यूँ तो चुनाव नाना प्रकार के होते हैं, लोक सभा से लेकर ग्राम सभा और विधानसभा से लेकर राज्यसभा का चुनाव!
लेकिन मित्रों- राजनीति को बाइज्जत दो मिनट के लिए खूंटी पर टांग कर हम निरपेक्ष भाव से जीवन के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डालें, तो पातें हैं कि हमारा सम्पूर्ण जीवन ही चुनावमय है.
नेता बनकर चुनाव लड़ने की भले एक उम्र हो लेकिन पैदा होते ही हमें चुनाव की प्रक्रिया में कूद जाना पड़ता है… और पहला चुनाव होता है नाम का.
“अले ले ले ले… मोहल्ले के मोहन कुमार के लड़के का नाम अगर सम्भ्रान्त है… तो मेले स्वीट-स्वीट बेटू जी का नाम वैभव रहेगा या वैभवेंद्र रहेगा इसका चुनाव सेटिंग पद्धति से सम्पन्न होने वाले गाँव के परधानी चुनावों पर भारी रहता है!
मम्मी के नाम का पहला अक्षर और पापा के नाम का आखिरी अक्षर लेकर आजकल ईवान, ईशान और मोहित से लेकर मारियीशू, वैदिक, अक्षर, नमन और नैतिक से लेकर हर्ष और हार्दिक जैसे सुसंस्कृत नामों का चुनाव होने लगा है.
भले ईशान बेटे का नाम आगे चलकर पान की दुकानों पर रखे उधारी रजिस्टर में सबसे ऊपर लिखा जाए या भले किसी मोहित पर आईपीसी की प्रतिष्ठित धाराएं उसके गले की माला बनें… वो हार्दिक आगे चलकर राशन कार्ड बनाने की दुकान खोल ले लेकिन बढ़िया नाम रखने में आजकल के मॉम और पाप्स कोई कसर नहीं छोड़ते हैं.
कई ज्ञान प्रकाश तो दिन में ही अज्ञान का अंधियारा फैलाते हैं… कैसे पूरुब टोला के धनेसर प्रसाद आज भी दिन में घास और रात में प्याज़ छील रहे हैं… वहीं पश्चिम टोला वाले दुक्खी तुरहा ने लहसून और धनिया बेचकर ही शहर में दो-दो मकान लेकर सबको कारोबार-ए-धनिया के विषय में सोचने पर विवश कर दिया है.
मित्रों… फिर आता है बचपन में एक और चुनावी दिन… स्कूल का वो दूसरा दिन… जब मम्मी-पापा अपने बेटू जी को डीएम, कलेक्टर और इंजीनियर मानकर उसका एडमिशन किसी सेंट लुइस-पूइस, सेंट जॉन-ए-जिंदगी-मेरी टाइप कान्वेंट स्कूल में करवाते हैं.
बच्चा सिस्टर मेरी के हाथों चेरी वाली चॉकलेट लेकर स्कूल पहुँचता है… और शाम को फादर पीट्स के हाथों पिटाकर मुंह को मोमबत्ती जैसा बनाए, गले की टाई के साथ में थरमस लटकाए किसी पिचके हुए गुब्बारे जैसा मुंह बनाए घर आता है..
और घर आते ही पाता है कि घर में झँझट शुरू हो गयी है… उसके सामने जो आदमी खड़ा है जिसे दुनिया उसका पापा और बड़े शान से उसे उनका बेटा कहती है… उनका चुनाव एकदम बेकार है.
“मेला बस्ता पम्मी के बस्ते से कम ब्राइट है तो मेरा बैग डार्क क्यों रहेगा… पापा आपने मेरे लिए बढ़िया वाला बस्ता चूज नहीं किया.
इतना सुनते ही पिंकू की मम्मी हाथ में लगे आटे को झाड़ती, टप-टप चू रहे पसीने को पोछती, मेकअप को सम्भालती बेलन लिए आंगन में प्रविष्ट होतीं हैं… और झट से कहती हैं…”जाने दो पिंकू बेटा इनसे कहना ही बेकार है… तुम्हारे पापा की पसंद सच में बकवास है!”
पति बेचारा दिन भर का थका हारा, राहुल गांधी जैसा मुंह और केजरीवाल जैसी आंखों को बंद करके एक मोदी जैसा जम्हाई लेता है और धीरे से मन में ही कहता है…
“पसन्द तो मेरी सच में बकवास है देवरिया वाले दीनदयाल की दारुण बेटी… मति मरा गयी थी मेरी… काश! तुम्हारा फ़ोटो देखकर ही फूफा जी को मना कर दिया होता.. लेकिन हाय रे मेरी पसंद!”
मित्रों… जरा सा बड़े होने पर स्कूल में कौन सा सब्जेक्ट लिया जाएगा इसका चुनाव भी कम रोचक चुनाव नहीं है… भले गणित में हम गोल और इतिहास में भूगोल हों… लेकिन बगल वाले शर्मा जी के शशांक ने इतिहास लिया है तो हम भी इतिहास ही लेंगे कि नहीं लेंगे इस पर दंगल, आर-पार और नेशन वान्ट्स टू नो टाइप डिबेट होती है.
और आदमी इस विषयी चुनाव में कब अर्णब गोस्वामी से सागरिका घोष बन जाता है… समझ नहीं आता… कब रोहित सरदाना से रवीश कुमार होना पड़ता है… उसे पता ही नहीं चलता!
अरे! इसी इतिहास से तो एक और पड़ोसी वर्मा जी के लड़के का नब्बे नम्बर आया था. तिवारी अंकल तो इतिहास के टॉपर ही हैं… भले उनको अपने परबाबा का नाम नहीं पता हो पर उस मुरारी अंकल का चेहरा देखा है आपने ?
नगरीय इतिहास से लेकर वैश्विक इतिहास को फेंकने की चलती-फिरती मशीन हैं वो!
उनका भी इतिहास में 98 नम्बर है. ये अलग बात है कि आगे चलकर वो इतिहास का छात्र न होकर नागरिक शास्त्र में रुचि लेने लगे थे और देखते ही देखते आरटीओ आफिस में लाइसेंस बनवाने की मशीन बन गए थे. आजकल वो ऐतिहासिक कविता लिखने लगे हैं.
मित्रों- स्कूल से बाहर होते और जवानी में प्रवेश करते ही पता चलता है कि हम बनवारी लाल डिग्री कालेज के छात्र हो चूके हैं… और यहां पढ़ाई हो या न हो, बस्ते का चयन हो या न हो… गर्लफ्रेंड का चयन करना सबसे पहले जरूरी है.
और यहीं से शुरू होती है जवानी की चुनावी यात्रा~
मोनी से सुंदर मोनालिसा है कि ममता से सुंदर बबिता, कल पूजा सुंदर लग रही थी, लेकिन इस रोशनी का भी जबाब नहीं… कमबख्त जब चलती है तब दिल के अंधेरे में पेट्रोमेक्स जला देती है.. इसके बाल आलिया भट्ट के गाल से भी ज्यादा ब्राइट हैं.. चाल तो देखके लगता है रीति काल के सारे कवि आज एक ही साथ कविता लिखने बैठे हैं.
मित्रों- ले-देकर गर्लफ्रेंड का सलेक्शन हो भी जाता है तो फिर उसे इम्प्रेस करने के लिए कौन सी जीन्स पहनी जाएगी, कौन सी शर्ट, कौन सी डीपी रहेगी, कौन सा मोबाइल कौन सा बाइक रहेगा… इसका चुनाव गुजरात के चुनाव से जरा भी कम है क्या?
मैं देखता हूँ कि गर्लफ्रेण्ड मिल जाती है.. नौकरी भी.. लेकिन कई बार आदमी अपने चुनाव के साथ सन्तुष्ट नहीं होता और एक दिन उसके भीतर बैठा कुमार विश्वास उसके हृदय रूपी आम आदमी पार्टी से बाहर निकलने लगता है कि उसका चुनाव बड़ा गड़बड़ था और वो आज अपने कॉलेज वाले लव से शादी करके फंस चुका है…
देखो न ये नीना आंटी शरमाईन की बड्डे पार्टी में पर्पल कलर की साड़ी पहनकर जाएंगी या ग्रे कलर वाली यही फाइनल नहीं हुआ और पता चला पार्टी खत्म भी हो गयी.
इस तरह हम पाते हैं कि जीवन हर कदम चुनावों से भरा है.. अगर हम चौकन्ने होकर चुनाव नहीं करते तो कब महबूबा के लिए टेडी बियर चूज करने वाला आदमी एक दिन राशन की दुकान में खड़े-खड़े चीनी और किरोसिन का चयन करने में दम तोड़ दे भरोसा नहीं है!
ये तो चुनाव की प्रजाति हो गयी… लेकिन हम पाते हैं कि हमारे देश में जितने किस्म के चुनाव हैं.. उतने ही किस्म के विश्लेषक भी हैं..
चुनाव छोटे-बड़े, मझोले, राजनीतिक, गैर-राजनीतिक भले हो लेकिन विश्लेषक की साइज एक ही होती है… या जरा दार्शनिक भाव में कहें तो विश्लेषक एक ऐसा निराकार प्राणी होता है जो मुद्दों के अनुसार अपने ज्ञान को ताक पर रखके किसी भी विषय का विश्लेषक बन जाता है.
किताबों में विश्लेषक होने के बड़े फायदे बताए गए हैं… विश्लेषण करने से नींद अच्छी आती है..खाना सही समय से पचता है… भले आपके विश्लेषण से किसी की नींद उड़ जाए… विश्लेषण करने से रक्त संचार ठीक रहता है भले आपकी बातें पढ़कर किसी का खून सुख जाए!
यही कारण है कि हमारा भारत आज एक विश्लेषक प्रधान देश है. हमने इन विश्लेषकों के लिये चुनाव पैदा किये हैं… और चुनावों के लिए विश्लेषक…
जरा सा हम फेसबुक से ट्विटर और ट्विटर से इंस्टाग्राम पर आते हैं तो देखते हैं कि यहां नाना किस्म के अतिरिक्त विश्लेषक उग गए हैं.
कल जो गांव की चट्टी पर बैठा-बैठा दांत खोदता था… वो फेसबुक पर आकर किम जोंग वाली मिशाइल कि विशेषता बता रहा है. ये अलग बात है कि उसने डर के मारे आज तक दीवाली में एक छुरछुरिया भी नहीं जलाई!
इधर एक विश्लेषक सिलेंडर भरवाने के लिए बीबी से ताना सुन रहा हो लेकिन चाय की दुकानों पर अपनी गर्दन और हाथों को एक नाजुक अदा के साथ घुमाकर ये बताना नहीं भूलता कि ट्रम्प के उभार से मानवता अभी आइसीयू भर्ती है और उसे आक्सीजन देने की जरूरत है.
सोशल मीडिया ने सबको अंतरराष्ट्रीय विश्लेषक बना दिया है. आप एक मध्यमवर्गीय विश्लेषक हैं तो कोई बात नहीं. आपकी औकात भले मोहल्ला सभा, नगरपालिका और नगर परिषद के चुनावी विश्लेषण की हो लेकिन आप किसी चाय की दुकान पर खड़े होकर जोर से चिल्ला सकते हैं कि इस बार चुनाव में ईवीएम हैक कर ली गयी थी… और ब्लूटूथ से सिर्फ ईवीएम ही नहीं हमारे मुंह वाले टूथ को भी हैक किया सकता है।
आपको अपने शहर में धनिया का रेट पता नहीं हो… लेकिन विश्लेषक होने के फायदे ये है कि आप महंगाई के विषय में निबन्ध लिख कर पांच सौ लाइक आसानी से कमा सकते हैं.
आज जिसको पता नहीं कि कल मैंने साबुन लगाया या नहीं वो बता सकते हैं कि विराट कोहली की शादी में टेंट-सामियाना और कुर्सी कहाँ से आई थी और आगे इस देश की कुर्सी पर कौन देर तक राज करेगा.
मित्रों- जीवन में चुनाव से बचिए या मत बचिए, ठंड से बचिए या मत बचिए… इस विश्लेषण और विश्लेषकों से बचना सबसे जरूरी है!
Web Title: Election-Selection in Life and its Analysis, Atul Kumar Rai
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