समलैंगिकता!
यह शब्द सुनते ही दिमाग में उन लोगों की छवि बनने लगती है, जिन्हें समाज में सामान्य नहीं माना जाता है. इन लोगों के प्रति हमारा सामान्य नजरिया यही है कि ये लोग कुछ अलग हैं. उनके अलग होने को एक विकृति माना जाता है.
किन्तु, अब ऐसा नहीं है. अभी हाल ही में आए सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले ने समलैंगिकों को आम लोगों की तरह सामान्य करार दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने वयस्क समलैंगिकों के बीच आपसी सहमति से बने संबंधों को गैरकानूनी मानने वाली धारा '377' को समाप्त कर दिया है.
ऐसे में इस कानूनी संघर्ष के पूरे सफ़र पर नजर डालना दिलचस्प होगा…
क्या कहता है समलैंगिकता का इतिहास
इससे पहले कि हम धारा 377 की समाप्ति के कानूनी सफ़र में जाएं, समलैंगिकता के ऐतिहासिक और वैश्विक पहलुओं पर नज़र डालना जरूरी है. इससे हमें समलैंगिकों की संवेदनाओं और वर्तमान के फैसले को समझने में आसानी होगी.
अगर हम इतिहास उठाकर देखें तो पता चलता है कि प्राचीन समय में ऐसी अनेक सभ्यताएं हुईं, जहां समलैंगिकता को अपराध या विकृति के रूप में नहीं देखा जाता था.
इसमें सबसे पहला स्थान प्राचीन रोम का आता है. असल में इजरायल के जुडेन रेगिस्तान में 11 हजार साल पुराना एक आर्टवर्क मिला है. इस आर्टवर्क में उस समय के रोमन शासक हाद्रियान और उनके प्रेमी एन्टीन्योस के बीच स्थापित समलैंगिक संबंधों का वर्णन मिलता है. इससे पता चलता है कि उस समय के रोमन समाज में समलैंगिकता कोई विकृति नहीं थी.
वहीं ऐतिहासिक स्त्रोतों से पता चलता है कि मेसोपोतामिया में भी समलैंगिकता को मान्यता मिली हुई थी. प्राचीन यूनान में तो इसे कला, बौद्धिकता और नैतिक गुण के रूप में देखा जाता था. यूरोप में जब पुनर्जागरण हुआ तो इससे जुड़े कई विचारक, कवि, दार्शनिक, लेखक और राजनीतिक कार्यकर्ता खुद को ‘गे’ कहते थे.
प्राचीन यूनान के देवताओं होरेस और सेठ को भी ‘गे’ कहा जाता था.
वहीं अगर हम भारतीय इतिहास की बात करें तो समलैंगिकता के सामान्य होने के प्रमाण हमें अनेक जगहों से मिलते हैं. इसके प्रमाण न केवल हमें बारहवीं और चौदहवीं शताब्दी के बीच पुरी और तंजोर के मंदिरों की दीवारों पर बने चित्रों में मिलते हैं बल्कि प्राचीन ग्रंथों में भी इसका वर्णन साफ तरीके से किया गया है. कामसूत्र का नाम इसमें सबसे पहले आता है.
आधुनिक समय की बात करें तो नीदरलैंड ने सबसे पहले सन 2000 में समलैंगिकता को कानूनी मान्यता प्रदान की थी. उसके बाद से कई अन्य देशों ने भी अपने यहाँ यह कदम उठाया. इन देशों में बेल्जियम, कनाडा, नार्वे, पुर्तगाल, जर्मनी इत्यादि का नाम प्रमुख है.
धारा 377 की समाप्ति कानूनी सफर
बहरहाल, अब हम भारतीय पुलिस कोड की धारा 377 और इसके असंवैधानिक घोषित होने के पहलू पर आते हैं. असल में यह धारा 1861 में ब्रिटिश साम्राज्य ने विक्टोरियन नैतिकता के तहत लागू की थी. यह धारा कहती है कि किसी वयस्क पुरुष द्वारा पुरुष, स्त्री या पशु के साथ निजी तौर पर ‘परस्पर सहमति से किया गया अप्राकृतिक यौनाचार’ अपराध है.
इस धारा के खिलाफ सबसे पहली कानूनी लड़ाई 1994 में शुरू हुई. इस वर्ष 'एड्स भेदभाव विरोधी आन्दोलन' नाम के गैर-सरकारी संगठन ने इसके खिलाफ याचिका डाली. असल में इसी साल तिहाड़ जेल की तब की सुप्रीटेंडेंट किरण बेदी ने स्वास्थ्य कर्मचारियों द्वारा जेल के पुरुष कैदियों को कंडोम वितरित करने से रोक दिया था. खैर, इस याचिका हो नकार दिया गया.
इसके बाद असली संघर्ष नाज़ फाउंडेशन द्वारा 2001 में शुरू किया गया. इसने इस साल दिसंबर में दिल्ली हाईकोर्ट में धारा 377 के खिलाफ केस दर्ज किया. असल में इससे पहले लखनऊ में पुलिस ने कुछ ऐसे गैर-सरकारी संगठनों पर केस दर्ज किया था, जो समलैंगिक क्लब्स चला रहे थे. इनमें से एक संगठन नाज़ फाउंडेशन भी था.
खैर, दिल्ली हाई कोर्ट ने नाज़ फाउंडेशन की याचिका को अमान्य करार दे दिया.
आगे जब देश में समलैंगिक आन्दोलन तेज हुआ और विभिन्न गैर-सरकारी संगठनों ने धारा 377 को समाप्त करने पर जोर डाला, तब सुप्रीम कोर्ट ने अप्रैल 2006 में हाई कोर्ट ने याचिका को दोबारा सुनने का आदेश दिया. आगे दिल्ली हाईकोर्ट ने 2009 में धारा 377 को असंवैधानिक करार दिया. हाई कोर्ट के इस फैसले के विरूद्ध कुछ लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में रिव्यू पिटीशन लगाई.
इस पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले को पलट दिया. इस फैसले पर देश भर में जगह-जगह विरोध प्रदर्शन हुए. इसके तुरंत बाद नाज़ फाउंडेशन ने सुप्रीम कोर्ट में रिव्यू पिटीशन दाखिल की.
इस बीच सुप्रीम कोर्ट की तरफ से दो फैसले ऐसे आए, जिन्होंने धारा 377 के खिलाफ चल रहे संघर्ष को मजबूती दी. पहला फैसला 2015 में आया, जब सुप्रीम कोर्ट ने ट्रांसजेन्डर को तीसरे लिंग के रूप में पहचाना और दूसरा फैसला 2017 में आया.
इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार को नागरिकों का मूल अधिकार घोषित किया. इस प्रकार समलैंगिकता पर मानवाधिकार के दृष्टिकोण से नयी बहस शुरू हुई धारा 377 को इसी आधार पर समाप्त कर दिया गया.
सेक्स उद्योग और धारा 377 का संबंध
ये तो था धारा 377 का एक पहलू. वहीं दूसरी तरफ इसका एक दूसरा पहलू भी है. यह पहलू सेक्स उद्योग से जुड़ा हुआ है. कई रिपोर्ट्स का यह मानना है कि इस धारा के होने या न होने से कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता है. इसलिए इसको केवल इस वजह से हटवाया गया है ताकि भारत में कानूनी रूप से समलैंगिक सेक्स उद्योग चल सके. बिलकुल वैसे ही क्लब्स चल सकें, जैसे नाज़ फाउंडेशन ने 2001 में लखनऊ में चलाए थे.
अपने इस तर्क के समर्थन में इन रिपोर्ट्स ने कुछ आंकड़े भी पेश किए हैं. इन आंकड़ों के अनुसार 158 साल पुरानी इस धारा में अब तक केवल 6 केस दर्ज हुए और केवल एक में ही सज़ा सुनाई गई. इससे पता चलता है कि इस धारा के होने या ना होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है.
इन रिपोर्ट्स में यह तर्क भी दिया गया है कि धारा 377 के अनुसार पारस्परिक सहमति से अप्राकृतिक शारीरिक संबंध बनाना अपराध था. लेकिन अगर कोई इस धारा के रहते हुए भी अपने निजी स्थान पर सहमति से अप्राकृतिक संबंध बनाए और किसी भी प्रकार की शिकायत न दर्ज हो, तो ऐसे में किसी को कोई सजा ही नहीं मिलेगी. यही कारण रहा कि 158 सालों में इस धारा के तहत महज 6 केस ही दर्ज हुए.
इस आधार पर इन रिपोर्ट्स का मानना है कि धारा 377 को सिर्फ सेक्स उद्योग को वैध ठहराने और इसके द्वारा अकूत मुनाफा कमाने के उद्देश्य से ही असंवैधानिक करार दिलवाया गया है. खैर, सच्चाई जो भी हो, अभी तथ्य यही है कि धारा 377 रद्द हो चुकी है और अब समलैगिकों को एक साथ परस्पर सहमति से प्यार करने और संबंध बनाने की कानूनी आजादी मिल गई है.
Web Title: Section 377 Is Now Unconstitutional, Hindi Article
Feature Image Credit: Tofugu