सोमेश के घर किसी की अचानक मृत्यु हो गयी थी.
यह मौत स्वाभाविक नहीं थी, बल्कि किसी दुर्घटना की वजह से घर का एक सदस्य हमेशा के लिए दूर चला गया था.
हिन्दू कर्मकांडों में अकाल मृत्यु से उत्पन्न हुए दोष-निवारण हेतु विभिन्न उपाय बतलाए गए हैं, जिनमें नारायणबलि-नागबलि इत्यादि शामिल हैं.
पंडितों ने सोमेश को भी वांछित ‘कर्म’ करने की सलाह दी, अन्यथा उनके अनुसार मृतक की आत्मा मुक्त नहीं होती और प्रेत-योनि में भटकती रहती.
समस्या यह थी कि सोमेश के पास तब इतना समय नहीं था और वह शहर में अपनी जॉब पर लौट आया, लेकिन उसके मन में ‘आत्मा की मुक्ति’ की बात बैठ गयी.
आप चाहें इन चीजों को विश्वास कहें, अन्धविश्वास कहें… किन्तु अगर आप आस्तिक हैं तो निश्चित रूप से आपका मन इन बातों को पूरी तरह नकार नहीं पाता होगा!
सोमेश के मन की इसी उधेड़बुन के बीच ऑफिस में कार्य करने वाले एक कलीग ने उसे ‘पिहोवा’ के बारे में बताया–
ऐतिहासिक महत्त्व का तीर्थ-स्थल
यूं तो पिहोवा नगर का मुख्य ज़िक्र महाभारत के समय से ही किया जाता है. महाभारत के एक भाग में कहा भी गया है कि-
पुण्यामाहु कुरुक्षेत्र कुरुक्षेत्रात्सरस्वती,
सरस्वत्माश्च तीर्थानि तीर्थेभ्यश्च पृथुदकम्.
इस श्लोक के अनुसार, कुरुक्षेत्र नगरी को पवित्र माना गया है, किन्तु सरस्वती को तो कुरुक्षेत्र से भी पवित्र जाना गया है. इतना ही नहीं, पृथूदक (वर्तमान पिहोवा) इनमें सबसे अधिक पावन व पवित्र बताया गया है.
Mythological Places in India, Pehowa, Kurukshetra, Haryana (Pic: ikmses)
प्रचलित कथाओं के अनुसार, महाभारत, वामन पुराण, स्कन्द पुराण, मार्कण्डेय पुराण आदि अनेक पुराणों एवं धर्मग्रन्थों के अनुसार इस तीर्थ का महत्व बेहद ज्यादा है.
कहा जाता है कि इस तीर्थ की रचना प्रजापति ब्रह्मा ने पृथ्वी, जल, वायु व आकाश के साथ सृष्टि के आरम्भ में ही कर दी थी. बताते चलें कि ‘पृथुदक’ शब्द का सम्बन्ध महाराजा पृथु से रहा है. पुराणों के अनुसार, इस जगह पृथु ने स्व-पिता की मृत्यु के बाद उनका श्राद्ध किया था.
शाब्दिक अर्थ जोड़ें तो इसके अनुसार, पृथु ने अपने पिताश्री को उदक (जल) दिया. अतः संधि के अनुसार पृथु व उदक मिलकर पृथूदक बने, जो कालांतर में पिहोवा कहलाया.
वामन पुराण में भी इस तीर्थ का वर्णन मिलता है!
इसके अनुसार गंगा के तट पर रहने वाले एक साधू, जिनका नाम रुषंगु था, उन्होंने अपना अन्त निकट जानकर मुक्ति की इच्छा की. मुश्किल यह थी कि उनकी मुक्ति गंगा-किनारे संभव नहीं थी. अतः अपने पुत्रों से उन्होंने गंगा को छोड़कर पृथुदक जाने का आग्रह किया था.
इस स्थान का एक उदाहरण पद्मपुराण में भी मिलता है. इसके अनुसार जो कोई भी सरस्वती के उत्तरी तट पर पृथुदक में तप करता हुआ अपने स्व-शरीर का त्याग करता है, वह निश्चित ही अमरत्व को प्राप्त होता है.
श्रीकृष्ण ने जलाया था ‘दिया’
महाभारत का भीषण-युद्ध समाप्त हो चला था.
लाखों लोग काल के गाल में समा चुके थे. अकाल-मृत्यु प्राप्त उन लाखों व्यक्तियों के लिए धर्मराज युधिष्ठिर बेहद चिंतित थे.
अपनी चिंता-व्यथा उन्होंने योगेश्वर श्रीकृष्ण के साथ शेयर की और कहा कि ‘हे प्रभू! इतने लोग जो असमय ही काल-कवलित हो गए हैं, उनकी मुक्ति किस प्रकार संभव होगी’?
तब भगवान श्रीकृष्ण ने ‘पिहोवा’ में सरस्वती-तीर्थ पर दीपक जलाया और उस दीपक में धर्मराज युधिष्ठिर ने असमय मृत्यु को प्राप्त लोगों की आत्मा की मुक्ति के लिए तेल डाला.
कहते हैं आज भी वह दीपक ‘पिहोवा’ में जल रहा है और देश भर से लोग अकाल-मृत्यु प्राप्त अपने परिजनों की मुक्ति के लिए उस दीपक में तेल डालने यहाँ आते हैं.
Saraswati Tirth-Sthal (Pic: Mithilesh)
पाैराणिक मतों के अनुसार, ज्येष्ठ कुंती-पुत्र ने यहां दो दीप 18,00,000 लोगों की याद में जलाया था. इतना ही नहीं, पेहोवा के सम्बन्ध में आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इस स्थान पर महाभारत काल के परिवारों का रिकॉर्ड रखा हुआ है.
इन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी यहाँ का कार्य देखने वाले पण्डे मेन्टेन करते हैं.
हालाँकि, इनमें से कुछ रिकॉर्ड खराब हो गए बताए जाते हैं, क्योंकि इस्लामी शासकों ने परिवारिक चिन्हों को मिटाने के लिए इन्हें नष्ट करने का प्रयास किया था.
कार्तिकेय की कथा से जुड़ा रहा है यह ‘स्थान’
प्रचलित किंवदंतियों के अनुसार, इस जगह पर त्रिनेत्रधारी शिव के ज्येष्ठ पुत्र कार्तिकेय, अपने माता-पिता की परिक्रमा के बाद विश्राम करने के लिए ठहरे थे. इसी दौरान उन्होंने अपनी त्वचा को साफ किया था और प्रयुक्त उबटन को अपनी मां पार्वती के पास ही छोड़ दिया था.
आज भी यहाँ जिस मंदिर में दीपक जलते रहते हैं, वह भगवान कार्तिकेय का ही मंदिर है.
इस कार्तिकेय-मंदिर के बारे में एक और धारणा चौंकाती है. वह यह है कि इस मंदिर में कोई स्त्री प्रवेश नहीं कर सकती. इसके पीछे कारण बताया जाता है कि अगर कोई स्त्री इस मंदिर में प्रवेश करती है तो फिर उसे एक, दो नहीं… बल्कि सात जन्मों तक विधवा रहना पड़ेगा.
अजीब यह है कि इन बातों पर आज भी लोग अविश्वास करने से हिचकते हैं!
इस मान्यता के पीछे भी एक कथा है. इसके अनुसार, जब कार्तिकेय ने मां पार्वती से क्रोधित हो अपने शरीर का मांस और रक्त अग्नि के हवाले कर दिया, तब भगवान शंकर ने कार्तिकेय को प्रिथुडक तीर्थ (पेहोवा) जाने का आदेश दिया.
तभी, कार्तिक के ज्वलनशील शरीर को शीतलता देने के उद्देश्य से ऋषि मुनियों ने सरसों का तेल उन पर चढ़ाया. ठीक तभी से भगवान कार्तिकेय पेहोवा में पिंडी रूप में स्थापित हो गए.
इन पिंडियों पर भी सरसों तेल चढ़ाने की परंपरा तभी से चली आ रही है.
Lord Kartikeya Temple Renovation is going on, Pehowa (Pic: Mithilesh)
बहरहाल जब यहाँ सोमेश गया तो उसके गाँव, कुल और गोत्र इत्यादि का हिसाब यहाँ के पण्डे लगाने लगे. पिंडदान के पश्चात् भी इन रिकार्ड्स में बकायदे सोमेश और उसके कुल का नाम अंकित किया गया.
सोमेश यह जानकर बेहद रोमांचित हुआ कि उसके परिवार की अगली पीढ़ी में जब भी कोई पिहोवा आएगा तो आत्मा-मुक्ति के लिए उसके द्वारा किया गया कर्म अगले युगों तक बताया जाएगा.
वैसे, आते समय पंडों ने सोमेश को बताया कि कोई आवश्यक नहीं है कि यहाँ सिर्फ अकाल-मृतकों की आत्मा के लिए ही आया जाए, बल्कि एक तीर्थ-स्थान के तौर पर अपनी विरासत को देखने-सहेजने और समझने के लिए भी यहाँ आना चाहिए.
Indian Flag in Pehowa (Pic: Mithilesh)
गूगल की दुनिया में यहाँ जाने के लिए आपको किसी सलाह की आवश्यकता तो नहीं होगी, किन्तु फिर भी थोड़ा बहुत हिंट सोमेश ने दिया है.
हरियाणा के कुरुक्षेत्र जिले में ज्योतिसर से तकरीबन 20 किलोमीटर की दूरी पर यह ‘पिहोवा’ स्थित है. सड़क-मार्ग उत्तम है, तो तीर्थ-स्थान पर पंडों की चतुराई से बचने की सावधानी भी आपके लिए जरूरी है.
वो क्या है कि आत्मा की मुक्ति के नाम पर 21 हज़ार, 11 हज़ार, इक्यावन सौ, इक्कीस सौ देना भी अन्धविश्वास फैलाना ही है.
हाँ, जो उचित मेहनत और सामग्री लगती है, उतना देने में कोई बुराई नहीं!
सोमेश की ‘पिहोवा-यात्रा’ आपको कैसी लगी, कमेंट-बॉक्स में अवश्य बताएं!
Web Title: Mythological Places in India, Pehowa, Kurukshetra, Haryana
Featured Image Credit: Mithilesh.