भारतीय पौराणिक इतिहास में एक से बढ़कर एक विचित्र कथाएं हैं, जिन्हें जानना-समझना बेहद रोमांचक होने के साथ-साथ व्यावहारिक ज्ञान प्रदान करने वाला भी होता है.
अब श्रीकृष्ण और अर्जुन की मित्रता को ही ले लीजिये!
हर सुख-दुःख, विपरीत परिस्थिति में एक दूसरे का साथ निभाने वाले मित्रों में इनका नाम शामिल है. महाभारत के युद्ध में अगर धर्म की विजय हुई तो इसमें इन दोनों की परम मित्रता का बड़ा हाथ है. आखिर भीष्म, द्रोण और कर्ण जैसे महारथियों का युद्धभूमि में सामना करना कोई साधारण बात तो थी नहीं!
ऐसे में यह कल्पना असंभव सी लगती है कि इन दो मित्रों के बीच भी कोई युद्ध हुआ होगा, वह भी 'जानलेवा'...
मगर ऐसा हुआ था. आइये, चलते हैं एक बार पुनः इस सफर पर-
ऋषि गालव की कहानी
चूंकि अर्जुन और श्रीकृष्ण के बीच युद्ध की कथा महर्षि गालव से जुड़ी हुई है, इसलिए इन ऋषि के बारे में जान लेना बेहतर रहेगा.
गालव जैपुर गल्ता तीर्थ के संस्थापक कहे जाते हैं साथ ही इनकी असल ख्याति महान तपस्वी महर्षि विश्वामित्र के शिष्य के रूप में है, जिनकी ख्याति कालांतर में महर्षि गालव के नाम से हुई.
इनके नाम से त्रेतायुग की एक कथा जुड़ी हुई है. उस समय यमराज ने महर्षि विश्वामित्र की परीक्षा लेने के उद्देश्य से वशिष्ठ के रूप में उनके आश्रम पहुंचकर तुरंत ही भोजन की मांग की.
महर्षि विश्वामित्र ने मनोयोग से भोजन तैयार किया और वशिष्ठ का रूप धरे यमराज के पास पहुंचे, लेकिन तब-तक काफी देर हो चुकी थी.
घर आए अतिथि की उचित सेवा न कर पाने के कारण महर्षि विश्वामित्र भोजन अपने हाथों से माथे पर थामकर उसी स्थान पर मूर्तिमान हो गए. कहा जाता है कि वे मात्र वायु भक्षण करते हुए 100 वर्ष तक एक ही अवस्था में खड़े रहे.
जाहिर तौर पर यह सब पश्चाताप के लिए किया गया कृत्य था.
ऐसी स्थिति में उनके प्रिय शिष्य गालव उनकी सेवा में रत रहे. माना जाता है कि 100 साल बाद यमराज फिर से मुनि के आश्रम आए और विश्वामित्र से प्रसन्न होकर उन्होंने भोजन ग्रहण किया. 100 वर्ष तक मानयोग से सेवा करने के कारण महर्षि विश्वामित्र अत्यंत प्रसन्न एवं संतुष्ट थे. अतः गालव मुनि को उन्होंने आशीर्वाद देकर स्वेच्छा से आश्रम से जाने की इजाजत दे दी.
इसके अतिरिक्त कथाओं में गालव ऋषि का प्रसंग द्वापर-युग में भी एक जगह आता है, जहाँ वह गरूड़ के साथ तपस्वी शाण्डिली से मिलने जाते हैं.
चित्रसेन गन्धर्व के ऋषि के हाथ में 'थूकने' का प्रसंग
आपको जानकर विचित्र लगेगा कि अर्जुन और श्रीकृष्ण जैसे मित्रों के बीच भयानक झगड़े की जड़ में 'पीक थूकना' था!
यह प्रसंग तब का है, जब एक बार महर्षि गालव सुबह-सुबह सूर्यार्घ्य दे रहे थे. ज्योंही अर्घ्य देने हेतु उन्होंने अपनी अंजलि में जल भरा, तभी आसमान में उड़ते हुए चित्रसेन गंधर्व की थूकी हुई पीक उसमें गिर गई.
स्वाभाविक रूप से गालव ऋषि को अत्यंत क्रोध आया. सामान्य अवस्था में वे चित्रसेन को अभिशाप दे डालते, किन्तु तभी उन्हें अपने तपोबल के नष्ट होने का ध्यान हो आया और उन्हें ठिठकना पड़ा.
ऋषि ने शाप देने से खुद को रोक तो लिया, किन्तु मन से वह क्रोध त्याग न सके!
अतः इस क्रोध के निवारण हेतु उन्होंने योगेश्वर श्रीकृष्ण से गुहार लगा डाली.
श्रीकृष्ण की माया तो वही जानते हैं... गालव मुनि की गुहार सुनकर उन्होंने तत्काल ही प्रण ले लिया कि "वह चौबीस घण्टे के भीतर चित्रसेन का वध कर देंगे."
इतना ही होता तो कुछ गनीमत थी, किन्तु ऋषि गालव को पूर्ण संतुष्ट करने के लिए उन्होंने अपनी माता देवकी तथा महर्षि के चरणों की भी सौगंध ले ली.
अब तो चित्रसेन को दंड मिलना एक तरह से निश्चित ही हो गया था!
श्रीकृष्ण के खिलाफ चित्रसेन की रक्षा का वचन उठाया इस 'नारी' ने...
नारद मुनि के माध्यम से चित्रसेन को जल्द ही समग्र प्रसंग ज्ञात हो गया और वह किसी पागल की भांति इधर-उधर दौड़ने लगा. ब्रह्मलोक, शिवधाम, इंद्र-यम-वरुण इत्यादि तमाम लोकों में वह भागता रहा, पर किसी ने उसे अपने यहां एक क्षण को भी रूकने तक नहीं दिया.
आखिर श्याम सुन्दर से शत्रुता करने का साहस किसके भीतर था?
अब बेचारा चित्रसेन अपनी रोती-पिटती पत्नियों के साथ नारद जी की ही शरण में चला आया.
ऐसे में देवर्षि नारद ने एक युक्ति निकाली.
इसके अनुसार, उन्होंने चित्रसेन को यमुना तट पर समझा-बुझाकर भेज दिया और खुद जा पहुंचे श्रीकृष्ण की बहन एवं अर्जुन की पत्नी सुभद्रा के पास.
नारद मुनि ने बड़े विशिष्ट अंदाज़ में सुभद्रा को बताया कि “सुभद्रे! आज की तिथि बेहद महत्वपूर्ण है. आज आधी रात को यमुना स्नान करने तथा शरणागत की रक्षा करने से अक्षय पुण्य की प्राप्त होगी.”
दोषरहित नारी मन जो ठहरा!
नारद मुनि की बातों में आकर आधी रात को ही सुभद्रा अपनी सहेलियों के साथ यमुना-स्नान को जा पहुंची.
वहां पहुँचते ही उन्हें रोने-कलपने की दुखभरी आवाज़ सुनाई पड़ी.
नारद मुनि के बतलाये अनुसार अक्षय पुण्य लूटने के लालच में सुभद्रा जा पहुंची रोते हुए चित्रसेन के पास. उन्होंने लाख पूछा कि आखिर तुम क्यों रो रहे हो, किन्तु चित्रसेन ने नहीं बतलाया.
आखिर नारद मुनि ने उसे पहले ही समझा रखा था कि जब तक अर्जुन पत्नी सुभद्रा चित्रसेन की रक्षा करने की प्रतिज्ञा न ले लें, तब तक उन्हें कुछ बतलाना नहीं है.
अंत में सुभद्रा को प्रतिज्ञाबद्ध होना ही पड़ा और तब चित्रसेन गन्धर्व ने उन्हें सारी बातें स्पष्ट कीं.
सुभद्रा यह जानकर असमंजस में पड़ गईं, किन्तु अर्जुन ने सुभद्रा को सांत्वना दी और कहा कि सुभद्रा की प्रतिज्ञा अवश्य ही पूरी होगी. यूं चित्रसेन अर्जुन का मित्र भी था.
नारद-लीला ने करा ही दिया 'युद्ध'
नारद जी को झगड़ा लगाने वाले देवर्षि के रूप में भी ख्याति प्राप्त है और इस कथा में भी उन्होंने अपने इस कार्य को बखूबी पूर्ण किया.
चित्रसेन को सुभद्रा के वचन द्वारा रक्षित करने के पश्चात नारद मुनि द्वारका पहुंचे और श्रीकृष्ण से कह डाला कि 'अर्जुन ने चित्रसेन को आश्रय दे रखा है, इसलिए आप सोच-विचारकर ही युद्ध के लिए जाएँ.’
ऐसे में श्रीकृष्ण भी मजबूर हो गए और नारद मुनि को एक बार फिर अर्जुन को समझाने भेजा. नारद मुनि यहाँ से वहाँ बातें पहुंचाते रहे और संभवतः एक-दूजे को अपनी चिरंतन आदतानुसार भड़काते भी रहे.
युद्ध की ठहर ही गयी आखिर!
इस हेतु सभी यादव और पाण्डव रणक्षेत्र में पूरी सेना के साथ आगे बढ़ आये. भयंकर युद्ध होने लगा, पर कोई जीत नहीं सका. मुश्किल तब आयी, जब अपनी प्रतिज्ञा के पाश में बंधे योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन पर सुदर्शन चक्र छोड़ दिया...
भगवान शंकर की एंट्री
श्रीकृष्ण के सुदर्शन-चक्र छोड़ने के बाद अर्जुन के पास विकल्प सीमित हो गए, अतः अर्जुन ने भी अपनी तूणीर में मौजूद सबसे खतरनाक अस्त्र पाशुपतास्त्र छोड़ दिया. प्रलय के लक्षण दिखने लगे और ऐसे में अर्जुन ने भगवान शंकर को स्मरण किया. भगवान शंकर प्रकट हुए और उन्होंने दोनों शस्त्रों को मनाया.
तत्पश्चात भोले-भंडारी भक्तवत्सल श्रीकृष्ण के पास पहुंचे और कहने लगे कि 'हे प्रभो! आपने हमेशा ही भक्तों की सुनी है, उनकी लाज रखी है. उनकी खातिर अपनी प्रतिज्ञाओं की असंख्य बार तिलांजलि भी दी है.'
ऐसी वाणी सुनकर श्रीकृष्ण पिघल गए और उन्होंने अर्जुन को गले लगा लिया...
...मगर गालव ऋषि का 'क्रोध' अभी भी था!
प्रभु को युद्ध से विरत होते देखकर गालव ऋषि बोले कि 'यह तो उनके साथ मजाक हो गया'!
सीधे स्वभाव के गालव का क्रोध और भी बढ़ गया और उन्होंने कहा कि “अपनी शक्ति प्रकट करके वह कृष्ण, अर्जुन, सुभद्रा समेत चित्रसेन को जला डालेंगे.”
थूक पड़ने के अपमान से परेशान ऋषि ने ज्यों ही जल हाथ में लिया, तभी सुभद्रा बोल उठीं कि, "अगर मैं कृष्ण की भक्त होऊं और अगर पतिव्रता स्त्री होऊं, तो यह जल ऋषि के हाथ से पृथ्वी पर गिरने न पाए."
ऐसा हुआ भी... आखिर पतिव्रता स्त्री के सामने यमराज तक को हारना पड़ा है. ऐसे में ऋषि गालव बड़े लज्जित हुए.
अंततः यह कथा समाप्त हुई और प्रभु की लीला का गुण गाते हुए सभी अपने अपने स्थान की ओर पधारे.
Web Title: War between Arjun and Lord Krishna, Mythology stories in Hindi
Featured image credit: santabanta / bhgwatham