इंडोनेशिया के जकार्ता शहर में 2018 के एशियाई खेल चल रहे हैं. इसमें भारतीय टीम भी हिस्सा ले रही है. और इसी टीम का हिस्सा हैं, 24 साल की कविता ठाकुर.
कविता ठाकुर वो नाम है, जो आपको ये बताता है कि ऊंचाईयों और बुलंदियों को कोई भी छू सकता है, केवल उसके पास ऐसा करने का साहस होना चाहिए.
हिमाचल प्रदेश के मनाली के पास जगतसुख गांव की रहने वाली कविता ठाकुर अब तक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 5 स्वर्ण पदक जीत चुकी हैं. उनका यहां तक पहुंचने का ये सफर इतना आसान नहीं था. एक कबड्डी खिलाड़ी बनने से पहले उन्होंने अपनी गरीबी के दौर में पेट पालने के लिए ढाबे पर काम किया था. उन्होंने वहां बर्तन धोए.
बावजूद इसके उन्हें खेलों में प्रतिभाग करना था, सो वो अपने काम से कभी पीछे नहीं भागीं. अब फिर काम चाहे लोगों की जूठन साफ करने का ही क्यों न हो.
अब, जब वह एशियाई खेलों में महिला कबड्डी टीम का हिस्सा हैं. उनसे दोबारा भारत काफी उम्मीदें लगाए बैठा है.
ऐसे में आइए, जानते हैं सुदूर ग्रामीण परिवेश से आईं कविता का इंडोनेशिया तक का सफर –
ढाबे में काम करते हुए गुज़रा बचपन
कविता का बचपन बेहद गरीबी और मुश्किलों भरा रहा. उनके बचपन का ज्यादातर हिस्सा ढाबे में काम करके ही बीता. कविता के माता-पिता मनाली के जगतसुख गांव में ढाबा चलाते थे. जिसमें वो खुद काम करती थीं. यहां कविता ने ढाबे में आने वाले ग्राहकों के जूठे बर्तन भी साफ किए और ढाबे में साफ-सफाई भी की.
हालांकि, इस दौरान कविता की पढ़ाई कभी नहीं छूटी. वह स्कूल से आने के बाद अपने माता-पिता के साथ ढाबे में काम किया करती थीं. ठंड के दिनों में हालात और खतरनाक हो जाते. मनाली में ठंड के दौरान तापमान काफी नीचे चला जाता है. इस कड़ाके की ठंड में रात को कविता ठंडे पानी से बर्तन धोतीं. वहीं, रात को उन्हें अपने माता-पिता के साथ फर्श पर ही सोना पड़ता था.
सस्ता था कबड्डी, इसलिए खेलना शुरू किया
कविता के कबड्डी खेल को अपनाने के पीछे भी एक काफी रोचक कहानी है.
अन्य खिलाड़ियों की तरह कविता ने किसी खास मक़सद या किसी अन्य खिलाड़ी से प्रेरित होकर कबड्डी खेलना शुरू नहीं किया था. वह गरीबी से परेशान थीं, ऐसे में तब कबड्डी पर ज्यादा कुछ खर्चा नहीं था. उन्होंने अपनी गरीबी और अपनी खाली जेब को देखकर इस खेल को चुना.
बता दें कि जब कविता गांव के स्कूल में पढ़ती थीं, तब वहां बच्चे अपनी इच्छानुसार स्पोर्टस मीट में नाम लिखाते थे. वहीं, कविता कबड्डी के आगे अपना नाम लिखवाती थीं.
इसकी सबसे बड़ी वजह ये थी कि इस खेल में न तो कोई अलग से ड्रेस खरीदने की ज़रूरत थी और न ही कोई नए जूते. ज़रूरत थी तो सिर्फ तेज़ दिमाग़ और फुर्ती की, जो कविता के पास पहले से था.
कबड्डी की शुरूआत करते हुए उन्होंने ये कभी नहीं सोचा होगा कि एक दिन इस खेल की बदौलत, वह 2018 के एशियन गेम्स में हिस्सा लेंगी.
भूखे पेट भी की प्रेक्टिस
इंडोनेशिया जाने से पहले कविता ने अपने इंटरव्यू में पुराने दिनों को याद करते हुए बताया था कि जब उनकी पारिवारिक आमदनी कुछ भी नहीं थी. वह कई दिन भूखे पेट भी रहीं, कई बार खाना न मिलने पर वह भूखी ही सो जाती थीं.
इतने के बावजूद भी कविता ने कभी कबड्डी को अपने से दूर नहीं होने दिया. वह लगातार प्रेक्टिस करती रहीं. उन्होंने इस मुश्किल घड़ी में भी सब्र से काम लिया और अपना प्रयास जारी रखा. जिसके बाद उनके लिए मंज़िल आसान होती चली गई.
2009 में आखिरकार उनकी मेहनत रंग लाई. कविता को स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया में बेहतर प्रदर्शन करने के दम पर जाने का मौका मिला. बता दें कि राज्य स्तर पर लगातार बेहतरीन प्रदर्शन करने के बाद उन्हें साई का टिकट दिया गया.
इसके बाद कविता को एक प्रोफेश्नल कबड्डी प्लेयर के तौर पर ट्रेनिंग दी गई. इतना ही नहीं, यहां कविता का रहन-सहन और ट्रेनिंग का सारा खर्चा सरकार ने उठाया.
उसके बाद फिर कविता ने कभी पीछे पलट कर नहीं देखा और अपनी म़ंज़िल की तरफ बढ़ती चली गईं.
कविता ने अपनी काबिलियत और मेहनत के दम पर पहले नेशनल खेला और फिर जल्द ही इंटरनेशनल लेवल पर भारतीय महिला कबड्डी टीम में जगह बना ली.
बीमारी के बावजूद जीता मेडल
साल 2011 कविता के लिए काफी मुश्किल भरा रहा. डॉक्टरों ने बताया कि कविता के पाचन तंत्र में इंफेक्शन है. जिसके बाद उन्हें कबड्डी से दूर रहना पड़ा.
डॉक्टरों ने उन्हें बेड रेस्ट की सलाह दी. जिसके बाद वह करीब 6 माह तक बिस्तर पर पड़ी रहीं. इस दौरान उन्हें कई बार ऐसा लगा कि अब उनका करियर खत्म हो जाएगा. पर उन्होंने इंतजार किया.
बुरा समय गुज़रा, फिर कविता रिंग में उतरीं. उन्होंने दोबारा से जमकर पसीना बहाया.
करीब 6 माह प्रेक्टिस के बाद कविता साल 2012 की एशियन कबड्डी चैंपियनशिप में भारतीय टीम का हिस्सा रहीं. इस टीम ने जबरदस्त प्रदर्शन के दम पर गोल्ड जीता. इसके बाद 2014 में उन्होंने दोबारा से टीम के लिए गोल्ड जीता.
इससे पहले लोगों को नहीं पता था कि कविता ने अपने जीवन में किन परिस्थितियों से उबर कर भारत के लिए खेला है. सन 2014 में मेडल जीतने के बाद लोगों को पता चला कि कविता ने कितनी गरीबी से निकलकर अपनी मंजिल पाई है.
गोल्ड मेडल जीतने के बाद कविता पर इनामों की बौछार हुई. जिसके बाद कविता ढाबा छोड़कर अपने परिवार के साथ मनाली के पास फ्लैट में शिफ्ट हो गईं. कविता के लिए ये सबसे ज्यादा गर्व का पल था, जब उन्होंने अपने माता-पिता के लिए छत का इंतज़ाम किया.
Web Title: Kabaddi Star Kavita Thakur From Poverty To Gold Medal, Hindi Article
Feature Image Credit: facebook/kavitakabaddiofficial