कहानी वहाँ से शुरू होती है, जब मैं फेसबुकिया नहीं हुआ करता था. क्योंकि तब मैं एक आम इंसान था. हँसता मुसकुराता… यह वह समय था, जब मुझे लैपटॉप की जगह माँ की गोद प्यारी थी, जब मैं टच स्क्रीन के बजाय चरण स्पर्श करता था, जब मेरी ज़िंदगी में अहमियत पड़ोसी की थी पासवर्ड की नहीं, जब मैं अपने मोबाइल के सारे एसएमएस सहेज के रखता था, जब इनबोक्स भर जाता था तो मैं उन मैसेजेज को डायरी में नोट करके रखता था. ग्रीटिंग कार्ड्स से मैं उतना दूर नहीं था जितना कि अब हो गया हूँ.
यह वह दौर था जब मार्क जुकेरबर्ग के आविष्कार ने भारत में प्रवेश किया और इतनी तेजी से फेसबुक ने समाज को बदला कि राजा राम मोहन राय की आत्मा भी सदमे में आ गयी होगी. यह आंदोलन तो असहयोग आंदोलन का भी बप्पा निकला. जो देश को अब तक लाइन पर न लाये थे वो सारे ऑनलाइन दिखने लगे. जो साइन तक करना नहीं जानते थे, वो साइन इन और साइन आउट करने लगे. हालात ये हो गए कि आपका बैंक में एकाउंट हो न हो पर फेसबुक पर होना चाहिए… वर्ना आप पिछड़े कहे जाने लगेंगे. आउट डेटेड ब्लडी ब्ला ब्ला… ! अगर आप सोशल नेटवर्क से नहीं जुड़े हैं तो असामाजिक कहे जाने लगेंगे… अनसोशल एलीमेंट!
मेरे कई साहित्यकार मित्रों ने फेसबुक पर अपना एकाउंट खोल लिया था और अंतर्राष्ट्रीय साहित्यकार कहलाने लगे थे. उन लोगों के स्टेट्स अपडेट हो रहे थे. इससे पहले कि मैं हीन ग्रंथि का शिकार होता, लैपटॉप खरीद लाया और उसमें इंटरनेट भी लगवा लिया. इस तरह शुरू हो गयी मेरी फेसबुक की रेस. यानी जलने और जलाने का सतत कार्यक्रम आरम्भ.
मैंने उन मित्रों को फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी जो आलरेडी मेरे मित्र थे. फेसबुक पर स्वागत मेरे हम उम्र या कम उम्र वाले साहित्यकार मित्रों ने किया. बड़ी अजीब थी यह दुनिया… जहाँ बड़े बड़े नामवर सिंह, जिनको मैं ‘सर’ कहता था, वह हमारे मित्र बन जाते हैं. लेकिन ये नामी साहित्यकार या संपादक हम जैसों का मित्रता प्रस्ताव तभी स्वीकार करते हैं, यदि हम उनकी पत्रिका के सदस्य हों, मीडिया कर्मी हों, नौकरशाह हों या फिर प्रायोजक. मुझे दुःख हुआ जब कई ऐसे नामी-गिरामियों ने मेरे मित्रता प्रस्ताव को नहीं स्वीकार किया या स्वीकारा तो एक अरसे बाद. मार्क जुकेरबर्ग को चाहिए कि एक ‘सेंड फ्रेंड रिक्वेस्ट’ के साथ ‘सेंड सर रिक्वेस्ट’ का एक नया विकल्प दें जिससे ऐसे लोगों के अहम की तुष्टि हो सके.
खैर, धीरे-धीरे मेरे मित्रों की संख्या बढ़ने लगी थी. मेरी सृजन शक्ति भी बढ़ती जा रही थी. मैं दनादन अपनी रचनाएँ पोस्ट करता और फिर सारा दिन उन रचनाओं पर आ रहे कमेन्ट पढ़ता. फिर हर कमेन्ट करने वाले को धन्यवाद देता. मेरी दुनिया बदल रही थी. अब मैं दोस्त को नहीं बल्कि पोस्ट को लाइक करने लगा था. मुझे लग रहा था कि मैं महाकवि हो गया हूँ. मैंने तमाम रचनायें जिनको छपवाकर शायद दस –बीस हजार का पुरस्कार झटक लेता, फेसबुक पर कुर्बान कर दी थीं. किताब छपने के बाद इतनी प्रतिक्रिया कहाँ मिलती जितनी कि फेसबुक पर मिल जा रही थी. किताब छपवाने पर समीक्षकों को तेल लगाना पड़ता है पर यहाँ तो हर दोहे की समीक्षा हो रही थी. ‘वाह वाह… क्या कह दिया’, ‘अद्भुत’, ‘निराला होते तो गले लगा लेते आपको’,’कालजयी रचना’, ‘न भूतो न भविष्यति’, ‘क्या सर्वहारा चिंतन है!मार्क्स, लेनिन, चेखव की श्रंखला में अगला नाम आपका’.
मैं साहित्य में भले प्रतिष्ठित नहीं हो पा रहा था पर फेसबुक से पॉपुलर जरूर हो रहा था. बोले तो मैं फेसबुक के मोहपाश में जकड़ चुका था.ऑफिस में मित्रों से चैट करता तो बॉस से चीटिंग. मेरी फैन फालोविंग भी बढ़ती जा रही थी. गौतम –गांधी को अनुयायी बनाने के लिए क्या क्या नहीं करना पड़ा, पर मेरे देखते ही देखते एक हजार फालोवर्स हो गए. मैं अपनी तुलना अमिताभ बच्चन से करने लगा.
फेसबुक पर ज्यादा से ज्यादा लाइक पाने के लिए फोटो पोस्ट करना आवश्यक होता है. अतः एक डिजिटल कैमरा और एंड्रॉयड मोबाइल भी खरीद लिया. फोटोशॉप भी सीख लिया. फिर क्या था मुझे और भी ज्यादा प्रसिद्धि मिलने लगी. अब मैं कविताओं के अनुकूल फोटो छांटता और साथ में चस्पा कर देता. कविता पाठ करते हुए सेल्फी खींचता और तुरंत अपडेट कर देता. हालांकि, यह सेल्फी मुझे सेल्फिश बना रही थी.
मैं जहाँ भी साहित्यिक गोष्ठी में जाता, पल पल का अपडेट फेसबुक पर देता रहता जैसे –‘मित्रों, अभी –अभी घाटमपुर पहुँचा हूँ, प्रसिद्ध कवि लटूरी लट्ठ जी ने मेरा माल्यार्पण कर दिया है’… फिर कुछ देर बाद –‘अब मैं दस हजार की भीड़ में कविता पढ़ने जा रहा हूँ’ फिर –‘मित्रों ,बहुत प्यार दिया… आपने जोरदार तालियों के बीच मुझे सुना धन्यवाद’. यह धन्यवाद जहाँ पहुँचना चाहिए, वहाँ नहीं पहुँच रहा था. असल में ऐसे अपडेट विरोधियों को सकते में लाने के लिए किये जाते हैं. मैं हर गाँव गली कूचे के सम्मान को अति प्रतिष्ठित बना कर अपडेट करता था- ‘मित्रों, ईश्वर की असीम अनुकम्पा, बड़ों के आशीर्वाद और मित्रों के शुभकामना के फलस्वरूप मुझे निराशापुर का अत्यंत प्रतिष्ठित ‘मैकू लाल राम भरोसे सम्मान -2014’ प्रदान किया गया’. प्रशंसकों का आभार/’ मुझे यह मालूम न था कि जिनको मैं प्रशंसक समझ रहा हूँ वह मेरे कंपटीटर हैं.
मैं समाजसेवी बना, अनाथ बच्चों को पेन्सिल गिफ्ट की, क्योंकि मुझे स्टेटस अपडेट करना था. मैं अन्ना आंदोलन में टोपी पहन एक्टिविस्ट बना, क्योंकि मुझे स्टेटस अपडेट करना था. मैंने निर्भया के कातिलों को सजा दिलवाने की खातिर पानी की बौछार झेली क्योंकि मुझे स्टेटस अपडेट करना था. मैंने पौधा रोपा, पर्यावरण –प्रेमी बना क्योंकि मुझे स्टेटस अपडेट करना था. मैंने गरीब बस्ती की मुआयना किया क्योंकि मुझे स्टेटस अपडेट करता था. मैं टूरिस्ट बना, श्रीनगर चला गया… इसलिए नहीं की श्रीनगर मुझे आकर्षित करता है… बल्कि इसलिए की मुझे फोटो डालकर स्टेटस अपडेट करना था. शोपिंग माल, डिस्कोथेक, क्लब गया. प्रोफाइल वालों के साथ फोटो खिंचवाई और प्रोफाइल फोटो बनायी. बड़े होटल में रुका. स्वीमिंग पूल में नहाते हुए फोटो लगाकर स्टेट्स अपडेट किया. पुरी गया तो समंदर में नहाते हुए फोटो खिंचवायी और स्टेटस अपडेट किया.
मैं धीरे धीरे अपना स्टेटस बढ़ाने लगा,जिसका परिणाम हुआ कि मेरी कविताओं को लाइक न करने वाली महिलाएं मेरी फोटो लाइक करने लगीं. मेरी इन संस्कारित अपडेट्स के फलस्वरूप फ़्रेंड लिस्ट में महिलाओं की संख्या ताबड़तोड़ बढ़ने लगी. मेरे पास अक्सर कॉलेज जाने वाली लड्कियों के मैसेज आते कि आप कवि हैं तो मेरे ऊपर कोई कविता लिख दीजिए न! यह कवितायेँ आई ब्रो, हेयर स्टाइल, हॉट लुक आदि के इर्द गिर्द बुननी रहती थीं.
Social Media and Unsocial People, Satire in Hindi (Pic: sundaytimes.lk)
आधुनिक नायिका का नख शिख वर्णन यही था. मैं चाहता तो अपनी सम्पूर्ण प्रतिभा ‘नायिका प्रशस्ति गान’ में लगा सकता था. पर मुई एक ने भी अपना मोबाइल नंबर नहीं दिया तो मुझे अक्ल आ गयी. एक ही कविता लिखता था और सबसे बोलता था कि मोहतरमा,आप के लिए ही लिखी है. फेसबुक की वाल असल में प्यार के बीच दीवार का काम कर रही थी. यह दीवार गिरे तब तो मोबाइल नंबर मिले. नतीजन मिस यू, हैव अ नाईस डे, गुड नाईट, स्वीट ड्रीम, टेक केयर के आगे बात बढ़ नहीं पायी. समझ में आ गया कि ऑनलाइन दिखने वाली लड़कियों को लाइन पर लाने के लिए स्टेटस अपडेट के बजाय अपना स्तर गिराना पड़ता है. ऐसी लड़कियों की प्रोफाइल फोटो प्रायः स्वाभिमानी प्रेमियों के लैपटॉप का स्क्रीन सेवर बन जाती है और उसका नाम पासवर्ड. इस पुनीत कार्य के लिए आपको अपना स्टेटस सिंगल ही दिखाना पड़ता है. एक बार मैंने ‘इन अ रिलेशनशिप’ दिखा दिया तो बवाल मच गया. किसके साथ? कहाँ? कब? कौन है वो खुशनसीब? सैकड़ों कमेन्ट आ गए… मानो कोई राष्ट्रव्यापी मुद्दा हो गया हो, जैसे कि मैं सलमान हो गया.
कई दिनों बाद मैंने खुलासा किया कि मैं चाचा बना हूँ और अपने भतीजे के साथ रिलेशनशिप में हूँ. इसी तरह एक बार अपडेट किया ‘गोट एनगेज्ड’. फिर तमाम सारे प्रश्नवाचक कमेन्ट आये. मैंने बताया -‘भाई आजकल नई नौकरी मिली है, एंगेज रहने लगा हूँ’.
मेरे मित्रों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी. जब संख्या बल बढ़ता है तो अहम का भाव अपने आप आ जाता है. मेरे कई बाहुबली मित्रों के अंदर ऐसे भाव पहले ही आ चुके थे. ऐसा मैं फेसबुक से प्राप्त तत्व ज्ञान के आधार पर कह रहा हूँ. फेसबुकियों को उनके फेस-कर्म के आधार पर निम्न श्रेणियों में बांटा जा सकता है –
1. कट्टर पंथी फेसबुकिये
ये ऐसे लोग होते हैं जिन्हें अपनी वाल पर दूसरे की पोस्ट गंवारा नहीं होती. क्या मजाल किसी की जो इनकी दीवार को छू सके. ऐसी सेटिंग लगा देते हैं कि आप इनकी वाल पर कुछ भी टैग, शेयर आदि नहीं कर सकते. परन्तु जब इनको कोई उपलब्धि बतानी होती है तो जबरदस्ती आपको टैग कर देते हैं. ये अपने ले लो प्रोफाइल वाले फेसबुकियों की पोस्ट को कभी लाइक या कमेन्ट नहीं करते,जबकि आपसे यह उम्मीद करते हैं कि इनकी घटिया से घटिया पोस्ट पर भी आप शानदार कमेन्ट दें, जिससे इनकी गरिमा में श्री वृद्धि हो. ऐसा नहीं कि ये बिरादरी किसी की पोस्ट शेयर नहीं करती… करती है अपने से हाई प्रोफाइल वालों की. उनके सम्मान में कसीदे गढ़ते हुए ऐसे लोग सामान्य जीवन आखिर कैसे जीते होंगे?
2. उदार पंथी फेसबुकिये
ये उदार हृदय वाले लोग होते हैं जो दूसरे की पोस्ट को बिना किसी झिझक के अपनी वाल पर शेयर कर लेते हैं… कमेन्ट करते हैं, लाइक तो करते ही हैं. ऐसे लोग प्रायः साहित्यकार नहीं होते. इनको पब्लिक फीगर बनने की चाह भी नहीं होती. ये सामान्य जीवन जीने वाले लोग होते हैं.
3. स्वार्थी फेसबुकिये
ये आपकी पोस्ट को लाइक इसलिए नहीं करते कि आपकी पोस्ट बहुत बढ़िया है, बल्कि इसलिए कि आप भी इनकी पोस्ट को लाइक करें. यदि कुछ दिनों तक आपने रिस्पोंस नहीं दिया तो ये आपको अनफ़्रेंड भी कर सकते हैं.
4. छद्म फेसबुकिये
ये उँगलीबाल लोग होते हैं जो छद्म नामों से अपनी प्रोफाइल बनाते हैं… फिर किसी गुट विशेष को निशाने पर लेते हुए उसकी भरसक आलोचना करते हैं. ऐसे फेसबुकिये प्रायोजित भी होते हैं.
मैं उपरोक्त में किस श्रेणी का फेसबुकिया हूँ या फिर किसी और श्रेणी का हूँ… यह निष्कर्ष मैं आपको क्यों बताऊँ क्योंकि निष्कर्ष हमेशा खुद को परे रखकर ही दिया जाता है. मैं तो इतना जान गया था कि किसी नाराज फेसबुक मित्र को खुश करना हो तो उसकी पोस्ट अपनी वाल पर शेयर कर देनी चाहिए.
सच तो यह है कि आज चार साल बाद कहने को मेरे पांच हज़ार मित्र हैं फिर भी अकेला हूँ. फेसबुक की नजदीकियों ने धीरे धीरे प्यार में दूरियां बना दीं. इस कदर बनावटी फोटो अपलोड किये कि मेरा वास्तविक स्वरूप ही खो गया है.
अपनी प्रोफाइल फोटो से खुद के चेहरे का मिलान करता हूँ तो पाता हूँ मैं और मेरी और प्रोफाइल फोटो दोनों अलग –अलग शख्स हैं. एक का जब ‘स्टेटस’ अपडेट होता है तो दूसरे का ‘स्तर’ गिरता है.
मैं सुकून का अनुभव तब करूँगा जब फेसबुक के मैसेज बॉक्स में मिलने वाली हजारों बर्थ डे विशेज के बजाय कोई एक ग्रीटिंग लेटर बॉक्स से आएगा. जब चैट के बजाय कोई चिट्ठी आयेगी. जब मैं सात समंदर पार फ़्रेंड रिक्वेस्ट भेजने के बजाय गाँव के दोस्त से मिलने जाऊँगा. जब मैं फेसबुक पर फ्लर्टिंग करने के बजाय गाँव की सांवली अप्सरा से फेस टू फेस मनुहार करूँगा. जब मैं ‘आन लाइन मिलो सजना’ के बजाय ‘आन मिलो सजना’ कह सकूंगा.
यकीन मानिए ऐसा सब करने के दौरान मैं अपना स्टेटस कतई अपडेट नहीं करूँगा. मेरा आख़िरी अपडेट यह है –‘अलविदा मित्रों! मैं अपनी वास्तविक दुनिया में वापस जा रहा हूँ.’
देखता हूँ इस पोस्ट पर कितने लाइक और कमेन्ट आते हैं.
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