. बाद में गांधारी ने बाकी पुत्रों को कलश के जरिए जन्म दिया.
धृतराष्ट्र ने कभी भी दासी को नहीं अपनाया पर, चूंकि पुत्र उनका रक्त था इसलिए उसे विकर्ण नाम दिया. साथ ही उसे हस्तिनापुर के बाकी कौरवों की तरह अपना पुत्र समझकर अपनाया.
हालांकि, इतिहास में विकर्ण की मां का कोई उल्लेख नहीं किया गया. यह बात जरूर है कि विकर्ण कभी भी गांधारी को अपने बाकी पुत्रों की तरह प्रिय नहीं था. पर चूंकि वह धृतराष्ट्र पुत्र था, इसलिए कौरव होने के सम्मान का अधिकारी रहा.
बन सकता था अर्जुन से बड़ा धनुर्धर
बाकी कौरवों की तरह विकर्ण का लालन-पालन भी राजकुमार की तरह हुआ, लेकिन उसके आचार-विचार बाकी कौरवों से अलग रहे. उसका यह गुण शिक्षा के क्षेत्र में भी देखने को मिला. कौरवों में कोई नहीं था, जो पांडू पुत्र अर्जुन की तरह अच्छा धनुर्धर हो सकता, पर विकर्ण में अद्भुत प्रतिभा थी. उसने गुरू द्रोण और कृपाचार्य से धुनषविद्या सीखी थी.
शिक्षा समाप्ति के बाद, जब गुरूदक्षिणा का समय आया तो कौरवों ने आचार्य द्रोण से पूछा कि वे गुरू दक्षिणा में क्या चाहते हैं? द्रोण ने कहा कि मैं चाहता हूं कि तुम द्रुपद की सेना का सामना करो और उसे जंग में हराओ.
कौरवों ने आचार्य की आज्ञा का पालन किया. आचार्य द्रोण जानते थे कि दुर्योधन नहीं तो कम से कम विकर्ण में यह साहस है कि वह सेना को अपने तीरों का निशाना बना सकता है.
हालांकि, दुर्योधन ने विकर्ण को युद्ध में पीछे रखा. असल में वह अपने साहस का परिचय देना चाहता था. अंतत: कौरव द्रुपद की सेना का सामना नहीं कर पाए. इसके बाद यह काम पांडवों ने किया और वे द्रुपद की सेना से जीत गए.
इस युद्ध में जीत के बाद ही सभी ने अर्जुन की विलक्षण धनुष प्रतिभा का लोहा माना था. ऐसा माना जाता है कि यदि दुर्योधन ने अपनी न चलाई होती, तो विकर्ण की दम पर वे युदृध जीते होते और वह अर्जुन से बेहतर धनुर्धारी होता.
दुर्योधन को दिखाया घर्म का रास्ता
विकर्ण का सबसे महत्वपूर्ण उल्लेख तब मिलता है, जब पांडव द्यूत-क्रीड़ा में कौरवों से अपना पूरा राजपाठ, अपने भाई, यहां तक कि अपनी पत्नी द्रौपदी को भी हार गए थे. दुर्योधन ने सभा में द्रौपदी को निर्वस्त्र करने का आदेश दिया. इस आदेश के विरोध में पांडवों ने अपने सिर झुका लिए. सभा में इस घटना का विरोध करने वाले सबसे पहले व्यक्ति विदुर थे.
जब सभा में किसी ने भी विदुर की बात नहीं सुनी, तो अगला विद्रोही स्वर कौरवों के बीच में से सुनाई दिया.
यह स्वर था विकर्ण का! विकर्ण अपनी गद्दी सेे उठे और उन्होंने हाथ जोड़कर दुर्योधन से कहा कि द्यूत-क्रीड़ा में योद्धा का निशस्त्र होना और स्त्री के निवस्त्र होने में बहुत फर्क है. उसने कहा कि ‘पितामह भीष्म और पिता धृतराष्ट्र, ये दोनों कुरुवंश के सबसे वृद्ध पुरुष हैं. आचार्य भरद्वाजनन्दन द्रोणाचार्य और कृपाचार्य ये दोनों ब्राह्मण कुल के श्रेष्ठ पुरुष हैं.
यहां विदुर जैसे ज्ञानी उपस्थित हैं.
तो क्यों नहीं आप सब मिलकर विचार करते हैं कि आखिर इस खेल का अंत क्या होना चाहिए?
विकर्ण के इस प्रश्न पर सभा में उपस्थित सभी नीति पुरूषों ने अपने सिर झुका लिए. उनके झुके हुए सिर देखकर विकर्ण ने लंबी सांस ली और हाथ मलते हुए कहा, भूपालो! राजाओं के चार दुर्व्यसन बताए गए हैं- शिकार, मदिरापान, जुंआ तथा विषय भोग में अत्यन्त आसक्ति. ‘इन दुर्व्यसनों में आसक्त मनुष्य धर्म की अवहेलना करके मनमाना बर्ताव करने लगता है.
आज, यहां जो हो रहा है वह इन दुर्व्यसनों का जीवंत परिणाम है.
उसने कहा कि ये पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर द्यूतरूपी दुर्व्यसन में अत्यन्त आसक्त हैं. इन्होंने इस खेल में अपना जीवन, अपने भाई, अपना सम्मान और अपनी पत्नी तक को हार दिया है, लेकिन पत्नी द्रौपदी को दांव पर लगाने की बात सबसे पहलेे सुबलपुत्र शकुनि ने उठायी थी. उन्होंने ही पांडवों से कहा कि वे आखिरी दांव में अपना सबकुछ वापिस पा सकते हैं.
जब विकर्ण ने शकुनि पर आरोप लगाया तो दुर्योधन कोई जवाब नहीं दे पाए.
जब कर्ण ने लिया दुर्योधन का पक्ष
ऐसे में कर्ण उठे और विकर्ण से बोले, इस जगत् में बहुत-सी वस्तुएँ विपरीत परिणाम उत्पन्न करने वाली देखी जाती हैं. जैसे अरणि से उत्पन्न हुई, अग्नि उसी को जला देती है. रोग यद्यपि शरीर में ही पलता है, तथापि वह शरीर के ही बल का नाश करता है. उसी प्रकार तुम कुरु-कुल में उत्पन्न होकर भी अपने ही पक्ष को हानि पहुँचाना चाहते हो.
सभा में तुमसे ज्यादा बुदिृधमान लोग हैं, पर वे मौन हैं. ये सब लोग द्रुपदकुमारी को धर्म के अनुसार जीती हुई समझते हैं. तुम केवल अपनी मूर्खता के कारण आप ही अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार रहे हो, क्योंकि तुम बालक हो.
कुरुनन्दन! देवताओं ने स्त्री के लिए एक ही पति का विधान किया है, परंतु यह द्रौपदी अनेक पतियों के अधीन है. विकर्ण ने कहा कि रावण ने भी सीता मां का अपमान किया था और अंत में उसके पूरे कुल का नाश हो गया था. मैं अपने भाई या सभा का विरोध नहीं कर रहा हूं, बल्कि अपने भाई को न्यायसंगत तर्क दे रहा हूं.
मैं इस अन्याय का हिस्सा न तो खुद बनना चाहता हूं न ही किसी कौरव को बनने देना चाहता हूं.
तभी दुर्योधन ने विकर्ण को रोका और कहा कि यहां जो हो रहा है वह न्याय के अधीन हो रहा है. यदि तुम्हें यह अन्याय लगता है तो बेशक इसे न देखो. इसके बाद उसने दुशासन को द्रौपदी के चीर हरण का आदेश दे दिया.
विकर्ण का विरोध दुर्योधन के बदले की आग को ठंडी नहीं कर पाया. आखिर विकर्ण के इतने विरोध के बाद भी द्रौपदी का चीर हरण हुआ और इसी अपमान की आहूति ने महाभारत को जन्म दिया.
युदृधभूमि में भी धर्म को दी प्रमुखता
इस घटना से समझा जा सकता है कि विकर्ण कौरव था पर उसके विचार धर्म और न्यायसंगत थेे. उसमें अपने भाईयों को सही गलत की सीख देने का साहस था, पर वह जिस धर्म की राह पर चल रहा था, वही धर्म उसे कौरवों के विरोध में जाने से रोके हुए था. आखिरकार न चाहते हुए भी विकर्ण इस पापी घटना का मूक दर्शक बना.
ऐसा ही दोबारा, तब हुआ जब विकर्ण को महाभारत युदृध में अपने भाईयों के पक्ष में रहकर पांडवों से युद्ध करना पडा. महाभारत के युद्ध के चौदहवें दिन अर्जुन जयद्रथ को मारना चाहता था. भीम भी अपने भाई की सहायता करने के द्रोण द्वारा भेजे गए संकटवाहु का वध करने के लिए निकल गए. वहीं दूसरी ओर दुर्योधन ने भीम की हत्या का दायित्व विकर्ण को सौंपा.
हालांकि, अब तक के युदृध में विकर्ण ने किसी भी पांडव पर वार नहीं किया था. जबकि, पांडव एक के बाद एक कौरवों को मौत के घाट उतार रहे थे. इसी क्रम में जब युद्ध के मैदान में भीम और विकर्ण का सामना हुआ, तब भीम के मन में उसे प्रति कोई द्वेषभाव नहीं था. वह नहीं चाहता था कि सभा में पांडवों का पक्ष लेने वाले एकमात्र कौरव के विरोध में शस्त्र उठाए जाएं.
भीम ने विकर्ण से कहा कि वह उन्हें जीवित छोड़ना चाहते हैं, लेकिन विकर्ण ने कहा कि उस दिन जो सभा में हुआ वह न्याय संगत नहीं था, इसलिए मैंने उसे विरोध किया और अपना धर्म निभाया. आज मैं अपने भाई के आदेश को पूरा करने यहां आया हूं, इसलिए तुम भी धर्म का साथ दो और युद्ध करो. आखिर भीम को विकर्ण से युद्ध करना पड़ा.
बहरहाल, यदि महाभारत में विकर्ण के चरित्र पर और ज्यादा प्रकाश डाला गया होता, तो बेशक वह पांडवों के बाद सबसे बेहतर योद्धाओं में गिना जाता. विकर्ण की महाभारत में स्थिति रामायण के कुंभकरण से ज्यादा अलग नहीं थी. इन दोनों ही भाईयों को पता था कि उनके बड़े भाई, जो कर रहे हैं वह अधर्म है, लेकिन भाई का वचन निभाने के लिए उन्हें उनका साथ देना पड़ा.
Web Title: Vikarna the Great Warrior of Mahabharata, Hindi Article
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