एक बार की बात है ईश्वर चन्द्र विद्यासागर को उनके एक मित्र ने दावत पर आमंत्रित किया था. जब वे तय समय पर अपने मित्र के यहाँ पहुंचे तो दरवान ने उन्हें अंदर नहीं जाने दिया क्योंकि वे बहुत ही साधारण वस्त्र पहने हुए थे. इसके बाद विद्यासागर अच्छे कपड़े पहनकर वापस आए, तो दरवान ने उन्हें नहीं रोका.
जब भोजन करने का समय हुआ तो विद्यासागर ने खुद खाने की जगह भोजन को अपने कपड़ों पर लगाना शुरू कर दिया. उनके मित्र ने हतप्रभ होकर पुछा कि यह क्या कर रहे हो? विद्यासागर ने उत्तर दिया कि आदमी से ज्यादा कीमत उसके कपड़ों की है, इसलिए मैं कपड़ों को खाना खिला रहा हूँ.
यह छोटी सी कहानी भले ही काल्पनिक हो, लेकिन विद्यासागर ऐसे ही थे. वे किसी भी इन्सान को छोटा या बड़ा नहीं मानते थे. उनके इसी विश्वास ने उन्हें भारतीय इतिहास में एक बड़े समाज सुधारक के रूप में स्थापित किया है. तो आईए उनके बारे में जानते हैं…
बचपन से ही थे मेधावी
ईश्वर चन्द्र विद्यासागर का जन्म पश्चिम बंगाल के मिदनापोर जिले में 26 सितंबर 1820 के दिन हुआ था. इनके बचपन का नाम ईश्वर चन्द्र बंदोपाध्याय था. उनके पिता ठाकुरदास बंदोपाध्याय और माता भगवती देवी बहुत ही धार्मिक व्यक्ति थे. परिवार की आर्थिक हालत बहुत खराब थी.
ईश्वर चन्द्र ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा गाँव की पाठशाला से पूरी की. यहाँ उन्होंने भाषा, व्याकरण, अंकगणित और दूसरे शास्त्रों का अध्यन किया. इस समय तक भी उनके परिवार की आर्थिक हालत जस की तस थी. लेकिन किसी प्रकार उनके पिता उच्च शिक्षा के लिए उन्हें कलकत्ता भेजने में कामयाब हो गए.
कलकत्ता आकर उन्होंने संस्कृत कॉलेज में दाखिला लिया. यहाँ उन्होंने लगातार अपनी मेधा का परिचय दिया. एक के बाद एक परीक्षा उन्होंने अच्छे प्राप्ताकों से पास की. न जाने कितने अकादमिक पुरस्कार उन्होंने यहाँ अपने नाम किए. इस दौरान उन्हें अनेकों शिक्षवृत्तियां मिलीं, जिससे उनकी आर्थिक हालत में बहुत सुधार हुआ.
यह वर्ष 1839 था, जब उन्होंने कानून में स्नातक किया. इस दौरान उन्होंने न जाने कितने विषयों पर गहन अध्यन कर लिया. इसका परिणाम यह हुआ कि कॉलेज ने उन्हें ‘विद्यासागर’ की उपाधि से नवाज दिया. विद्यासागर का मतलब होता है- ज्ञान का सागर.
स्त्रियों की दुर्दशा को देख रहा न गया!
आगे 29 दिसंबर 1841 के दिन वे फोर्ट विलियम कॉलेज के प्रमुख बने. इन दिनों उन्होंने देखा कि समाज में स्त्रियों की हालत बहुत खराब है. स्त्रियों को पढ़ने नहीं दिया जाता है, उनका बचपन में ही विवाह कर दिया जाता है. विधवा हो जाने पर उन्हें घर में कैद कर लिया जाता है. ये विधवा औरतें कैद से छूटकर वेश्या बन जाती हैं. यह सब देखकर उनका ह्रदय द्रवित हो गया.
यही वह समय था जब उन्होंने स्त्रियों के उत्थान के बारे में गंभीरता से सोचना प्रारम्भ किया. इसी क्रम में उन्होंने नारी शिक्षा के लिए विद्यालय खोले. इनमें कलकत्ता का मेट्रोपोलिटन स्कूल प्रमुख था. एक अनुमान के मुताबिक उन्होंने ऐसे करीब 35 विद्यालयों की स्थापना की. विद्यालयों के साथ-साथ उन्होंने नारी शिक्षा और बाल विवाह के विरोध में आन्दोलन भी चलाए.
विद्यालयों के खोले जाने के बाद भी लोग अपनी लड़कियों को पढने के लिए नहीं भेज रहे थे. हालाँकि, ईश्वर चन्द्र इससे निराश नहीं हुए. वे लोगों के घर-घर जाकर लड़कियों को पढ़ने के लिए भेजने का आग्रह करने लगे. इसका परिणाम सकारात्मक निकला और विद्यालयों में स्त्रियों की संख्या बढ़ने लगी.
1851 में वे संस्कृत कॉलेज में प्रोफेसर बने. इस समय समाज में विधवाओं का जीना दूभर होता जा रहा था, तो उन्होंने विधवा पुनर्विवाह के लिए सामजिक आन्दोलन शुरू किया. कहा जाता है कि यह दौर बंगाली पुनर्जागरण का सबसे चरम समय था.
विधवा पुनर्विवाह के साथ-साथ उन्होंने बहुविवाह पर भी चोट की. उस समय पुरुष एक से अधिक महिलाओं से शादी कर लेते थे. इस प्रकार महिलाओं का शोषण होता था. आगे 1856 में विधवा पुनर्विवाह एक्ट पारित हुआ. यह उनके लिए बहुत बड़ी जीत थी.
असल में उस समय विधवा औरतों के लिए नियम था कि उन्हें घर में सबसे पहले उठना पड़ता था. इसके बाद ठन्डे पानी में नहाकर अपने तन पर एक सफेद साड़ी लपेटनी होती थी. अच्छा भोजन खाना उनके लिए मना था. वे पूरे दिन भगवान की पूजा ही करती रहती थीं. और तो और उन्हें किसी से भी मिलने कि मनाही थी. यहाँ तक वे खाना भी सबसे अंत में खाती थीं. यह बहुत अमानवीय था.
मिली धमकियाँ, लेकिन निडर खड़े रहे
विधवाओं को उनका हक़ दिलाना विद्यासागर के लिए बिलकुल भी आसान नहीं था. वे लेख लिखते, सेमिनार करते, सभाएं बुलाते और भाषण देते, लेकिन हर बार सनातन धर्म के ठेकेदार शास्त्रों और पुराणों का बहाना देकर उनकी हर बात को काट देते. लेकिन विद्यासागर भी पीछे नहीं हटे. उन्होंने कहा कि अब समय बदल रहा है. जो अत्याचार औरतों के साथ पहले हुए हैं, उन्हें अब जारी नहीं रखा जा सकता है.
ऐसा करने पर उन्हें कट्टरपंथियों द्वारा जान से मारे जाने की धमकियाँ भी मिलती थीं. लेकिन वे इन धमकियों से कभी डरे नहीं. आगे उन्होंने विधवा पुनर्विवाह के समर्थन में दो विशाल ग्रन्थ लिखे. इसका समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ा. वे विधवाओं के पुनर्विवाह के लिए पूरी तरह से समर्पित थे. इतने ज्यादा कि उन्होंने अपने बेटे की शादी एक विधवा से ही करवाई थी.
ईश्वर चन्द्र विद्यासागर ने केवल स्त्रियों के उत्थान के लिए ही अपना पूरा जीवन होम नहीं किया, बल्कि समाज के वंचित तबकों को भी उन्होंने ऊपर उठाया. उनका मानना था कि सारे मनुष्य एक समान हैं, इसलिए किसी के साथ भेदभाव करना मनुष्यता के खिलाफ है.
उनका यह भी मानना था कि शिक्षा मनुष्य को विनम्र बनाती है और उसके आत्मविश्वास में वृद्धि करती है. इसी सिद्धांत पर चलते हुए उन्होंने अपने विद्यालयों के दरवाजे अछूतों के लिए भी खोल दिए थे. इससे पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था. इस कारण से उनके कई साथी उनसे नाराज हो गए थे. लेकिन विद्यासागर ने उनकी नाराजगी को एक तरफ रखते हुए अपना ध्यान बस मानवता की सेवा में लगाया.
बंगाली पुनर्जागरण के प्रमुख प्रबुद्ध विद्वानों में से एक ईश्वर चन्द्र विद्यासागर का निधन 29 जुलाई 1891 के दिन हुआ. आगे रबीन्द्रनाथ टैगोर ने उनके बारे में कहा कि ऐसे तो भगवान ने लाखों बंगालियों को पैदा किया, लेकिन ईश्वर चन्द्र विद्यासागर भगवान द्वारा पैदा किए गए एकमात्र मनुष्य थे.
Web Title: Ishwar Chandra Vidyasagar: The Biggest Social Reformer Of British India, Hindi Article
Feature Representative Image Credit: Katha Kids