एक पुरानी कहावत है! 'भगत सिंह हर कोई चाहता है, पर अपने नहीं पड़ोसी के घर में’. कुछ यही हाल हमारे देश में खेल का है. हर आम आदमी चाहता है कि भारत जहां भी जाए, वहां से जीत कर ही आए. सोना-चांदी न सही तो कांसा ही लाए.
पर जब बात आती है अपने बच्चे को खिलाड़ी बनाने की तो हाथ पैर फूल जाते हैं!
यह वही समाज है, जहां बच्चा यदि खेलकर धूल से सना हुआ घर पहुंचे तो परिवार वाले कुटाई कर दें. ऐसे में क्या उम्मीद करें कि कोई परिवार घर की बेटी को किचिन का रास्ता दिखाने की बजाए मैदान की धूल सनवाए!
पर ऐसा हुआ, और वह भी रूढ़िवादी, बुर्के में छिपे कहे जाने वाले मुस्लिम समाज में. जहां एक बेटी ने घर के बाहर बिना बुर्के के कदम रखा. लड़कों जैसे बाल कटवाए, हॉफ पैंट पहनी और फिर खेली कबड्डी.
खेला भी तो ऐसा की आज भारत का पूरी दुनिया में प्रतिनिधित्व करती है.
तो चलिए जानते हैं भारतीय महिला कबड्डी टीम की एकमात्र मुस्लिम महिला खिलाड़ी शमा परवीन के जीत की कहानी-
दादी को लगा नाम डुबो देगी शमा!
शमा परवीन को पिछले साल तक उसके घर मोहल्ले के लोगों के अलावा शायद ही कोई जानता होगा. पर जब से उसने ईरान में तिरंगा फहराया है, तब से वह किसी पहचान की मोहताज नहीं रह गई.
शमा मूलत: बिहार से हैं. अपना सपना पूरा करने के लिए उसने समाज के जाने कितने ही ताने सुने पर खुद को कभी कमजोर न होने दिया. परिवार आर्थिक रूप से इतना संबल नहीं था कि रूतबा देखकर समाज बोलती बंद कर ले. गनीमत समझिए कि शमा की मां अम्मी फरीदा और अब्बू इलियास का जिन्होंने बेटी के हुनर को पहचाना.
दादी तो ठाने बैठी थी कि शमा खानदान का नाम डुबो देगी. चच्चा जान समझते थे कि कहीं इस लड़की के कारण परिवार के खिलाफ फतवा जारी न हो जाए. रिश्ते के एक भाई ने तो शमा को जींस पहनकर अपने घर आने से तक इंकार कर दिया था.
यह दिक्कतें तो परिवार में ही थी, ऐसे में समाज कहां छोड़ने वाला था. बचपन में शमा के खेलने से परेशानी नहीं हुई पर ज्यों-ज्यों वह बड़ी होती गईं, बंदिशों ने घेरना शुरू कर दिया. पहली समस्या मोहल्ले में कबड्डी खेलने वाले केवल लड़के थे.
अब यदि उनके साथ खेलती तो नाम खराब होता. फिर यह खेल कोई बुर्के में तो हो नहीं सकता था. यदि बुर्का खोलती तो लोगों की नजरें तीखी हो जातीं. इतने में जब लंबे बालों से परेशानी हुई, तो उन्हें कटवाने का ख्याल ही डरा देने वाला था.
पर इलियास ने अपनी बेटी के लिए यह सब किया.
उसे न केवल खेलने की आजादी दी, बल्कि खुद कोच बनकर उसके साथ कबड्डी खेलते. फिर ट्रैक पैंट पहनने दिया और एक दिन जाकर बाल कटवा दिए. शमा अपने पिता के साथ खेलती और यहीं से पहल बार कबड्डी के दांव पेंच सीखना शुरू किए.
खेल के मैदान में फेंकी गईं कीलें
घर के सामने शमा का खेलना लोगों से बर्दाश्त न हुआ तो पिता ने पास का ग्रांउड खेलने के लिए उपयुक्त समझा. सो लोगों ने वहां भी कीले और कांच के टुकडें फेंकना शुरू कर दिया. ताकि शमा यहां खेल न सके. अब जब भी दोनों बाप-बेटी खेल के मैदान में पहुंचते, तो कम से कम दो घंटे मैदान की सफाई में लगाते. इतने में भी कई बार दोनों के पैरों में कांच के टुकडे चुभे.
जब देखा की शमा तो मान ही नहीं रही तो खुले मैदानों में शौच करना शुरू कर दिया. इन समस्याओं के चलते उसने करीब 15 मैदान बदले. खेल के साथ शमा की पढ़ाई जारी रही. उसने नारायण महाविद्यालय से ग्रेजुएशन किया.
इस बीच कोच मिले और शमा ने तय किया कि वह हर हाल में भारतीय महिला टीम में जगह बनाएंगी.
परिवार में चार बहने और दो भाई और भी थे, पर उनमें केवल शमा ही थी जो खेल में अपना भविष्य देख रही थी. पिता को अपनी बेटी के सपने को हर हाल में साकार करना था. सो उन्होंने जैसे-तैसे कोच की फीस का इंतजाम किया. मां खुद थोड़ा सा खाना खाती. कई बार तो भूखी सो जाती, पर बेटी शमा को उसकी पूरी डाइट दी.
ताकि मैदान में वह किसी के आगे कमजोर न साबित हो.
फिर शुरू हुआ जीत का सिलसिला
साल 2007 से शमा ने कबड्डी प्रतियोगिताओं में भाग लेना शुरू किया. शमा पहली बार अपने गांव से 2007 में खेलने के लिए आरा गई थीं. जहां जीत के बदले 100 रुपए मिले. मोहल्ले और कॉलेज के बाद साल 2010 में उसने पहली बार भोजपुर में आयोजित हुई राज्यस्तरीय सब जूनियर प्रतियोगिता में भाग लिया.
जहां खिलाड़ियों के हुनर का सम्मान होता था, वहां शमा की काबलियत भला किसी से कैसे छिप सकती थी.
राज्य कबड्डी संघ ने शमा को सम्मानित किया. उसकी तस्वीर पहली बार अखबार में छपी. माता-पिता गर्व से भर गए और वह दादी भी जिन्हें अपने खानदान के डूबते नाम की चिंता थी. इस ख्याति ने मोहल्ले में एक बार फिर शमा की चर्चा तेज की.
फिर उन्होंने 39वीं से 41वीं जूनियर नेशनल कबड्डी चैंपियनशिप और 60वीं से 64वीं सीनियर नेशनल चैंपियनशिप में शानदार परफॉर्म किया. इन सफलताओं ने शमा को अच्छे कोच का सानिध्य दिया.
परिणाम स्वरूप शमा भारत की महिला कबड्डी टीम का मजबूत हिस्सा बन गईं.
शमा के हुनर ने उसकी दो छोटी बहनों को प्रोत्साहित किया. पिता का विश्वास भी अब खरा हो चुका था. सो बहन हिना और सुल्ताना भी कबड्डी के मैदान में उतार आईं. शमा की हर हिना ने भी राष्ट्रीय स्तर तक के टूर्नामेंट्स में हिस्सा ले लिया है.
शमा भारतीय टीम में रेडर और डिफेंडर, दोनों ही तरह से खेलती. पिछले साल हुई एशियन कबड्डी चैंपियनशिप में शमा ने ईरान में भारत का प्रतिनिधित्व किया. ईरान एक मुस्लिम देश है, जहां टीम में सभी मुस्लिम महिला खिलाड़ी थीं.
यहां पाकिस्तान से भी टीम आई थी. इन सबके सामने भारतीय टीम में एकमात्र मुस्लिम महिला खिलाड़ी थी, शमा!
समाज से सवाल करती शमा-इलियास
बहरहाल प्रतियोगिता समाप्त हो चुकी है. शमा के साथ भारत की महिला कबड्डी खिलाड़ी अपनी जीत का परचम दुनिया में लहरा चुकी हैं. पर एक सांस में पढ़ ली जाने वाली इस कहानी का उपसंहार लोगों के गले उतरना मुश्किल है. खास तौर पर उन लोगों को शायद अच्छा न लगे जो बेटियों के हुनर को उनके हाथ से बने खाने के स्वाद में तलाशते हैं.
ऐसे लोगों के लिए शमा का यही कहना है कि जब पाकिस्तान और ईरान जैसे देशों की टीम में मुस्लिम महिलाएं होती हैं, तो भला भारत में ऐसी कौन सी शामत आन पड़ी है!
क्या होगा यदि कोई बेटी बुर्के से झांक ले. किचिन की बजाय खेल के मैदान में उतर जाए. देश के लिए एक दो मैडल जीत लाए?
शमा की तरह उनके पिता की हिम्मत भी काबिले तारीफ है. एक आम सा मुस्लिम आदमी, जिस पर उसके परिवार के सदस्यों का पेट पालने की जिम्मेदारी है, उसने कभी जिम्मेदारियों के बोझ के नीचे अपनी बेटियों के सपनों को कुचलने नहीं दिया.
एक इंटरव्यू में इलियास ने कहा था कि जब बेटी देश के लिए खेलती है.
उसकी जैकेट पर भारत का टैग दिखाई देता है और फिर वह गले में सोने का मैडल डालकर आपके सामने आती है, तो भला कौन सा समाज या धर्म मुझे उसे गले लगाने से रोक सकता है.
ऐसे में सवाल यह है कि क्या हमारे घरों में शमा जैसी बेटियां और इलियास जैसे पिता हो सकते हैं या नहीं!
Web Title: Story Of The Struggle Of Muslim Women Kabaddi Player Shama Parveen, Hindi Article
Feature Image Credit: intoday.in