धरती पर मोक्ष पाने का एकमात्र केंद्र बनारस या काशी को माना जाता है!
इसके नाम में ही ‘रस’ है, यह मुक्ति का धाम है. पूरी दुनिया से लोग यहां खिंचे चले आते हैं और जो जीते जी यहां नहीं आते, उन्हें ‘सत्य’ अपनी ओर खींच ही लेता है और उनका अंत समय यहां तक ले आता है.
बनारस का एक घाट, गंगा मैया की आरती से प्रज्ज्वलित होता है, वहीं दूसरा घाट चिताओं की अग्नि से दहक रहा होता है. एक घाट पर जयकारे लगते हैं, प्रार्थनाएं होती हैं तो दूसरे घाट पर दिल दहला देने वाले चीख पुकार सुनाई देती हैं. इस तरह से एक घाट पर जहां आस्थाएं जन्म लेती हैं ताे वहीं दूसरे घाट पर उनका सत्य से एकाकार हो जाता है.
इन दो घाटों के बीच की कड़ी है ‘डोम राजा’!
‘डोम राजा’ को धरती का यमराज कहा जाता है. जो शवों का दाह संस्कार करके मृत आत्माओं को मोक्ष का रास्ता दिखाते हैं. पर क्या कभी सोचा है कि शवों को आग देने जैसा काम करने वाला व्यक्ति ‘राजा’ कैसे हो सकता है?
कभी कल्पना करके देखिए कैसा होता होगा उन लोगों का जीवन जो चिता की आग से शुरू होकर उसी में राख हो जाता है!
आइये हम आपका परिचय कराते हैं ऐसे ही लोगों से जिन्हें हम कहते हैं ‘डोमराजा’… जिसके घर की रोटियां भी चिता की अग्नि पर सेंकी जाती हैं–
‘डोम’ का अर्थ
‘डोम’ का मूल अर्थ है दाह संस्कार करवाने वाला. हिन्दू धर्म में कुल 16 संस्कार होते हैं. गर्भाधान से शुरू हुआ आदमी का जीवन चिता अग्नि के आखिरी संस्कार के साथ खत्म हो जाता है.
बनारस के मणिकर्णिंका और राजा हरिश्चंद्र घाट तो इसके लिए ही मशहूर हैं. यहां अनादिकाल से चिताएं जलाई जा रही हैं. इतिहास साक्षी रहा है कि आज तक ऐसा कोई दिन या रात नहीं आई जब इन घाटों पर कोई चिता न जली हो.
इन्हीं चिताओं को अग्नि देने वाले कहलताते हैं ‘डोमराजा’. वैसे तो डोमराजा खुद को ब्राह्मण की श्रेणी में रखते हैं, पर उनका यह दर्जा केवल श्मशान घाट तक ही सीमित है.
इसके बाहर की दुनिया में उन्हें बहुत सम्मान की नजर से नहीं देखा जाता.
Dom Raja Sitting at Manikarnika Ghat. (Pic: neussola)
आखिर कैसे ब्राह्मण बने डोम?
डोम समुदाय के उत्पन्न होने की एक अलग ही कहानी है, जिसका वर्णन पौराणिक कथाओं में किया गया है. इस कथा के अनुसार अनादिकाल में जब काशी का नाम आनन्दवन हुआ करता था उस समय भगवान शंकर माता पार्वती के साथ यहां भ्रमण के लिए आए थे और मणिकर्णिका घाट पर स्थित कुंड को उन्होंने अपनी जटाओं से भरा था, जिसके बाद माता पार्वती ने इसमें स्नान किया.
स्नान के समय माता पार्वती का कुंडल इसमें गिर गया था, जिसे एक कल्लू महाराज नाम के ब्राह्मण ने उठा लिया. भगवान शंकर के क्रोधित होने के बावजूद कल्लू ने कुंडल के बारे में नहीं बताया. तब उन्होंने कल्लू और उसकी आने वाली सभी पीढ़ियों को डोम होने का श्राप दिया. उस दिन एक ब्राम्हण डोम बना और तब से ये डोम चिताओं को अग्नि देने लगे. आज उसी कल्लू डोम के 300 से ज्यादा परिवार हैं और हर परिवार का पुरुष सदस्य चिताओं को अग्नि देने का काम करता है.
Lord Shiva. (Pic: corneredzone)
डोम के ‘राजा’ बनने की कहानी
‘डोम’ के नाम के साथ ‘राजा’ लगने की कहानी बड़ी दिलचस्प है.
‘डोम राजा’ न तो पैतिृक तौर पर राजाओं के वंशज हैं न ही ये यमराज के संबंधी, फिर भी इन्हें ‘राजा’ की उपाधि दी गई है. दरअसल इन्हें यह उपाधि ‘राजा हरिशचंद्र’ के कारण मिली!
पौराणिक कथाओं के अनुसार, सूर्यवंश के 48वें राजा हरिशचंद्र अपनी सत्यनिष्ठा के लिए प्रसिद्ध थे. उन्हें बस यही दुख था कि उनके घर में कोई पुत्र नहीं था. इस कारण उन्होंने वरूण देव की कठोर तपस्या की. भगवान उनसे प्रसन्न हुए और एक सुंदर पुत्र रत्न होने का वरदान दिया लेकिन साथ में एक शर्त भी रखी कि पुत्र का जन्म होते ही उसे यज्ञ को सौंपना होगा.
वहीं हरिशचंद्र पुत्रमोह में ऐसा न कर सके और अपने वचन से पीछे हटने के कारण हरिशचंद्र को अपनी धन-दौलत से हाथ धोना पड़ा. अब उनके पास केवल एक भवन बचा था, उसी दौरान ऋषि विश्वामित्र ने उनसे 500 स्पर्ण मुद्रा मांग लीं. राजा हरिशचंद्र भूल गए कि उनके पास अब राजपाट और कोष नही है ऐसे में भूलवश उन्होंने विश्वामित्र को वचन दे दिया. फिर उस वचन को निभाने के लिए हरिशचंद्र ने खुद को बेच दिया. यह वाकया जहां हुआ, वह बनारस का एक घाट था, जहां डोम चिता जलाते थे.
अब बिक चुके हरिशचंद्र कल्लू डोम के के यहां नौकरी करने लगे. इसके साथ ही उन्होंने अपना भवन भी उसी डोम को बेच दिया और बदले में मिली सभी मुद्राएं विश्वामित्र को दान में दे दीं. राजा हरिश्चंद्र का भवन मिलने के बाद डोम के नाम के साथ ‘राजा’ की उपाधि भी जुड़ गई.
चूंकि हरिशचंद्र ने उसी घाट पर डोम के यहां नौकरी की थी इसलिए इस घाट का नाम ‘राजा हरिशचंद्र घाट’ पड़ गया. इस घटना के बाद से काशी में दो राजा हुए एक तो काशी नरेश जो राज्य की राजनीति देखते थे. वहीं दूसरे थे डोमराजा, जिनके अधीन श्मशान घाट की देख-रेख का जिम्मा है. मान्यता यह है कि राजा आपको राजनीति से मुक्ति दे सकता है लेकिन महाशमशान आपको प्रत्येक व्यसन से मुक्ति प्रदान करता है!
पहले के समय में जितने भी राज परिवार थे सभी की कार्य प्रणालियों में समय के साथ बदलाव आया लेकिन सिर्फ ‘डोमराज’ का राज परिवार सदियों से लेकर आज तक अपनी परंपरा को उसी स्वरूप में निभाता आ रहा है.
Satyawadi Raja Harishchandra. (Pic: findmessages)
डोम ‘राजमाता’
कल्लू डोम के परिवार में से एक जमुना देवी को ‘डोम राजमाता‘ की उपाधि मिली हुई है. आज डोम घराना इन्हीं की देखरेख में अपना पूरा काम करता है. डोम समुदाय के हर परिवार का पुरुष मुखिया तो ‘डोम राजा’ कहलाता लेकिन इन राजाओं के बीच में एकमात्र हैं ‘डोम राजमाता’.
कहा जाता है कि करीब 30 साल पहले कल्लू डोम के वंशज डोमराजा उमाशंकर चौधरी की मौत के बाद उनके 7 बेटे छोटे होने के कारण डोमराजा की गद्दी नहीं संभाल सके. ऐसे में स्वर्गीय डोमराजा उमाशंकर की पत्नी जमुना देवी को यह जिम्मेदारी उठानी पड़ी.
हालांकि हिंदू मान्यताओं के अनुसार महिलाओं को श्मशान में आने तक की अनुमति नही है. इस कारण जमुना देवी का भी कई बार समुदाय के लोगों द्वारा विरोध किया गया.
Dom Rajmata Jamuna Devi. (Pic: blogspot)
दो पारियों में होता है ‘काम’
डोमराजा के परिवार के सदस्यों की सुबह और रात श्मशान पर ही होती है.
इनका काम शिफ्ट में होता है. यदि घर का एक पुरुष दिन में दाह संस्कार कराता है तो दूसरा पुरुष सदस्य रात की जिम्मेदारी लेता है. सभी परिवारों के एक सदस्य मणिकर्णिंका और राजा हरिश्चंद्र घाट के पास मुख्य द्वार पर खड़े रहते हैं. यहां दाह संस्कार के लिए शवों को लेकर आने वाले परिवारों को डोम तक पहुंचाने, उनके लिए लकड़ियों की व्यवस्था करने, पूजा और दाह संस्कार के उपयोग में आने वाली बाकी चीजों का इंतजाम करवाते हैं.
दाह संस्कार कराने और बाकी सामानों के बदले जो भी दान मिलता है, उससे डोम परिवारों का गुजारा होता है. वहीं जो सदस्य रात की शिफ्ट खत्म करके सुबह घर आता है वह अपने साथ जलती हुई ताजी चिता की लकड़ी लाता है, उसी से घर का चूल्हा जलता है और रात के भोजन के लिए भी यही तरीका अपनाया जाता है.
Funeral Ghats at Varanasi. (Pic: rodoh)
सच नहीं है करोड़ों की विरासत!
कहा जाता है कि डोम दाह संस्कार के बदले वसूली करते हैं. कई डोम परिवार तो करोड़पति हैं लेकिन ये गुजरे जमाने की बात है. हालांकि पुराने समय में डोम समुदाय के परिवार संपन्न थे, तब इन्हें राजा-रजवाड़ों का दाह-संस्कार करवाने के बदले इन्हें मोटी रकम मिल जाती थी… कई बार तो जमीन के टुकड़े और जेवर भी मिल जाते थे.
वहीं डोम समुदाय की युवा पीढ़ी आजकल इस कार्य में रुचि नहीं लेती और कहीं कहीं खुल गए विद्युत शवदाह गृह भी इनकी आय पर प्रभाव डालते हैं.
हालांकि धर्म पर विश्वास रखने वाले लोग आज भी इन्हीं डोम के पास हिंदुओं के आखिरी संस्कार की रस्म पूरी कराने जाते हैं, जिसे डोम के हाथों ही पूरा होना निश्चित है.
सृष्टि के अंत तक न खत्म होने वाला अपना फर्ज डोम राजा आज भी बखूबी निभा रहे हैं!
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Web Title: Dom Raja: Untold story of The Untouchable Gatekeepers of Heaven, Hindi Article
Featured Image Credit: narrative