साधो! ये मौसम बदलने का मौसम है… एक झटके में सुबह की नर्म हवा दोपहर की गर्म हवा में ऐसे यू टर्न लेती है… जैसे मौसम विभाग आजकल इंद्र देवता नहीं कोई ईमानदार नेताजी देख रहे हों.
सुबह की हवा में अनजानी सिहरन जब जिस्म को छूती है तब बिछौना कब ओढ़ना हो जाता है कुछ समझ में नहीं आता. लगता है ये हवा गांव की वो चंचल भौजाई है- जो बात-बात पर देवर की खिंचाई करना नहीं भूलती है.
इधर दोपहर की हवा में जून की तपन तो कभी जुलाई अगस्त की उमस, बेचैन करती है. रात भर एक पढनिहार लड़का यही नहीं समझ नहीं पाता कि कूलर बन्द रखकर सोए या चलाकर. कई बार लगता है कि ये जीवन रूपी मौसम भी इसी उहापोह में बीतने वाला है.
देख रहा आज सुबह धूप खिली है, आसमान में एक ताजगी है, हवा में मौसम के बदलने की मधुर सी आहट, अस्सी की सीढ़ियों को चढ़ते ही एक चाय की दुकान आती है, जहाँ चाय कम विमर्श ज्यादा पिया जाता है… आज हाथ में एक कप है तो कुछ बिस्किट के बिखरे टुकड़े और कुछ उखड़े बुद्धिजीवियों की बातें तो वहीं कुछ बिखरे अखबारों के पन्ने!
एक बुद्धिजीवी के हाथों में अखबार देखकर आश्चर्य होता है कि दिन पर दिन इस देश के बुद्धिजीवी पतले और अखबार मोटे होते जा रहे हैं.
लेकिन बुद्धिजीवी से ज्यादा अखबार पर तरस आती है जिसमें आज खबर छोड़कर सब कुछ है, ऑफलाइन हकीमों के ऑफर्स से लेकर ऑनलाइन हकीमों के विज्ञापन तक… ऑफर ही ऑफर!
कपड़े, गहने, टीवी, गाड़ी, घर, एसी, लैपटॉप, मोबाइल, फ्रीज, कूलर, तेल, साबुन, दवाई से लेकर रजाई तक पर ऑफर चल रहे हैं… कहीं 50% ऑफ है तो कहीं 70%!
इन ऑफरों को देखकर लगता है कि दुनिया में मुझे छोड़कर सबने सामान खरीद लिया है, बस एक मेरा ही खरीदना बाकी है. अपनी आर्थिक स्थिति की ऐसी की तैसी करते हुऐ भले मुझे अपनी किडनी बेचनी पड़े लेकिन… ये जो मोहतरमा अपनी नाजुक अदा के साथ एसी बेच रही हैं इसे अभी खरीद लेना चाहिए!
उसी पन्ने के बीचे एक मोहतरमा अपनी छूई-मुई सी अदा के साथ इस बात का प्रलोभन दे रहीं हैं कि मैं उनका फ्रिज लेकर ठंडा हो जाऊं, वहीं नीचे एक खिलाड़ी शिलाजीत बेचते हुए बता रहा है कि उसने दूध-बादाम खाकर नहीं वरन शिलाजीत खाकर ही जंग-ए-मैदान में इस देश का नाम रोशन किया है.
इधर एक असफल अभिनेता बड़ी सफलता पूर्वक बता रहे हैं कि दीवाली में भले लोन लेकर आपका दीवाला निकल जाए लेकिन अगर आपने अब तक घर नहीं लिया तो फलाना हाउसिंग सोसायटी में घर ले सकते हैं… क्योंकि चार लाख की छूट आपको दी जा रही है!
मैं सोचता हूँ क्या आफ़त है जी? क्या ऐसे विज्ञापन अत्याचार की श्रेणी में नहीं आने चाहिए, मन करता है मैं सबके सामने हाथ जोड़ दूँ और जोड़कर धीरे से कहूं कि–
हे आदरणीय! हम क्या करेंगे फ्रिज, शिलाजीत और घर लेकर… संतन को कहा सीकरी सो काम” यहाँ तो अभी इसी पर रिसर्च चल रहा कि मेस में रजुआ ने जो कल दाल बनाई थी वो अरहर की ही थी या मसूर की… कल जो सौ का आख़री नोट बचा था, उसमें पांच रुपया ऑटो किराया देने के बाद पॉकेट में पैंसठ रुपया ही आज क्यों है? साधो– क्या ये जीएसटी का असर है या नोटबन्दी का?
इधर एक दूसरे बुद्धिजीवी के हाथ में दूसरा अखबार है, ध्यान से देखने पर लगता है शादी के बाद जैसे किसी गांव के गुड्डुआ का शरीर छोड़कर पेट विकसित होने लगता है… वैसे ही अचानक ये अखबार भी मोटा हो गया है.
यहाँ दीवाली का दूसरा बाज़ार सजा है, इसकी मानें तो मुझे भले घर बेचकर सड़क पर आ जाना पड़े लेकिन इस दीवाली मुझे आईफोन ले लेना चाहिए, क्योंकि शहर में बाइक और फोर ह्विलर, ज्वैलरी की बिक्री में भारी उछाल आया है, कई शो रूमों में गाड़ियां आज नहीं मिलेंगी.
कई बार सोचता हूँ ये भी क्या बला है, जो देश हंगर देशों की ग्लोबल रैंकिंग में अपना ही रिकार्ड तोड़ने पर आमादा है, उस देश में ये हाल–
इधर तीसरे पन्ने पर पता चला है कि पटाखा जलाने से प्रदूषण होता है,और इसका लिहाज करते हुए हमें ग्रीन दीवाली मनानी चाहिए.
देखता हूँ एक भाई साब जो बड़े बुद्धिजीवी आदमी हैं, वो चाय का कप रखकर नाराज हो रहे हैं.. जिसका तात्पर्य ये है कि इस देश के जजों को तीन-तेरह कुछ आना जाना है नहीं और मुँह उठाकर जजी करने चले आते हैं ससुर!
अरे! जब राम जी ने छुरछुरिया और पटाखा नहीं जलाया तो अल्लाह ने कौन सा डीजे वाले माइक पर नमाज पढ़ा था” लेकिन नहीं, साला सुप्रीम कोर्ट न हुआ खाला की दुकान हो गयी… जब मन मे आए शटर उठाकर फैसला सुना दो.
अचानक चाय की दुकान का मौसम किसी आर-पार या ताल ठोक के डिबेट टाइप हो जाता है… जहाँ सबको पता रहता है कि यहां बोलते सब हैं, दूसरे की सुनता कोई नहीं है!
लीजिये एक गम्भीर बुद्धिजीवी ने मोर्चा संभाला है. जो यूँ तो शोध करते हैं, लेकिन हकीकत में शोध छोड़कर सब कुछ करते हैं.
वो एक दूसरे बुध्दिजीवी सिगरेट की फूंक मारकर समझा रहे है..”अरे पगला गए क्या? डॉक्टर कहेगा कि सर आपकी किडनी ठीक नहीं, होली को दारू-मुर्गा न लीजियेगा तो उसे सेक्युलर कह देंगे…?
तीसरे बुध्दिजीवी ने बड़े ही प्रेम से कहा है “आप चुगद हैं क्या? डॉक्टर वाला काम जज साहब को करना चाहिए क्या? कम्बख्तों ने बच्चों के हाथों से फुलझड़िया छीन ली, कल कहेंगे कि होली में रंग न लगाओ पानी नुकसान होता है.. परसो कहेंगे कि तीज व्रत न रहो महिलाओं के स्वास्थ्य पर विपरीत असर होता है, एकदम बौचट समझ लिए हैं क्या पब्लिक को?
उफ्फ ! क्या पटाखा विमर्श है!
मैं निरपेक्ष भाव से देखता हूँ कि मेरे सामने ग्यारहवी में पढ़ने वाले चार लौंडों का एक समूह खड़ा है, जो शक्ल से बड़ा मासूम और आंखों से शातिर सा दिख रहा है, शायद सबने मिलकर आज क्लास बंक की है.
एक तिरछोल किस्म का छोरा चाय की चुस्की लेते हुए पूछता है..”दीवाली में तुम्हारी पटाखा आएगी न?
देखता हूँ पटाखा का नाम सुनकर सामने बैठे लौंडे का चेहरा आलिया भट्ट के गाल पर उगे डिम्पल जैसा हो जाता है..
“साले नहीं आएगी तो हम दीवाली कैसे मनाएंगे बे”?
वही है तो मेरी होली कलरफुल और दीवाली मेरी ब्राइट है!
मैं चाय पी लेने के बाद सोचता हूँ कि पटाखा असली किसे माना जाए… बुद्धिजीवियों वाला या इन ग्यारहवी के लौंडों वाला?
प्रदूषण की कैटेगरी में किसे रखा जाए, उन गम्भीर बुद्धिजीवियों को या शुद्ध वर्तमान में जी रहे इन ग्यारहवीं वाले लड़कों को…
लगता है विमर्श इस देश की एक बौद्धिक खुराक है… जो समय- समय पर पूरी होती रहती है. हमें रोज एक मुद्दा चाहिए टीवी डिबेट के लिए कालम लिखने के लिए फेसबुक, ट्विटर अपडेट करने के लिए, चाय की दुकान पर बहस के लिए.
इधर ये शोध होना बाकी है कि आदमी के चित्त को इन निरर्थक बहसों से क्या हासिल होता है? अगर इस देश के क्रांतिकारी बुद्धिजीबी सिर्फ सिगरेट पीना छोड़ दें तो आधा बौद्धिक औऱ मानसिक प्रदूषण ऐसे ही कम हो जाएगा. लेकिन इस देश के मानसिकता में एक बात सुई से चुभो दी गयी है कि “बेटा हम तो बाद में सुधरेंगे, लेकिन पहले तुमको सुधारेंगे”!
ऐसे विमर्शों से जमीनी परिवर्तन नहीं होते… अरे बहस इस पर होनी चाहिए कि किसी गरीब के घर इस बार दीवाली कैसे मनेगी, इस दीवाली किसी जरूरत मन्द की हम कैसे सहायता कर सकते हैं. ताकि हमारी एक छोटी सी कोशिश से उनके चेहरे पर उजाला फैल जाए.
न जाने क्यों नीरज याद आते हैं…
समय ने जब भी अंधेरों से दोस्ती की है
हमने अपना घर जलाकर रोशनी की है.
Web Title: Cracker Ban and Deliberation by Intellectuals, Hindi Article