यशपाल के 'झूठा सच' और राही मासूम रजा के 'आधा गांव' के बाद भारत-पकिस्तान बंटवारे की त्रासदी पर अगर कोई और उपन्यास याद किया जाता है, तो वह है 'तमस'.
इसे लिखने वाले लेखक ने अपना पूरा जीवन साहित्य और लोगों की सेवा में लगा दिया. इस लेखक का नाम है-भीष्म साहनी.
भीष्म साहनी ने लेखन की उस परम्परा को आगे बढ़ाया, जिसमें यथार्थवाद के पन्नों पर अपने समय से पीछे रखे गए लोगों के दुखों को न केवल उकेरा गया, बल्कि इन दुखों से बाहर आने का रास्ता भी दिखाया गया.
भीष्म साहनी ने अपना पूरा जीवन मानवता को बचाने के लिए होम कर दिया. आज जब समाज में चारों ओर साम्प्रदायिकता का बोलबाला है, ऐसे में भीष्म साहनी और उनकी रचनाओं के बारे में जानना सामायिक रहेगा-
सांप्रदायिक माहौल में बीता बचपन!
एक लेखक, अदाकार, अनुवादक, एक्टिविस्ट और अध्यापक के रूप में अपना पूरा जीवन व्यतीत करने वाले भीष्म साहनी का जन्म 8 अगस्त 1915 को अविभाजित भारत के रावलपिंडी में हुआ था. यह ऐसा समय था, जब हर तरफ सांप्रदायिक दंगे हो रहे थे. भीष्म साहनी इसी माहौल में बड़े हुए. इन दंगों और घृणा ने उनके बालमन पर बहुत गहरा प्रभाव डाला.
भीष्म साहनी ने लाहौर के सरकारी कॉलेज से अंग्रेजी साहित्य में परास्नातक की डिग्री हासिल की. इसी समय उन्होंने कांग्रेस पार्टी ज्वाइन की और स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े.
1942 में जब गांधी जी के नेतृत्व में भारत छोड़ो आन्दोलन शुरू हुआ, तो भीष्म को जेल भी जाना पड़ा.
वे जब जेल से बाहर आए तो लाहौर में ही उन्होंने पढ़ाना शुरू किया. इस समय लाहौर समाज सुधार आंदोलनों का केंद्र था. कहते हैं कि यही वह समय था, जब भीष्म ने समाज के लिए कुछ करने के बारे में गंभीरता से सोचना प्रारम्भ किया.
भारत-पाक बंटवारे ने बदल दी जिंदगी
आगे 1947 में भारत-पकिस्तान का बंटवारा हो गया. यह बंटवारा अपने साथ सदी की सबसे भयानक सांप्रदायिक हिंसा भी लाया. इस बंटवारे का दंश भीष्म को भी सहना पड़ा. बंटवारे के बाद भीष्म को अपने परिवार के साथ भारत में बसना पड़ा.
इस बंटवारे ने भीष्म के अवचेतन पर ऐसा प्रभाव डाला कि वे इससे जीवनभर उबर नहीं पाए. यहीं से उनका लेखन प्रारंभ हुआ, यहीं से वे थिएटर से जुड़े. यहीं से उनका जीवन लक्ष्य साम्प्रदायिकता और आम लोगों के खिलाफ हो रहे अन्याय से लड़ना हो गया. यहीं से उनकी विचारधारा विकसित हुई.
हालाँकि, एक खास विचारधारा का होते हुए भी भीष्म साहनी का मानना था कि अपनी रचनाओं में विचारधारा को थोपना नहीं चाहिए. उनका मानना था कि कहानियों के पात्र अपनी कहानी कहें तो ज्यादा बेहतर है. उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘आज के अतीत’ में लिखा है कि इससे फर्क नहीं पड़ता कि कहानी के पात्र वास्तविक हैं अथवा काल्पनिक, बस वे विश्वसनीय होने चाहिएं.
आगे उन्होंने ‘अमृतसर आ गया’ नाम की कहानी लिखी. इस कहानी के द्वारा उन्होंने यह बताने की कोशिश की किस तरह आम आदमी एक झटके में हैवान बन जाते हैं.
कैसे सांप्रदायिक उन्माद उन्हें इतना अँधा बना देता है कि वे एक-दूसरे की जान लेने पर उतारू हो जाते हैं. इस कहानी को बंटवारे पर ही लिखी गई सआदत हसन मंटो की कहानी ‘टोबा टेक सिंह’ के बराबर का दर्जा प्राप्त है.
उपन्यास ‘तमस’ ने बनाया मशहूर
हालाँकि, इस कहानी में विभाजन की त्रासदी का सिर्फ एक अक्स भर ही था. भीष्म साहनी ने जो देखा और सहा, उसे उनके द्वारा समूचा बयान किया जाना अभी बाकी था. यह काम भी भीष्म ने जल्द ही किया. आगे 1974 में उनका उपन्यास ‘तमस’ आया.
तमस का मतलब होता है अँधेरा. वह अँधेरा जो भीष्म साहनी ने अपने समय में देखा. वह अँधेरा, जिसे धर्म के नाम पर की जाने वाली सियासत ने जन्म दिया. वह अँधेरा, जो आज भी न जाने कितने मासूमों को लील रहा है. वह अँधेरा, जो लगातार हर दिशा में आगे फैलता जा रहा है.
इस उपन्यास के प्रकाशित होते ही यह प्रसिद्ध हो गया. अगले वर्ष भीष्म को इसके लिए साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी मिला. आगे निर्देशक गोविन्द निहलानी ने इस उपन्यास पर आधारित एक फिल्म सीरीज भी बनाई. यह 1980 में प्रसारित हुई और उपन्यास की ही तरह बहुत प्रसिद्ध हुई.
संवेदनशीलता को कहानियों में पिरोया
साहित्य की दुनिया में यह बात प्रसिद्ध है कि यदि किसी लेखक या लेखिका की कोई कृति बहुत ही ज्यादा ख्याति प्राप्त कर लेती है, तो उस कृति का नाम रचनाकार से हमेशा के लिए जुड़ जाता है.
इसका एक उदाहरण श्रीलाल शुक्ल हैं. उन्हें बस उनकी रचना ‘राग दरबारी’ से ही पहचाना जाता है. राग दरबारी के अलावा भी उन्होंने बहुत कुछ लिखा है, लेकिन लोग उसे कम ही याद करते हैं.
खैर, यह आलेख श्रीलाल शुक्ल और राग दरबारी के बारे में नहीं है. उनका उदहारण तो इसलिए दिया गया क्योंकि कुछ ऐसा ही भीष्म साहनी के साथ भी हुआ. उन्होंने भी तमस के अलावा बहुत कुछ लिखा. लेकिन उसे कम ही याद किया जाता है.
भीष्म साहनी ने ‘मायादास की मदी’, ‘कड़ियाँ’, ‘बसंती’ और ‘नीलो, नीलिमा और नीलोफर’ जैसे संवेदनशील उपन्यास लिखे. इसके साथ ही उन्होंने बहुत सारी कहानियां भी लिखीं. इन कहानियों में ‘चीफ की दावत’ आज भी मौजूं है.
पद्म भूषण जैसे पुरस्कारों से हुए सम्मानित
भीष्म साहनी थिएटर से भी जुड़े रहे. उनके बड़े भाई बलराज साहनी ने उन्हें थिएटर से जोड़ा था. बलराज की ही तरह भीष्म भी ‘इप्टा’ से जुड़े. इप्टा उस समय के प्रगतिशील नाटककारों का समूह था.
यह समाज में एक नयी चेतना को जन्म देने के उद्देश्य से खड़ा किया गया था.
इप्टा का हिस्सा रहते हुए भीष्म ने कुछ बहुत अच्छे नाटक लिखे. इनमें ‘हानूश’, ‘माधवी’ और ‘कबीरा खड़ा बाजार’ में जैसे नाटक प्रमुख हैं. इन नाटकों की ही वजह से उन्हें संगीत नाटक अकादमी और पद्म भूषण जैसे ख्यातिप्राप्त पुरस्कार भी मिले.
अभिनय में भी भीष्म ने अपना हाथ आजमाया. उन्होंने गोविन्द निहलानी की टीवी सीरीज 'तमस', सईद मिर्जा की फिल्म 'मोहन जोशी हाजिर हो', बर्नार्डो बेर्टोलुकी की फिल्म 'लिटिल बुद्धा' और अपर्णा सेन की फिल्म 'मिस्टर एंड मिसेज अय्यर' में अभिनय किया. आगे उन्होंने सहमत नाम का एक संस्कृतिक कला संगठन भी खोला.
यह कला संगठन नाटककार सफ़दर हाशमी को समर्पित था.
अंत में यही कहा जा सकता है कि साहनी केवल कुछ चुनिन्दा विषयों के लेखक नहीं थे. उन्होंने हर प्रकार की मानवीय संवेदनाओं और समाज में व्याप्त बुराइयों पर खुलकर लिखा.
उन्होंने न केवल लिखा, बल्कि अपने लिखे को जिया भी. भीष्म साहनी ताउम्र साम्राज्यवाद और समाज को विभाजित करने वाली शक्तियों के खिलाफ लड़ते रहे. वे हमेशा लोगों की समानता और शांति के पक्षधर रहे.
वे हमेशा अपने सिद्धांतों और विचारधारा के लिए खड़े हुए. इतना सब करने के बाद भी उन्हें किसी ने हिकारत की नजर से नहीं देखा. वे एक तरह से अजातशत्रु रहे. 11 जुलाई 2003 को उन्होंने हमेशा के लिए आँखें मूँद लीं.
Web Title: Bhisham Sahni, Who Introduce People To The Tragedy Of Partition, Hindi Article
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