अगर जाना है किसी नयी जगह की सैर पर तो अपना सामान पैक करें और रुख करें मगहर की ओर. यहाँ आप कबीर की समाधि और मज़ार पर एक ऐसी शांति महसूस करेंगे, जिसकी खोज में आप बरसों से थे.
आज हम इस जगह के सफ़र पर निकलेंगे, लेकिन कबीर के जीवन को छूते हुए.
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार.
ये पंक्तियाँ एक ऐसे कवि की है जिन्होंने समाज की बनी बनाई धारणाओं को हमेशा मानने से इनकार कर दिया. उन्होंने जीते जी तो व्याप्त ‘कुरीतियों’ पर आघात किया ही. अपने आखिरी समय में भी वो समाज को एक संदेश देकर ही गए.
उपरोक्त दोहे के जरिये कबीर जी ने कहा कि इस संसार में मनुष्य का जन्म मुश्किल से मिलता है. मनुष्य जीवन उसी प्रकार नहीं मिलता, जिस प्रकार वृक्ष से पत्ता झड़ने के बाद दोबारा डाल पर नहीं लग सकता.
जब बात ‘मोक्ष’ की आती है तो बनारस का नाम फट से जुबान पर आ जाता है. लेकिन, एक समय ऐसा था जब ‘मगहर’ में मरने पर नरक या फिर गधे के रूप में जीवन लेने की बात दूर-दूर तक मशहूर थी.
कबीर का अपना आखिरी समय ‘मगहर’ में बिताना इस जगह की महत्ता को बढ़ा देता है. आपने उत्तर प्रदेश में में घूमने के लिए अगर विचार बनाया है, तो मगहर में भी जरुर जाएं.
आइए जानते हैं, मगहर के बारे में जहां कबीर की समाधि और मज़ार दोनों एक साथ है-
कबीर ने भी बिताया था अपना आखिरी समय मगहर में
''पहिले दरसन मगहर पायो, पुनि कासी बसे आई'' यानी काशी में रहने से पहले उन्होंने मगहर देखा.
आज के भारत के लिए मगहर उतना ही बड़ा उदाहरण है, जितना कल के भारत के लिए था. वहां मौजूद कबीर की समाधि और मजार का एक साथ होना बहुत कुछ बताता है.
यह जगह अनूठी है. यहां की धरती कबीर के विचारों को जिंदा किये हुए है. यही वजह रही कि अपने कार्यकाल के दौरान पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने इसे अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन स्थल बनाना चाहा था.
उत्तर प्रदेश में स्तिथ मगहर किसी भी धर्म से परे है. यह गोरखपुर से करीब 30 किमी. दूर है. इसके अलावा, यह कौसाम्बी से 78 किमी. की दूरी पर है. यहाँ आप आसानी से अपने या फिर सार्वजनिक वाहन द्वारा पहुंच सकते हैं.
मगहर के नाम को लेकर ही कई किंवदंतियां हैं. जिसमें एक कहानी के अनुसार प्राचीन काल में बौद्ध भिक्षु इसी मार्ग से होते हुए कपिलवस्तु, लुंबिनी, कुशीनगर जैसे प्रसिद्ध बौद्ध स्थलों के दर्शन के लिए जाया करते थे.
इन भिक्षुओं से इसी इलाके में अक्सर चोरी और लूट जैसी घटनाओं को अंजाम दिया जाता था. यही वजह रही कि इस रास्ते का नाम 'मार्गहर' यानी मगहर पड़ गया.
जबकि एक दूसरी कहानी के अनुसार, यहां से गुज़रने वाला व्यक्ति हरि यानी भगवान के पास ही जाता है. लिहाजा, इस इस इलाके का नाम मगहर पड़ा.
एक समय ऐसा रहा जब यह स्थान बदनाम था. इसके पीछे की वजह थी इससे जुड़ा हुआ एक अंधविश्वास. इंसान भी अजब होते हैं, जीते जी चाहे वो नरक समान भी जीवन जी रहे हो लेकिन उन्हें मृत्यु के बाद स्वर्ग ही चाहिए होता है.
यहां भी किस्सा ऐसा ही था. दरअसल, यहाँ एक भ्रांति फैली थी कि जिसकी मृत्यु मगहर में होती है वह सीधे नरक जाता या फिर अगला जन्म गधे के रूप में लेता है. लिहाज़ा, मोक्ष का द्वार तो सिर्फ काशी ही है.
बस क्या था, कबीर ने इस भ्रान्ति को तोड़ने के लिए ही इस जगह को चुना. उन्होंने अपने जीवन का आखिरी समय यहाँ पर ही व्यतीत किया.
मगहर की ओर आमी नदी के नजदीक एक गुफा है. इस गुफा के बारे में कहा आता है कि कबीर वहां बैठकर ही अपनी ध्यान साधना किया करते थे.
यहाँ से आने से पहले उनके जीवन से जरा नजदीक से रूबरू होते हैं…
‘काशी’ की गलियों से ‘मगहर’ की गलियों तक
जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही,
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही.
कबीर कहते हैं कि जब तक वो अपने अहंकार में डूबे थे तब तक अपने प्रभु के दर्शन नहीं कर पाते थे. लेकिन, जब उनके गुरु ने ज्ञान का दीपक उनके अंदर प्रकाशित किया, तब अज्ञानता का अन्धकार मिट गया. ज्ञान की ज्योति से अहंकार जाता रहा और ज्ञान के आलोक में प्रभु को पाया.
काशी की गलियों में वो कितना मनोरम दृश्य होता होगा, जब कबीर अपने विचारों से हर दिन एक नया रंग जिंदगी को दे देते थे. काशी की मिट्टी से उन्होंने पूरी दुनिया को अपने शब्दों से सीख दी.
वैसे तो इनके जन्म के विषय में भी लोगों में मतभेद है. लेकिन मान जाता है कि संत कवि कबीर का जन्म बनारस के पास सन 1440 में एक ब्राह्मण माँ के गर्भ से हुआ. लेकिन वह उन्हें छोड़कर चली गयीं.
जिसके बाद एक मुस्लिम परिवार ने उन्हें गोद ले लिए, क्योंकि उनकी कोई संतान नहीं थी. अपने शुरुआती जीवन में ही वह प्रसिद्ध हिन्दू संत ‘रामानंद’ के शिष्य बन गए. ये वही रामानंद हैं, जो इस बात पर महत्व देते थे कि ईश्वर हर जगह है और हमारे अंदर ही है.
संत कबीर हमेशा धर्म के नाम पर किये जाने जाने वाले आडंबरों के खिलाफ रहे. वो मानते थे कि जब ‘जीवात्मा’ और ‘परमात्मा’ का मिलन होता है, तभी मोक्ष की प्राप्ति होती है.
कबीर के जीवन को कुछ शब्दों में समेटना बेहद मुश्किल है. उन्होंने ताउम्र ईश्वर की प्राप्ति के लिए कहीं और भटकने की बजाय स्वयं के अंदर खोजने की बात कही.
इसके लिए वह काशी की गलियों में अपने दोहों के जरिये गाकर कई लोगों के दिल जीत लिए, तो कई लोगों के लिए वह आँख का तिनका बन गए.
अपने जीवन का ज्तादातर समय बिताने के बाद वह ‘मगहर’ की गलियों तक पहुंच गए. वहां जाकर उन्होंने अपने जीवन के शेष दिन बिताए. वो इस जगह से जुड़ी मिथ्या को तोड़ना चाहते थे. ये वही जगह भी थी जहाँ उन्होंने अपनी आंखे मूंद ली.
जाते-जाते भी विवाद सुलझा गए थे कबीर
कबीर की ख़ास बात ये थी कि उनके अनुयायी हिन्दू और मुस्लिम दोनों थे. जब उनकी मृत्यु हुई तो दोनों पक्षों के बीच इस बात पर लड़ाई होने लगी. जहाँ एक और हिन्दू उन्हें जलाना चाहते थे, तो मुस्लिम उन्हें ‘दफनाना’ चाहते थे.
यह झगड़ा कबीर के दो शिष्यों के बीच हुआ. जिसमें उनके एक शिष्य मगहर के नवाब थे, नवाब बिजली शाह और दूसरे शिष्य वाराणसी के राजा वीर सिंह बाघेला थे.
नवाब कबीर का अंतिम संस्कार मुस्लिम धर्म के अनुसार करना चाहते थे तो वहीं राजा हिन्दू धर्म के अनुसार.
लगभग युद्ध होने की स्थिति पैदा हो गयी थी. माना जाता है कि तभी एक आवाज़ आई कि उनके मृत शरीर पर रखी हुई चादर हटाई जाए. वहां मौजूद सभी लोगों को बड़ा अचंभा हुआ. उन्होंने जब चादर हटाई, तो दांतों तले उंगली दबा ली.
दरअसल, उस जगह पर सिर्फ फूल थे, कबीर के शरीर का नामों निशान नहीं था. कबीर ने अपने मरने के बाद भी धर्म के नाम पर किये झगड़े को सुलझा दिया था. क्योंकि, इसके बाद दोनों पक्षों ने फूल को दो हिस्सों में बाँट लिया.
जिसके बाद मगहर में ही मुस्लिम अनुयायियों ने उनकी ‘मजार’ बनाई और हिंदू अनुयायियों ने समाधि. इस के बाद दोनों पक्ष अपने अपने तरीके से उनकी आराधना करते हैं.
समाधि और मजार की दीवार आपस में जुड़ी हुई है. जहां हिन्दू समाधि पर फूल आदि अर्पण करते हैं, घंटे बजाते हैं और मुस्लिम मज़ार पर चादर चढ़ाकर अपनी आस्था प्रकट करते हैं.
ये दृश्य इतना मनोरम है कि इसकी छवि मात्र आपको ‘मगहर’ की और खींच लाएगी. अगर आप कहीं घूमने का प्लान बना रहे हैं, तो मगहर को अपनी लिस्ट में जरूर रखें. हमारे प्रधानमंत्री मोदी जी ने भी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के बाद इसी वर्ष यहाँ की यात्रा की.
यहाँ शांति और सुकून है, जो शायद शहरों के जीवन में नहीं.
अंत में,
‘क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा
जो कासी तन तजै कबीरा, रामे कौन निहोरा’
अर्थात्, काशी हो या फिर मगहर का ऊसर, मेरे लिए दोनों ही एक जैसे हैं क्योंकि मेरे हृदय में राम बसते हैं. अगर कबीर काशी में शरीर का त्याग करके मुक्ति प्राप्त कर ले तो इसमें राम का कौन सा एहसान है.
#DontGetBoreTravelWithRoar
Web Title: Maghar A Place Where Dying Means Going To Hell, Hindi Article
Feature Image Credit: wikimedia