आपने भारतीय रेल के जनरल डिब्बे में कभी न कभी यात्रा तो जरूर ही की होगी. आपने यह भी देखा होगा कि जनरल डिब्बों में किन्नरों का एक समूह आता है और यात्रियों से पैसों की मांग करता है. ज्यादातर यात्री तुरंत अपनी जेब से पैसे निकालकर उन्हें दे देते हैं. ऐसा करके वे जल्द से जल्द किन्नरों से पीछा छुड़ाना चाहते हैं.
ठीक ऐसा ही शादियों और बच्चों के जन्म के समय होता है. ऐसे मौकों पर किन्नर आते हैं और लोग जल्द से जल्द शगुन के पैसे देकर उन्हें जाने को कहते हैं. ये किन्नर समलैंगिक लोगों के समूह का हिस्सा हैं. किन्नरों के अलावा इस समूह में ‘गे’, ‘लेस्बियन’ और बाईसेक्सुअल’ लोग भी शामिल हैं.
समलैंगिक समूह में आने वाले व्यक्ति गंभीर सामजिक-आर्थिक भेदभाव सहते हैं. इसकी वजह से उन्हें अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ता है. यह उनके मूल मानवाधिकारों के खिलाफ है. आइए इसको जरा करीब से समझने की कोशिश करते हैं.
रोज सहना पड़ता है सामाजिक भेदभाव
आपने बहुत विरले ही देखा होगा कि कोई व्यक्ति समलैंगिक लोगों से सहजता से बात कर रहा हो, उनके साथ हंसी-मजाक कर रहा हो या फिर उनका दुःख-दर्द बाँट रहा हो. बात करना तो छोड़ दीजिये, कोई उनके आस-पास खड़ा भी नहीं होना चाहता है. ऐसा लगता है कि उनसे स्पर्श भर हो जाने से ही कोई आपदा आ जाएगी.
असल में हमारे सामाज में समलैंगिकता को एक विकृति के रूप में देखा जाता है. लोगों को लगता है कि यह कोई बीमारी है और ऐसे लोग असामान्य हैं, इसलिए इनसे दूर ही रहना चाहिए.
इस भ्रम की वजह से लाखों समलैंगिकों को अपने सामाजिक और निजी जीवन में बेइन्तेहाँ यातनाएं सहनी पड़ती हैं. इसके चलते न जाने कितने परिवार अपने समलैंगिक बच्चों की हत्या कर देते हैं. ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि उन्हें लगता है कि समलैंगिक बच्चे की उपस्थित के कारण समाज में उनकी बदनामी हो रही है.
जब लोगों को पता चलता है कि अमुख व्यक्ति समलैंगिक है, तो वो उसके साथ भेदभाव करने लगते हैं. उन्हें समाज से दूर कर दिया जाता है. ऐसे में समलैंगिक अकेलेपन का शिकार हो जाते हैं और अवसाद उन्हें घेर लेता है. वे खुद समलैंगिकता को एक विकृति मानने लगते हैं और कई बार हताश होकर आत्महत्या तक कर लेते हैं.
वहीं लेस्बियन के लिए तो जिंदगी और ज्यादा कठिन हो जाती है. गाँव देहात में परिवार वाले लेस्बियन को सही करवाने के लिए झाड़-फूंक करने वाले बाबाओं के पास ले जाते हैं. ये बाबा ज्यादातर लेस्बियन को तथाकथित रूप से सही करने के लिए किसी पुरुष के साथ जबरन सेक्स करने के लिए मजबूर करते हैं.
इस तरह न जाने कितने बलात्कार हर वर्ष देश में होते हैं और इनमें परिवार वालों की सहमति होती है. वहीं दूसरी तरफ समलैंगिकों की तथाकथित विकृतियों को सही कारवाने के लिए इन्हें मनोविज्ञानियों के पास भेजा जाता है. ये मनोवैज्ञानिक भी उन्हें तरह-तरह की यातनाएं देते हैं.
इन सब भेदभावों और यातनाओं से बचने के लिए ज्यादातर समलैंगिक अपना घर छोड़कर अपने ही जैसे लोगों के पास भाग जाते हैं. लेकिन इसके बाद भी उनके प्रति समाज का भेदभाव पूर्ण रवैया बिलकुल भी कम नहीं होता है. तरह-तरह के बेहूदा शब्दों से उन्हें चिढ़ाया जाता है. उनके साथ हिंसा की जाती है.
उनके आत्सम्मान को ठेस पहुंचाई जाती है. इन सबकी वजह से उनके आत्मविश्वास में कमी आ जाती है. फिर वे कुछ भी रचनात्मक नहीं कर पाते हैं. ज्यादातर समलैंगिकों को असामान्य मानकर विद्यालयों से निकाल दिया जाता है. इस तरह समाज हर रोज न जाने कितनी प्रतिभाओं का दमन करता है.
आर्थिक भेदभाव भी कम नहीं है
जैसा कि हम सब जानते हैं कि किसी भी व्यवस्था में सामाजिक और आर्थिक पहलू एक-दूसरे में गुंथे हुए होते हैं. इस प्रकार जितना भेदभाव समलैंगिकों को सामजिक रूप से सहना पड़ता है, उतना ही भेदभाव उन्हें आर्थिक रूप से भी सहना पड़ता है. कुल-मिलाकर उन्हें दोहरी मार पड़ती है.
ज्यादातर समलैंगिकों को उनके घर से निकाल दिया जाता है. ऐसे में वे आर्थिक रूप से बहुत कमजोर हो जाते हैं. उनके पास न तो रहने का कोई ठिकाना होता है और न ही अपना खर्च चलाने के लिए रोजगार. ऐसी स्थिति में वे छोटे-मोटे काम करके अपना गुज़ारा करते हैं. इन कामों से उन्हें बहुत कम कमाई होती है.
विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में ऐसे समलैंगिकों की मासिक आय केवल 70 डॉलर है.
वहीं अगर वे किसी तरह रोजगार पा भी लेते हैं, तो उनके लैंगिक रुझान की वजह से उनकी नौकरी जाने का खतरा दूसरों के मुकाबले बहुत अधिक होता है. विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार भारत में केवल 65 प्रतिशत समलैंगिकों को सिर्फ छह महीनों के बाद नौकरी से निकाल दिया जाता है.
इसके साथ ही उनकी पगार भी उनके ही पद पर काम करने वाले सहकर्मी से कम होती है. इस तरह से देश में समलैंगिक समूह आर्थिक रूप से भी बहुत ही ज्यादा पिछड़ा हुआ है.
धारा 377 की समाप्ति और बदलाव
जैसा कि हम सबको मालूम है कि बीते 6 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 को समाप्त कर समलैंगिकों के बीच आपसी सहमति से बनने वाले वाले संबधों को कानूनी करार दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला मानवाधिकारों के आधार पर लिया है और समलैंगिकों को बाकी नागरिकों की तरह सामान्य बताया है.
ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि समलैंगिकों के प्रति समाज का रवैया बदलेगा और वे पूरे आत्सम्मान के साथ जी सकेंगे.
हाँ, यह बात भी सही है कि इस बदलाव को आने में अभी काफी समय लगेगा. कोई भी सामाजिक बदलाव केवल कानून बनने से नहीं हो जाता है. इसके लिए कानून के साथ-साथ सामाजिक चेतना भी जरूरी होती है. इतिहास भी हमें यही बताता है.
गुलामी प्रथा से लेकर सती प्रथा को खत्म होने में एक लंबा समय लगा. एक वक्त पर इन मानवद्रोही प्रथाओं को सामान्य माना जाता था, जैसे आज समलैंगिकों के प्रति भेदभाव को सामान्य माना जा रहा है.
ये लड़ाई अभी लंबी है. समलैंगिकों के प्रति भेदभाव और पूर्वाग्रह की जड़ें समाज में बहुत गहरी जमीं हुई हैं. इनको उखाड़ फेंकने में अभी बहुत शक्ति और समय लगेगा. सुप्रीम कोर्ट ने इसकी शुरुआत कर दी है. अब बारी हमारी है. यह अब हमारी जिम्मेदारी है कि हम समलैंगिकों के साथ मनुष्यों की तरह ही बर्ताव करें. हम उनसे लड़ें, शिकातें करें और उनके साथ हँसे, लेकिन बस उनका बहिष्कार न करें.
Web Title: Life Of Homosexuals Is A Nightmare, Hindi Article
Feature Image Credit: The Daily Beast