देखते ही देखते ही आज हॉस्टल खाली हो गया है. लड़के घर जा रहे हैं. कोई असम जाएगा.. कोई बंगाल, कोई जाएगा सिक्किम… पता चला है नेपाल वाला तो यार परसों ही चला गया!
उसको देखो जरा… उसे तो पक्का दिल्ली वाली दीदी के यहाँ रुक जाना है.. और ये, इसका न पूछो मित्र.. ये तो जालंधर वाली बुआ के घर जाएगा.
अच्छा इन फलाना जी से मिले आप? ये परसों पटना जाएंगे और वहाँ से बेगूसराय. अब क्यों जाएंगे सबके अलग-अलग कारण हैं!
सो बैग की पैकिंग चल रही है… पैकिंग के चक्कर में कमरे के सामान इधर से उधर हो चूके हैं… किसी को नया जूता नहीं मिला है.. तो किसी के पापा ने पैसा ही नहीं भेजा.. किसी का टिकट कन्फर्म नहीं हुआ.. किसी की गर्लफ्रेंड नाराज है कि “होली में रंग लगावोगे कि नहीं जानू”?
इधर जानू बेचारा परेशान है कि सेकेंड सेमस्टर में जो बैक लगा है. उसका वर्णन अपने पिताजी के सामने छायावादी भाव में करेगा या भक्ति भाव में. और माताजी से किस अंदाज में कहेगा कि “मम्मी एंसिएंट हिस्ट्री वाले पेपर के दिन मैं किसी के मॉडर्न ज्योग्राफी में उलझा था.”
इधर मैं सबसे बाहर कुर्सी पर बैठकर बलिया जाने वाली ट्रेन का टाइम टेबल याद करते हुए फगुआ सुन रहा हूँ..जिसमें एक गायक गाते हुए बता रहे हैं कि…
“ना अइलें हो ना अइलें
सजनवा फागुन में ना अइलें”
हाय! रे विरह… 2018 में भी वही हाल है..जा ए सजनवा…
सजनवा जरूर नवेडा में खिचड़ी खाकर डबल ड्यूटी कर रहे होंगे.. नहीं करेंगे तो अप्रैल में साली का बियाह है.. मेहरारु को झुमका कैसे बनवाएंगे?
सहसा दिमाग में ये बात आती है कि हॉस्टल छोड़कर होली मनाने कोई कहीं भी जाए… देश के किसी कोने में पहुंच जाए… हर त्यौहार उस स्थान विशेष की देश-काल और परिस्थिति से प्रभावित हो ही जाते हैं.
तभी तो देखिए न, अवध की होली के रंग में अभी भी राम हैं, तो ब्रज की होली में कृष्ण… काशी की होली महादेव और पार्वती की डोली है और धुर भोजपुरिया बेल्ट में अभी भी गरीबी, पलायन और विरह के भाव.
हाँ सबके रास्ते भले ही अलग हों, लेकिन मंजिल एक है.
और वो है
होली का त्यौहार..
हम होली यूपी में खेलें या बिहार में या फिर बंगाल में… उसके मूल में आनंद है.. हम रंग अवध वाला लगाएं या ब्रज वाला या फिर काशी वाला सबके भीतर एक उत्साह है.. ऋतु परिवर्तन की सुवास है.. जाड़े रूपी जड़ता के जाने की घोषणा है.
हर जगह एक आध्यत्मिक पुट है… जिसके भीतर छिपा है वो गोपिका रूपी सांसारिक रंग जो कृष्ण रूपी दैवीय रंग से मिलकर इस भव से पार हो जाता है… और हमें लोक की खूबसूरती का एहसास कराता है.
इसमें घुली महादेव नाम की बनारसी मस्ती जो काशी में आकर और गाढ़ी हो जाती है. और हमें बताती है कि काशी मस्ती का पर्याय यूँ ही नहीं है.. इसके मूल में ही परमानंद शिव हैं.
और इसी रंग में रंगा है अवधी होली का वो सात्विक रंग, जो अवध किशोर के नाम से ही चमकने लगता है..और उसका तेज हमें बताता है कि राम जन-जन के मन-मन में हैं…कुछ इस तरह..
“आजु अवध के अवध किशोर,
सरयू जी के तीरे खेलैं होली”
यहाँ बात अवध की आ गई है, तो सहसा नाता अवध किशोर से जुड़ गया है.
अवध की होली को हम देखते हैं तो पाते हैं कि अवध में होली गीतों की एक बहुत समृद्ध परंपरा है.
इसकी गवाही हमें अवध के मठ-मंदिरों के जगमोहन से मिलती है. कहते हैं कि वैष्णव परंपरा के उपासकों की प्रमुख पीठ कनकभवन में बसंत पंचमी के बाद से ही प्रत्येक मंगलवार एवं एकादशी को फाग की विशेष महफिल सजती है..और खूब आनंद होता है.
वहीं गर्भगृह में विराजमान मझले सरकार के विग्रह को जगमोहन में प्रतिष्ठित किया जाता है और भक्त उनके सम्मुख अबीर-गुलाल अर्पित करने के साथ फाग की मस्ती में डूबते हैं.
उधर बगल में ही बजरंगबली की प्रधानतम पीठ हनुमानगढ़ी में होली के पांच दिन पूर्व ही आमलिकी एकादशी से होली शुरू हो जाती है..
इस तिथि को बड़ी संख्या में नागा साधु रंग-गुलाल उड़ाते हुए पंचकोसी परिक्रमा करते हैं. इस परिक्रमा से ही अयोध्या में होली की अलख जगती है और बड़े ही मनोरम अंदाज में गाया जाता है..
“केकरे हाथे कनक पिचकारी,
केकरे हाथ अबीरा,
अवध मां होली खेलैं रघुवीरा.
कई जगह सुनने के बाद पता चला कि अवध के फगुआ में बस राजा रामचन्द्र तो हैं ही. ऋतु परिवर्तन का संदेशा भी है… जैसे-
चढ़त फगुनवा बउर गए अमवा अउर महुआ,
झूम-झूम गांवय सब मगन फगुआ.
Holi Celebration In Awadh (Pic: nationalgeographic)
वहीं हम जब अवध से ब्रज में आते हैं तो देखते हैं कि… ब्रज की होली में आते-आते गीत बदल जाते हैं. भाव भी लेकिन उसमें छिपा आनंद कभी नहीं बदलता!
“फाग खेलन आए हैं नटवर नंद किशोर”
“आज विरज में होली रे रसिया”
“होली खेल रहे बांके बिहारी आज रंग बरस रहा”
यहाँ पता चलता है कि ब्रज में नवमी के दिन राधारानी के बुलावे पर नंदगांव के हुरियारे जहां बरसाना में होली खेलने जाते हैं, वहीं बरसाना के हुरियारे नंदगांव की हुरियारिनों से होली खेलने दशमी के दिन नंदगांव आते हैं. तब नंद चौक पर होली के रसिया गायन के बीच धमाधम लठमार होली होती है.
नंदगांव की टोलियां जब पिचकारियां लिए बरसाना पहुंचती हैं तो उन पर बरसाने की महिलाएं खूब लाठियां बरसाती हैं. पुरुषों को इन लाठियों से बचना होता है और साथ ही महिलाओं को रंगों से भिगोना होता है. नंदगांव और बरसाने के लोगों का विश्वास है कि होली का लाठियों से किसी को चोट नहीं लगती है. अगर चोट लगती भी है तो लोग घाव पर मिट्टी मलकर फिर शुरू हो जाते हैं. इस दौरान भांग और ठंडाई का भी खूब इंतजाम होता है.
खास बात यह है कि ग्वाले बरसाने या नंदगांव में यूं ही होली खेलने नहीं जाते. बकायदा उन्हें होली खेलने के लिए आने का निमंत्रण दिया जाता है.
राधारानी की सखी के रूप में बरसाना की हुरियारिन परम्परागत तरीके से नंदगांव में कान्हा से होली खेलने के लिए हांडी में गुलाल, इत्र, मठरी, पुआ आदि मिठाई लेकर निमंत्रण देने नंदभवन पहुंचती हैं. वहां उनका होली का निमंत्रण स्वीकार करते हुए समाज के लोगों को जानकारी दी जाती है. नंदभवन पहुंची सखियों से होली का निमंत्रण मिलने पर समाज के हुरियारे उनका जोरदार स्वागत करते हैं.
Holi Celebration In Braj (Pic: ibitimes)
अवध से ब्रज और ब्रज से काशी हम जैसे ही आतें हैं, हम पातें हैं कि होली का रंग फ़िर एक बार बदल गया है..राम और कृष्ण की जगह अब शिव ने ले लिया है.
शिव शंकर खेलत फाग
गौरा संग लिए..
खेले मसाने में होली दिगम्बर
खेले मसाने में होली..
अजबे बनल नवरंगा बनारस
अजबे बनल नवरंगा..
कहतें हैं..यहां होली फागुन शुक्ल एकादशी से शुरु हो जाती है, जिसे रंगभरी एकादशी और आमलकी एकादशी के नाम से भी जाना जाता है. रंगभरी एकादशी 26 फरवरी को थी.
इस एकादशी के अवसर पर काशीपुराधिपति देवों के देव महादेव बाबा विश्वनाथ को दूल्हे के रूप में सजाया जाता है और मां गौरा का गौना करवाया जाता है. इस पारंपरिक उत्सव में इस साल बाबा विश्वनाथ खादी से बना वस्त्र धारण करेंगे.
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, रंगभरी एकादशी के दिन भगवान शिव माता पार्वती से विवाह के बाद पहली बार उन्हें काशी नगरी लाए थे. इस पर्व मे शिवजी के गण उन पर व समस्त जनता पर रंग अबीर गुलाल उड़ाते, खुशियां मानते चलते हैं. काशी के विश्वनाथ मंदिर की गली में इस दिन जो भी गया वह रंग में सराबोर हो जाता है. इस दिन बाबा अपने भक्तों के साथ अबीर-गुलाल से होली खेलते हैं. पूरा काशी इस दिन हर-हर महादेव के नारे और अबीर गुलाल से सराबोर रहता है.
जिस तरह ब्रज में होलाष्टक से होली की शुरुआत हो जाती है, उसी तरह वाराणसी में एकादशी के दिन से होली की शुरूआत होती है.
Holi In Kashi (Pic: antilogvacations)
इस तरह ये विविध रंग देखकर ये एहसास होता है कि आदमी कहीं का रहे किसी देश, प्रदेश, भाषा, रीति-रिवाज को मानें… लेकिन आनंद और सुख महसूसने की जो भाषा है वो बस एक ही है.
शर्त ये है कि आदमी न्यूयार्क रहे या नागपुर..दिल्ली जाए या जालंधर. या फिर चम्पारण, बेगूसराय… या फिर काशी रहे या न रहे.. जहाँ भी रहे अपनी आत्मा रूपी जड़ को अवध,ब्रज और काशी की जड़ों से जोड़ ले.
जीवन की तमाम आपाधापी के बीच अपने अवचेतन में इन प्रेम के रंगों को समाहित कर ले. बस उसी पल होली है
और कुछ करें या न करे इन रंगों को गाढ़ा जरूर करता रहे, क्योंकि ये रंग साधारण नहीं हैं. इन्हीं रंगों से इस मशीनी जीवन में हुलास बचा है.
इन्हीं के कारण हम तनाव रूपी गर्मी, मुसीबत रूपी बारीश और दबाब रूपी जाड़ा झेल जातें हैं, ताकि एक दिन उमंगों का बसन्त होली लेकर आएगा… और दुख को मिटाकर जीवन को खुशियों के रंग से रंग देगा.
जिस दिन हम प्रेम उत्साह और आनंद के रंग से भर जाएंगे, उसी दिन असली होली होगी.
Web Title: Holi in Braj, Awadh and Kashi, Atul Kumar Rai
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