‘आपको ऐसा कोई भी पद स्वीकार नहीं करना चाहिए, जिसके साथ आप पूरा न्याय नहीं कर सकते हैं.’
ये शब्द के. कामराज के हैं जो आज भी अपने सिद्धांतों के लिए याद किये जाते हैं. राजनीति में अकसर जोड़-तोड़ कर ही लिया जाता है. ऐसे मौके बहुत कम देखने को मिलते जब राजनीति में किसी ने अपने सिद्धांतों से कभी भी समझौता नहीं किया हो.
ऐसे शीर्ष लोगों में कामराज का नाम भी आता है, जिन्होंने हमेशा सिद्धान्तिक राजनीति की. ऐसे में भारत में की राजनीति में इस दिलचस्प इंसान के बारे में जानना बेहद दिलचस्प रहेगा.
जानते हैं, तीन बार लगातार मुख्यमंत्री से लेकर कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष रह चुके के. कामराज की कहानी-
अपनी ज़िंदगी के 3000 दिन जेल में बिताने पड़े!
15 जुलाई 1903 को कामराज का जन्म तमिलनाडु के विरदुनगर में हुआ था. उनका परिवार एक एक व्यवसायी था. उनका पूरा नाम कुमारास्वामी कामराज था.
कामराज अपनी किशोरावस्था से ही स्वतंत्रता के लिए होने वाले आंदोलनों में भाग लेने लगे थे. महज़ 15 साल की उम्र में ही वह जलियावाला बाग घटना से प्रभावित होकर स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े.
कामराज महात्मा गाँधी के विचारों से बेहद प्रभावित रहे थे. वो अपने गांधीवादी विचार के लिए भी जाने जाते थे. ऐसे में जब गांधी ने असहयोग आंदोलन की शुरुआत की तब वह 18 साल के थे. जब उन्होंने इस आंदोलन में के बारे में सुना तो तुरंत इसमें भाग लेने के लिए पहुंच गए.
उन्होंने 1930 में हुए ‘नमक सत्याग्रह’ में भी हिस्सा लिया, इसी दौरान वह पहली बार सलाखों के पीछे भी पहुंच गए यानी जेल गए. वे अपने पूरे जीवन काल में 6 बार हिरासत में लिए गए जिसके लिए उन्हें अपनी ज़िंदगी के 3000 दिन जेल में बिताने पड़े.
जेल में हिरासत के दौरान ही वो म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के चेयरमैन के रूप में चुन लिए गए थे. उन्हें कभी किसी पद का लालच नहीं रहा था लिहाज़ा उन्होंने इस पद से इस्तीफा दे दिया.
… और जब अपने प्लान के लिए मशहूर हुए!
कामराज आज़ादी के बाद 13 अप्रैल 1954 को पहली बार मद्रास के मुख्यमंत्री बने. अपने शासन में उन्होंने शिक्षा पर ख़ास तौर पर काम किया. जिसमे उन्होंने मद्रास के हर गांव में प्राइमरी स्कूल और इसके साथ ही हर पंचायत में हाईस्कूल खोलने की योजना चलाई.
ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग शिक्षा प्राप्त करें, इसके लिए उन्होंने 11वीं तक मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा जैसी योजना भी चलाई. उनके इन बेहतरीन योजनाओं का ही फल था कि वो लगातार तीन बार तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बने.
लेकिन साल 1962 में तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने के एक साल बाद उन्होंने इस्तीफा दे दिया. उन्होंने इस्तीफा देकर पार्टी संगठन में रहते हुए आम जनता के बीच में जाकर काम करने का निर्णय लिया.
इसके अलावा, वो प्रधानमंत्री नेहरू के बेहद करीब माने जाते थे. इसी दौरान उन्होंने नेहरु को भी अपने मंत्रियों से इस्तीफा लेकर आम जनता के बीच जाने की सलाह दी. इसके ज़रिये वो आम जनता के बीच जाकर उनकी परेशानियों को समझना चाहते थे.
नेहरु उनकी इस सलाह को मना नहीं कर पाए उन्हें यह सलाह बेहद पसंद आई. जिसके फलस्वरूप, कैबिनेट के बड़े 6 मंत्रियों ने इस्तीफा दे दिया और जनता के बीच जाकर काम करना शुरू कर दिया.
जिससे पार्टी को बहुत फायदा हुआ और कांग्रेस को लोगों का दुख-दर्द लेने वाली पार्टी के तौर पर भी देखा गया. ऐसे में, इस योजना ने भारतीय राजनीति को एक नयी दिशा दी थी जो ‘कामराज प्लान’ नाम से मशहूर हो गयी. आज भी, राजनीतिक पार्टियां जरुरत पड़ने पर कामराज प्लान को अपनाना पसंद करती हैं.
इंदिरा गाँधी और शास्त्री जी को पीएम पद तक पहुंचाया!
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत ने लगभग 16 साल तक नेहरु जी को अपने नेता के रूप में बहुत प्यार दिया. उनकी साल 1964 में अचानक मृत्यु हो जाने के बाद अब सबसे बड़ा सवाल था कि कांग्रेस पार्टी की कमान कौन संभालेगा.
इस पर कुछ नतीजा निकल नहीं पा रहा था और उधर कांग्रेस पार्टी में आंतरिक कलह चल रही थी. खाली हुई कुर्सी पर कई लोग अपनी दावेदारी पेश कर रहे थे जिसमे मोरार जी देसाई और किसान नेता लाल बहादुर शास्त्री भी शामिल थे.
साथ ही पार्टी में वरिष्ठ नेताओं की मौजूदगी की वजह से इंदिरा गांधी को कमान सौंपना काफी मुश्किल था.
ऐसे में, मोरार जी देसाई और लाल बहादुर शास्त्री सत्ता पाने के लिए अपना जोर लगाने लगे. शास्त्री जी को तो नेहरु के प्रिय और ख़ास माना जाता था. जिसकी वजह से उनका नाम ऊपर आ रहा था. वहीं दूसरी ओर देसाई भी पीछे हटने को तैयार नहीं थे. जल्द ही, कामराज के नेतृत्व में बुजुर्ग कांग्रेसियों द्वारा बने गुट सिंडीकेट ने भी शास्त्री जी का समर्थन किया. इसी के साथ वो मोरारजी को पीछे कर प्रधानमंत्री बन गए.
लेकिन साल 1966 में अपने कार्यकाल से पहले ही शास्त्री जी की मृत्यु हो गयी. इस बार खाली हुए पद को मोरारजी देसाई हाथों से नहीं जाने देना चाहते थे.
लिहाज़ा, इस बार उन्होंने सर्वसम्मति की जगह मतदान कराने की बात कही. इस दौरान, कामराज इंदिरा को प्रधानमन्त्री बनाना चाहते थे. लिहाज़ा, उन्होंने इंदिरा के लिए लामबंदी की. जिसमें इंदिरा कांग्रेस संसदीय दल में 355 सांसदों का समर्थन पाकर प्रधानमंत्री बन गईं.
कामराज ने कभी भी प्रधानमंत्री पद का लालच नहीं किया क्योंकि कई बार उन्होंने अपना नाम आगे लाये जाने के बाद भी वापस ले लिया था. उन्होंने ये कहकर इस पद को लेने से मना कर दिया कि, ‘जिस इंसान को न ठीक से अंग्रेजी आती हो और न ही हिंदी, वो इस पद के लिए योग्य नहीं है.’
साल 1967 में चुनाव में कांग्रेस को कम सीटें मिली और खुद कामराज भी अपनी सीट से चुनाव हार गए जिसके बाद उन्होंने पार्टी अध्यक्ष की कुर्सी छोड़ दी. उनके बाद निजलिंगप्पा पार्टी के नए अध्यक्ष बने थे.
खाय बात यह थी कि अभी भी संगठन के अंदर के ज्यादातर फैसले कामराज ही ले रहे थे. हां, वह कांग्रेस पार्टी के विभाजन के बाद वो वापस तमिलनाडु चले गए थे. साथ ही उन्होंने केंद्र की राजनीति से किनारा कर लिया.
अंतत: 2 अक्टूबर 1975 को उनकी हार्टअटैक से मौत हो गई. मरणोपरांत उन्हें भारत रत्न से सम्मानित भी किया गया.
Web Title: K. Kaamraj, A leader Who made Two Prime Ministers, Hindi article
feature Image credit: newindianexpress