शर्मा जी समय से आगे कुलांचे मारने वाले इंसानों में से थे. हालांकि वह इंसान थे भी कि नहीं यह विचारणीय मुद्दा है. क्योंकि शर्माइन जब से उम्मीद से हुईं, तभी से शर्मा जी ने अपने होने वाले बच्चे के करियर पर फाइनल मुहर लगा दी थी. उनके लिए आने वाला बच्चा इंसान की औलाद कम किसी इंजीनियर का भ्रूण ज्यादा था…
इंजीनियर पेशे के लिए तभी से उनके मन में अपार श्रद्धा और कसक थी, जब से उनकी शादी में हीरो हाण्डा महज इसीलिए नहीं मिल सकी थी कि क्योंकि वह सौ-पचास पैदा करने वाले सरकारी बाबू थे न कि पूरा का पूरा पुल हजम कर जाने वाले इंजीनियर! खैर, तब भले ही जनाब के दिल के हीरो हाण्डा वाले अरमान आंसुओं में बहकर कम्प्रोमाइज कर गए हों. लेकिन उनकी आने वाली संतानो को इस अपमान को न झेलना पड़े इसके लिए उन्होंने विशेष प्लानिंग शुरू कर दी थी. उनके लिए इन्जीनियर डिग्री विहीन व्यक्ति पशु समान होता था. वह हर उस काम को करने को तैयार थे जो उनके इस मकसद को पूरा करने में मदद करता.
शर्मा जी की दमित इच्छा वाया औलाद निकलनी थी, इसलिए वह कोई कसर या पछतावे का स्कोप नहीं छोड़ना चाहते थे. यह तो गनीमत थी कि शर्माइन ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थीं, वरना वह सारी इंजीनियरिंग अपनी पत्नी को गर्भावस्था के दौरान ही पढ़ाकर एक अभिमन्यु टाइप इंजीनियर पैदा कर लेते. और उस अभिमन्यु में बाकायदा फिनिशिंग टच भी देते ताकि विफलता वाला इतिहास न दोहराया जाता.
अब शर्मा जी मत चूको चौहान वाले फंडे को फॉलो करने लगे. बच्चे के अन्दर इंजीनियरिंग के प्रति ज़बरा रुझान पैदा हो इसलिए जिस उम्र में बच्चा पार्क में पेड-पौधे देखता है, झूले झूलता है… उसी उमर में जनाब अपने सुपुत्र को फैक्ट्रियों की मशीने दिखाते फिरते. कारखानों का टूर कराते घूमते.
और बच्चा जब खिलौने की जिद करता तो उसे हथौड़ी और पेचकस पकड़ा देते. खैर उनका अत्याचार कम इंजीनियर का माहौल पैदा करना जारी रहा और बच्चा बड़ा होता गया.
अब दौर शुरू हुआ उनके हसीन सपनो में आने वाले स्पीड ब्रेकरों का. हकीकत जब वास्तविकता से रूबरू होती है तब उसे सच्चाई के थपेड़े झेलने ही पड़ते हैं. जिस बच्चे को शर्मा जी इंजीनियर बना कर तत्कालीन हीरो होण्डा न मिल पाने का बदला भावी होण्डा सिटी पाकर लेने वाले थे वह अब खटाई में पड़ता नजर आने लगा. इंजीनियर बनना उसके चेतन क्या अचेतन मन के किसी कोने तक में नहीं था. सारेगामापा देखने वाले बच्चे को वह डिस्कवरी दिखाते फिरते. लेकिन उनके भावी इंजीनियर पुत्र ने लगभग अपनी मौत को दावत देने वाले स्टेटमेंट को जारी कर दिया कि उसे इंजीनियर नहीं सिंगर बनना है. अब शर्मा जी उससे यह तो कह नहीं सकते थे कि इंजीनियर तू क्या तेरा बाप भी बनेगा क्योंकि बाप के इंजीनियर न बनने का खामियाजा ही तो वह भुगत रहा था.
भारतीय परंपरा में हर चीज़ को हासिल करने के लिए लोग साम, दाम, दंड और भेद वाला फार्मूला लगाने से कतई नही चूकते हैं. इस हथियार का प्रयोग कर शर्मा जी ने उसे इमोशनल अत्याचार से जीत लिया.
बचपन में खाना खिलाने के लिए माँ इमोशनल अत्याचार करती है तो जवानी में बाप कैरियर को बनाने के किये इमोशनल अत्याचार करते है. शादी के बाद आदमी को इमोशनल क्या सारे अत्याचार झेलने की आदत ही पड़ जाती है. खैर, सुपुत्र ने न चाहते हुए ठान लिया कि वह उनकी इस अंतिम इच्छा को अपनी इच्छा का अंतिम संस्कार कर पूरा जरूर करेगा.
जैसे महज सर पर कफन बाँध लेने भर से जंग नहीं जीती जाती वैसे ही महज इंजीनीयरिंग बनने की ख्वाइश ही काफी नहीं होती. इंजीनीयरिंग में घुसने का पासवर्ड अब बाबा आदम के जमाने का ‘खुल जा सिम सिम’ न होकर ‘कोटा की कोचिंग’ हो चला था. वह भी आज के परिवेश में कोटा के बिना इंजीनीयरिंग का टोटा ही होता है. अब बेटा जी ने भी अपने अति उत्साहित बाप को साफ बता दिया कि इस कोटा की कोचिंग वाले फार्मूले के अलावा कोई तरकीब नहीं है कि इंजीनीयरिंग का कोई भी गेट खोला भी जा सके. इंजीनीयरिंग जैसे ग्लैमरस पेशे में जाने के लिए शरीर के सारे रेशे गिरवी रखने पड़ते हैं.
अब कोटा की कोचिंग और हॉस्टल का खर्चा सुनकर शर्मा जी को मिनी हार्ट अटैक सा पड़ गया. रिश्तेदारों से उधार और दोस्तों का व्यवहार उन्हें कोचिंग की फीस अदा करने के लिए करना पड़ेगा…
इसके बारे में उन्होंने सपने में ही सोचा होगा लेकिन सोचा जरूर होगा. ऐसा इसलिए क्योंकि जिसे अपने लक्ष्य को पाना होता है वह आँखे बंद करके और खोल कर दोनों तरीके से सोच चुका होता है. जो शर्मा जी कभी होम लोन लेकर अपना घर कायदे से पूरा नहीं करा पाए… वही शर्मा जी बैंको से पर्सनल लोन लेते नज़र आये. आखिर कुछ खोकर पाने वाले को ही तो बाज़ीगर कहते हैं. अब सुपुत्र जी को गर्ल फ्रेंड युक्त कोचिंग क्लास और शर्मा जी की हिदायतों की क्लास ने किसी तरह वहां मन लगाने पर मज़बूर कर दिया.
अब कोटा की कोचिंग भी पूरी हो गयी, लेकिन इंजीनियर जैसे तथाकथित हाई प्रोफाइल पेशे में जाने के लिए कोटा की कोचिंग से ज्यादा अपनी रूचि की मैचिंग की जरूरत थी. शर्मा जी के सुपुत्र कोटा का कम्प्लान पीकर भी इंजीनीयरिंग का वही गेट तोड़ पाए जिसमें से होकर प्राइवेट कॉलेज कम बनिया की दुकानों में दाखिला हो पाता. अब प्यासे को तो पानी पीना ही था तो शर्मा जी ने वह मौका न गंवाते हुए उसे भागते भूत की लंगोटी की तरह लपक लिया. भला हो इस देश के माननीय सांसदों और विधायको का जिन्होंने यहाँ पर कुकुरमुत्ता ब्रांड इंजीनियर कालेज थोक के भाव में खोल रखे हैं.
अब भले ही यह लोग समाज की सोशल इंजीनीयरिंग न कर पाए लेकिन समाज में थोक भाव में इंजीनियर जरूर पैदा कर देते हैं. इतिहास में इस योगदान के लिए नेताओं का नाम कालाक्षरों में अवश्य लिखा जायेगा.
शर्मा जी का मिशन इंजीनियर किसी सरकारी प्रोजेक्ट की तरह महंगा होता चला जा रहा था. लेकिन शर्मा जी भी कलियुगी भागीरथ बनकर गंगा को धरती पर उतारने की ठान चुके थे. काउंसलिंग में इंजीनियर कालेजों के बैनर इस कदर लुभावने ऑफर्स दिखा रहे थे जितने फ्लैट और प्लाट बेचने वाली कम्पनियाँ नहीं देती हैं. हर एडमिशन पर लैपटॉप तो फ्री था ही साथ ही फीस किश्तों में चुकाने की व्यवस्था भी उपलब्ध थी. अब शर्मा जी ने पांच लाख के एजुकेशन लोन और लड़के के सिंगर बनने के सपने के खात्मे की एवज में एक तथाकथित हाई रैंकिंग वाले कालेज से सीट खरीद ली. फिर लाखों बेरोजगार इंजीनियर की संख्या में एक और का इजाफा कर अपनी दमित इच्छा और समाज में बड़ी सी नाक को मेन्टेन कर लिया.
अब शर्मा जी आश्वस्त हैं कि उनकी दुकान सज गयी, मतलब भर का इन्वेस्टमेंट भी हो गया. बस उस घड़ी का इंतज़ार है जब उनके शोरूम में ग्राहकों का ताँता लगाना शुरू होता. शोरूम में खड़ा नायक जिस पीड़ा के दौर से गुज़र रहा है वह जानने के लिए शर्मा जी को शायद देर न हो जाए. क्योंकि शोरूम में पुतले खड़े होते हैं जीते जागते इंसान नहीं…
Parents Foist on Children, Social Satire, 3 Idiots (Pic: robsimdb)
Web Title: Parents Foist on Children, Social Satire by Alankar Rastogi
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