हम सब जानते हैं कि मानव जाति के पूरे इतिहास में एक से बड़े एक क्रूर शासकों ने राज किया है. उन्होंने अपनी प्रजा पर तरह- तरह के अत्याचार किए हैं. किन्तु, इसी इतिहास में कुछ पल ऐसे भी आए, जब लोगों ने इन क्रूर शासकों के खिलाफ मुक्ति बिगुल बजाया और जनतंत्र की स्थापना की.
मानवाधिकार इसी जनतांत्रिक व्यवस्था का प्रमुख अंग हैं. मानवाधिकार वे अधिकार होते हैं, जो किसी व्यक्ति को मनुष्य होने के नाते मिलते हैं. ये पूरी तरह से प्राकृतिक हैं, इसलिए इन्हें छीना नहीं जा सकता है. बावजूद इसके समय-समय पर देखा गया है कि विभिन्न देशों में मानवाधिकारों का लगातार उल्लंघन हुआ है.
इस स्थिति से निपटने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2006 में मानवाधिकार परिषद का गठन किया. वैसे तो इसको अच्छे निर्णयों के लिए जाना जाता है, लेकिन बीच-बीच में इसने कई ऐसे निर्णय दिए, जिनके ऊपर जमकर हंगामा बरपा!
इन विवादों को केंद्र में रखकर आज यह कहा जाने लगा है कि यह संस्था अपने मूल उद्देश्य से भटक रही है.
ऐसे में जानना समायिक रहेगा कि क्या सच में यह संस्था अपना औचित्य खोती जा रही है-
'राजनीतिक हितों से प्रेरित है परिषद'
अभी हाल में वैश्विक प्रभुत्व रखने वाले देश अमेरिका ने मानवाधिकार परिषद से खुद को अलग कर लिया है. इसके पीछे उसने कारण दिया है कि यह परिषद राजनीतिक हितों से प्रेरित है.
अमेरिका ने कहा है कि यह परिषद इजरायल के खिलाफ पक्षपात पूर्ण निर्णय दे रही है. अमेरिका ने यह भी कहा है कि उसने जिन सुधारों को लागू करने का सुझाव दिया था, उनपर भी इस संस्था ने कोई विचार नहीं किया है.
इससे पहले भी 2006 में अमेरिका ने इस परिषद से खुद को अलग हटा लिया था. उस समय उसका कहना था कि इस संस्था में उन देशों को भी भागीदार बनाया जा रहा है, जिनके ऊपर मानवाधिकार उल्लंघन के गंभीर आरोप हैं.
आगे 2009 में अमेरिका दोबारा से इसका हिस्सा बना.
बताते चलें कि अमेरिका आर्थिक रूप से संयुक्त राष्ट्र में सबसे अधिक सहयोग करता है. ऐसे में इसका खुद को इस परिषद से बाहर निकाल लेना बहुत मायने रखता है. हालाँकि, उसने खुद को अभी संयुक्त राष्ट्र संघ से अलग नहीं किया है.
हमेशा खुलकर रखा भारत ने अपना पक्ष
अमेरिका से पहले अभी हाल में भारत ने भी संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद पर निष्पक्ष ना होने के आरोप लगाए हैं. भारत को बीते कई दशकों से एक उभरती हुई ताकत के रूप में देखा जा रहा है.
इसके साथ ही मानवाधिकार संरक्षण के मामले में भी भारत का रिकॉर्ड भी ठीक- ठाक रहा है.
अगर हमसे कोई गलती हुई है, तो हमारे नेताओं ने समय-समय पर उसकी तरफ इशारा किया है. इन नेताओं में जय प्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया प्रमुख रहे हैं.
बात चाहे कश्मीर की हो या फिर उत्तर- पूर्व की, इन दोनों नेताओं ने हमेशा खुलकर बोला है.
यह बताता है कि हमें मानवाधिकारों के मामले में किसी अन्य देश की हिदायत की जरूरत नहीं है. इसी उद्देश्य से हम मानवाधिकार परिषद में शामिल हुए थे.
असल में अभी हाल में संयुक्त राष्ट्र ने कश्मीर और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में कथित मानवाधिकार उल्लंघन पर अपनी तरह की पहली रिपोर्ट जारी की और इन उल्लंघनों की अंतरराष्ट्रीय जांच कराने की मांग की.
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि पाकिस्तान की तरफ से कश्मीर में विभिन्न प्रकार के हथियारबंद समूह सक्रिय हैं. इन समूहों ने समय-समय पर आम नागरिकों का अपहरण से लेकर हत्या भी की है.
पकिस्तान सरकार लगातार इनसे अपना पल्ला झाड़ती आई है, लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि ये समूह उसी के सरंक्षण में काम कर रहे हैं. इस रिपोर्ट में कहा गया है कि जम्मू- कश्मीर में भारतीय सुरक्षाबलों को सैन्य विशेषाधिकार कानून के तहत छूट मिली हुई है. किसी भी प्रकार का उल्लंघन होने पर उनके ऊपर कार्यवाही नहीं की जाती है.
जारी रिपोर्ट भ्रामक, विपक्ष ने भी की निंदा!
भारत ने इस रिपोर्ट को अपनी संप्रभुता और अखंडता पर हमला बताया है. इसके साथ ही भारत ने कहा है कि इस रिपोर्ट में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्रयोग की जाने वाली शब्दावली का भी उल्लंघन किया गया है.
गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र संघ कश्मीर के लिए भारत प्रशासित कश्मीर और पकिस्तान प्रशासित कश्मीर शब्द का प्रयोग करता है. जबकि, इस रिपोर्ट में पकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के लिए 26 बार ‘आजाद कश्मीर’ शब्द का प्रयोग हुआ है.
वहीँ लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकी संगठनों के लिए इस रिपोर्ट में 38 बार ‘हथियारबंद समूह’ शब्द का इस्तेमाल हुआ है, जबकि संयुक्त राष्ट्र इन दोनों संगठनों को अंतरराष्ट्रीय चरमपंथी समूह मानता है.
इसी आधार पर भारत ने इस रिपोर्ट को भ्रामक भी बताया है. मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने भी इस रिपोर्ट की कड़ी निंदा की है.
वहीँ कश्मीर में मानवाधिकार कार्यकर्ता खुर्रम परवेज ने इस रिपोर्ट का स्वागत किया है. अभी हाल में मारे गए राइजिंग कश्मीर नाम के अखबार के सम्पादक शुजात बुखारी ने भी इस रिपोर्ट को अपने ट्विटर हैंडल से ट्वीट किया था.
कश्मीर जैसी समस्या में कितनी कारगार!
कश्मीर में जिस तरह के हालात हैं, उस समय ऐसी रिपोर्ट क्या वहां की समस्या सुलझा पाएगी!
यह पूरी मजबूती के साथ नहीं कहा जा सकता है, लेकिन जिस तरह की शब्दावली का इस्तेमाल इस रिपोर्ट में हुआ है, उससे केवल आतंकवादी समूहों के हौसले ही बढ़ेंगे. ऐसे में संयुक्त राष्ट्र संघ को इस ओर गौर करना चाहिए.
कश्मीर में जारी जद्दोजहद का सारा दंश वहां के नागरिकों को ही झेलना पड़ रहा है. वे नागरिक चाहें सीमा के इस पार के हों या फिर उस पार के, उनके ऊपर जो बीतती है, वो हम और आप लाख चाहकर भी नहीं समझ सकते हैं.
यह कहा जा सकता है कि कश्मीर में हालात बहुत नाजुक हैं.
वहां सच कई परतों के नीचे दबा पड़ा है. ऐसे में अगर कोई कश्मीर समस्या का निवारण करने की बात सोच रहा है, तो इसे इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह जो बात कह रहा है, उससे कहीं किसी गलत पक्ष को फायदा तो नहीं पहुँच रहा है.
क्योंकि अगर ऐसा होता है तो समस्या का निवारण कभी नहीं हो पाएगा.
अंत में यह कहना मुनासिब होगा कि जिस तरह संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद पर बीते कुछ दिनों में दो बड़े देशों ने आरोप लगाएं हैं, उन पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है.
अन्यथा यह सवाल उठता रहेगा कि क्या संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद अपना औचित्य खो रही है!
Web Title: Is UNHRC Loosing Its Relavance, Hindi Article
Feature Image Credit: aie.md