18वें एशियाई खेलों का तीसरा दिन. भारत में शायद ही किसी घर के टीवी पर इन खेलों का लाइव प्रसारण देखा जा रहा होगा. पर उस दिन जो हुआ वह देखने लायक था. निशानेबाजी की प्रतियोगिता चल रही थी.
अलग-अलग देश के खिलाड़ी अपनी तमाम ऊर्जा जुटाकर निशाने पर आंखें लगाए हुए थे. एक के बाद एक रायफल से गोली निकली और निशाने के ठीक नजदीक जाकर लगी. जो सांसे गोली के निकलने के साथ थमी थीं. वह उसके निशाने तक पहुंचते-पहुंचते छूट गईं! इसके बाद आखिरी में खड़े एक साधारण सी डील-लौड वाले 'बच्चे' की बारी आई.
उसने निशाने पर एक बार गौर किया, माथे पर कोई शिकन नहीं, चेहरे पर सामान्य से भाव और बिना किसी तनाव के रायफल से गोली को आजाद कर दिया. शायद उसे पता था कि गोली निशाने पर ही लगेगी. जैसे ही गोली ने अपना निशाना छुआ, पूरा हॉल तालियों से गूंज गया, क्योंकि वह 'बच्चा' सबका 'बाप' निकला!
हम बात कर रहे हैं महज 16 साल की उम्र में एशियाई खेलों में अपनी निशानेबाजी से भारत को उसका हक, उसका 'गोल्ड' दिलाने वाले सौरभ चौधरी की. सौरभ ने पुरुषों के 10 मीटर एयर पिस्टल इवेंट में 240.7 अंक लेकर भारत को सोने से रंग दिया है. सौरभ पेशे से निशानबाज नहीं है, बल्कि एक किसान पारिवार का साधारण सा बेटा है.
लिहाजा उसकी जीत असाधारण हैं, इसलिए आइए जानने की कोशिश करते हैं कैसे सौरभ ने यह मुकाम पाया—
निशानेबाजी के लिए कर दिया था अनशन
देश को सोना दिलाने वाले सौरभ ने बीते दो साल पहले ही निशानेबाजी प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेना शुरू किया है पर वह आज तक जहां भी गए वहां से पदक लेकर ही लौटे. इतने कम समय में, थोड़े से प्रशिक्षण के साथ एशियाई खेलों में ऐसा प्रदर्शन करना किसी आश्चर्य से कम नहीं हैं. उनकी जीत पर आज भारत सरकार पैसे लुटा रही है. नौकरियों के आॅफर मिल रहे हैं पर एक वक्त वो भी था जब सौरभ ने खेतों में काम करने के अलावा कोई और बड़ा सपना संजोया ही नहीं था.
सौरभ के पिता आज उसकी सफलता से गदगद हैं पर एक वक्त था जब वही उसकी राह का रोडा बने थे. उत्तरप्रदेश के मेरठ जिले के कलीना गांव में रहने वाले सौरभ के पिता जगमोहन चौधरी पेशे से किसान हैं.
उनके पास अपने बाप—दादाओं की बची हुई जमीन है, जिस पर अनाज उगाकर वे अपना और परिवार का पेट पाल रहे थे. जब सौरभ का जन्म हुआ तक किसी ने यह नहीं सोचा कि उसे किसानी के अलावा भी कुछ करना होगा. खुद जगमोहन कहते हैं कि हमने सोचा था कि उसे थोड़ा पढाएंगे और इसके बाद यदि नौकरी लगी तो ठीक नहीं तो यही मेरे साथ खेतों में काम कर लेगा.
सौरभ के घर में उसकी मां के अलावा बड़ा भाई और बहन भी हैं. जगमोहन ने अपनी किसानी से हुई आमदनी का आधा हिस्सा बेटी साक्षी की शादी में खर्च कर दिया था. अब तो घर पर जैसे-तैसे चलता आ रहा था.
इस बीच सौरभ को पड़ोस में खेलने वाले बच्चों के पास खिलौने वाली रायफल देखने मिली. वे लोग दीवार पर निशान बनाकर उस पर निशाना साधने की कोशिश करते थे. सौरभ भी इस खेल में शामिल हो गया.
पहले तो जीतने वाले बच्चे को एक या दो रुपए मिल जाते थे पर सौरभ ने खेल को खेल के तरीके से खेला. खिलौने वाली रायफल हाथ में लेकर वह यह सोचता था कि एक दिन असली रायफल चलाएगा.
आमतौर पर हमारे परिवारों में लडके बंदूक से ही खेला करते हैं. वे सपना देखते कि सिपाही बनने का या पुलिस में जाने का लेकिन सौरभ ने सपना देखा निशानेबाज बनने का. जगमोहन को याद है कि जब वह कक्षा 8 में पढ रहा था तब उसने अपने पिता से असली रायफल की मांग की और कहा कि निशानेबाजी सीखना है. पिता की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि वे उसका महंगा शौक पूरा कर पाते तो बहना बना दिया कि किसान के हाथों में हल अच्छा लगता है रायफल तो बड़े लोगों का शौक है.
पर सौरभ कहां मानने वाला था. कुछ दिन भूखे रहा, रोता रहा, जिद की आखिर परिवार वाले मान गए. लेकिन केवल निशानेबाजी की कोचिंग के लिए. यानि रायफल लाना अब भी चुनौती भरा काम था.
अभ्यास के साथ-साथ करते रहे खेती
पिता को खेती से ज्यादा किसी और फील्ड के बारे में खास जानकारी नहीं थी. बड़ा भाई भी पिता का हाथ बंटा रहा था इसलिए सौरभ ने खुद अपने कोच की तलाश की. साल 2015 में उसने अमित शेरोन अकादमी में निशानेबाजी सीखना शुरू किया. हालांकि इसके पहले ही सौरभ अपने इलाके में मशहूर हो चुका था.
दरअसल वह जब भी गांव में लगने वाले मेलों में जाता था तब वहां गुब्बारों में निशाने लगने वाले खेल में हमेशा जीतकर आता था. बदले में भी चॉकलेट तो कभी लंच बॉक्स मिल जाता और घरवाले खुश हो जाते. कुल मिलाकर तब तक किसी ने नहीं सोचा था कि निशानेबाजी बच्चे का करियर विकल्प भी हो सकता है.
सौरभ के पहले कोच अपने अमित. जिन्होंने उसके जज्बे को देखकर प्रैक्टिस के लिए अपनी रायफल दे दी. साल 2015 में पहली बार सौरभ ने असली रायफल हाथ में ली थी. वह चाहता था कि एक दिन ऐसी ही उसकी अपनी रायफल हो, अपना निशाना हो. पिता ने प्रैक्टिस की अनुमति तो दे दी थी पर साफ कह दिया था कि उसे खेती में भी उतना ही हाथ बंटाना होगा.
अब सौरभ की दिनचर्या कुछ ऐसी हो गई कि वह सुबह उठकर घर से 25 किमी दूर रायफल कोचिंग में, फिर स्कूल और फिर खेत. यानि प्रैक्टिस के लिए न तो खेती करना छोड़ा और न ही पढाई करना. कोच अमित ने सौरभ की काबलियत का हमेशा सम्मान किया. उन्होंने उसे पहली बार प्रतियोगिता में उतारा.
पिता ने रायफल के लिए खर्च कर दी जमापूंजी
अमित से शुरूआती कोचिंग लेने के बाद सौरभ ने आईएसएसएफ डैब्यू किया और पहली बार साल 2016 में तेहरान में हुई एशियन चैम्पियनशिप में हिस्सा लिया. जाहिर सी बात थी कि यहां उन्हें पहली बार अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका मिलने वाला था, सौरभ ने जी जान लगा दी और पदक हासिल किया.
इसके पहले सौरभ ने कुछ जिला और राज्य स्तर की प्रतियोगिताओं में भी हिस्सा लिया था और वह जहां भी गया वहां से जीतकर ही लौटा. खास बात यह रही की इन प्रतियोगिताओं के लिए सौरभ ने अमित की रायफल का ही इस्तेमाल किया.
जब पिता को लगा कि उनके बेटे में कुछ कर दिखाने का जज्बा है तो उन्होंने अपनी बची हुई जमापूंजी से 1 लाख 75 हजार रुपए की एयर रायफल सौरभ को लाकर दी. जिस दिन पिता ने उसे रायफल लाकर दी थी, उनके पास जमापूंजी के नाम पर कुछ नहीं बचा था. तब सौरभ ने वायदा किया कि यही रायफल एक दिन उनका हर कर्ज ब्याज समेत चुकाएगी.
नेशनल लेवल पर आ जाने के कारण सौरभ पर सबकी नजर थी. राज्य सरकार चाहती थी कि वह और अच्छा खेले इसलिए उसे तुगलकाबाद में नेशनल लेवल की ट्रेनिंग के लिए कोच जसपाल राणा के पास भेजा गया. जसपाल बेहद सख्त किस्म के कोच माने जाते हैं पर सौरभ के साथ उनका व्यवहार दोस्ताना रहा. इसकी वजह थी कि सौरभ का ध्यान हमेशा अपने लक्ष्य पर रहा. उसे पता था कि वह केवल निशानेबाजी के लिए बना है इसलिए कोई भी निशाना उससे कभी चूकना नहीं चाहिए.
राणा के प्रशिक्षण का असर यह हुआ कि सौरभ का सिलेक्शन निशानेबाजी की जूनियर वर्ल्डकप प्रतियोगिता में हो गया. जहां उन्होंने जर्मनी में 3 गोल्ड मैडल हासिल किए. इसके बाद सौरभ ने यूथ ओलिम्पिक गोल्ड में भी क्वालिफाई किया.
जब मां ने बंद कर ली थीं आंखें!
राणा की देखरेख में ही सौरभ एशियन गेम्स के लिए सिलेक्ट हुआ. 18वें एशियन गेम्स की निशानेबाजी प्रतियोगिता में सौरभ का अंतिम-2 में मुकाबला जापान के मत्सुदा से था.
चूंकि जापानी निशानेबाज का दो में से पहला शॉट 8.9 पर जाकर लगा था जिससे सौरभ को फायदा हुआ और उन्होंने फाइनल में 240.7 का स्कोर हासिल करते हुए भारत के खाते में गोल्ड लाकर रख दिया.
खास बात यह थी कि जब सौरभ अपना निशाने पर नजरे जमाए हुए थे तो पूरा परिवार उन्हें टीवी पर देख रहा था, सिवाए सौरभ की मां के. वे मुकाबले के दौरान डरी हुईं थी. जब सौरभ 3-4 के स्कोर पर था तो वे कमरे से बाहर चली गईं. आंखें बंद कर ली और भगवान से बेटे की जीत के लिए दुआ करती रही.
मां की प्रार्थना का असर हो या सौरभ की मेहनत का रंग पर जब सौरभ ने सोना जीता तो सारी दुनिया ने उसके लिए तालियां बजाईं. आखिर हो भी क्यों न, सौरभ ने सोना जीतने के साथ ही एशियन गेम्स के इतिहास में गोल्ड जीतने वाले भारत के पांचवें निशानेबाज की जगह हासिल कर ली है. इसके अलावा वे निशानेबाजी प्रतियोगिता में शरीक हुए सबसे कम उम्र के खिलाडी रहे.
सौरभ चौधरी फिलहाल कक्षा 10वीं के छात्र हैं पर उत्तरप्रदेश सरकार ने उन्हें सरकारी नौकरी अभी से आॅफर कर दी है. इसके साथ ही उन्हें सरकार की ओर से 50 लाख रुपए की प्रोत्साहन राशि देने का ऐलान हो चुका है.
इसके साथ ही सौरभ ने अपने पिता से किया गया वायदा पूरा कर दिया है. साथ ही हम भारतीयों की उम्मीदों को भी!
Web Title: Indian Shooter Saurabh Chaudhary's Success Story, Hindi Story
Feature Image Credit: TOI