महादेवी वर्मा का नाम साहित्य जगत में अविवादित रूप से सबसे ऊपर आता है. वे छायावाद का एक-जाना पहचाना चेहरा थीं. छायावाद एक हिंदी साहित्यिक आन्दोलन था.
महादेवी वर्मा की गद्य और पद्य, दोनों में सामान पकड़ थी. दोनों ही विधाओं में वे समान संवेदनशीलता से रचनाएं करती थीं. उनकी रचनाओं में समाज के शोषित तबके की विरह का वर्णन होता था.
अपनी रचनाओं के जरिये उन्होंने शोषित तबके, खासकर महिलाओं के साथ हो रहे सामाजिक भेदभाव के खिलाफ लड़ाई लड़ी. उन्होंने छद्म सामजिक नैतिकताओं और बंधनों को अपने लेखन से तोड़ा और 'आधुनिक मीरा' के नाम से जानी गईं.
बेड़ियों के युग में बड़ी हुईं
अगर हम करीब से देखें तो 1920 का दशक भारतीय महिलाओं के लिए बदलाव का दशक था. इससे पहले महिलाओं के लिए भारतीय समाज में कोई आजादी नहीं थी. वे पैदा होती थीं, काम करती थीं, बड़ी होती थीं और काम करते-करते ही मर जाती थीं. यही उनकी दुनिया थी. इसी दुनिया को देखते हुए महादेवी वर्मा बड़ी हो रही थीं.
उनका जन्म 26 मार्च 1907 के दिन फरुक्खाबाद, उत्तर प्रदेश में हुआ था. यह वही समय था, जब भारत का स्वतंत्रता संग्राम तेज हो चुका था और हर तरफ हर प्रकार के शोषण से मुक्ति पाने के बिगुल बज रहे थे.
साहित्य के इतिहास में पहली बार प्रेमचंद, टैगोर और शरतचंद जैसे साहित्यकार अपने साहित्य द्वारा औरत को सिर्फ घर तक सीमित कर देने पर प्रश्न उठा रहे थे. पितृसत्ता के ऊपर शुरूआती हमला होने लगा था . इससे पहले भारतीय इतिहास में भक्ति काल में ही सिर्फ ऐसा हुआ था. इसलिए इस समय की तुलना भक्ति काल से भी की जा सकती है.
और अगर भक्ति काल की बात आती है, तो मीरा बाई का नाम उसके साथ चिपका चला आता है. मीरा कृष्ण की उपासक थीं और उनके लिए विष का प्याला तक पी गई थीं. उन्होंने कृष्ण की उपासना में एक से बढ़कर एक रूमानी कवितायें लिखी थीं.
वे एक तरह से कृष्ण की रूमानी उपासक थीं और उन्होंने अपनी कविताओं से कृष्ण की उपासना करने के साथ-साथ सामाजिक नैतिकताओं को भी तोड़ा था. ये नैतिकताएं ऐसी थीं, जो स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व को नकारती थीं और उसे बस एक भोग्या के रूप में देखती थीं. मीरा बाई ने इनके खिलाफ ही विद्रोह का बिगुल फूंका था.
उनकी इसी विरासत को महादेवी वर्मा ने आगे बढ़ाया. महादेवी वर्मा की कवितायें मीरा बाई की कविताओं को आगे बढ़ाती हैं. ये कवितायें रूमानी होने के साथ-साथ रहस्यमयी हैं. इन कविताओं में अपनी पहचान के लिए लड़ रही स्त्रियों की आवाज है.
इन कविताओं के पोर-पोर में अस्तिव की लड़ाई चल रही है. इस लड़ाई को कवियत्री ने झरने, बादल और पेड़-पौधों से उठने वाले कोलाहल से व्यक्त किया है.
आदर्शवादी आन्दोलन की प्रणेता
महादेवी वर्मा का समय विद्रोह का समय था. यह समय आदर्शवाद का समय था. यह साम्राज्यवाद और सामंतवाद के खिलाफ चल रहे युद्ध का समय था. आदर्शवादी इस समय समाज को साफ आसमान की तरह नीला और सुंदर बनाना चाहते थे.
इसी समय को छायावाद का युग कहा गया. इस समय सुमित्रानंदन पंत प्रकृति और जयशंकर प्रसाद पुराने समय की भव्यता को उकेर रहे थे. वहीं निराला पुराने समय के दर्शन और वर्तमान की कड़वाहट के बीच फंसे हुए थे. यह शायद इसलिए था क्योंकि वे यथार्थ को बहुत करीब से समझ रहे थे और आने वाले अपने जीवन के अंत को भी साफ-साफ देख पा रहे थे.
वहीं महादेवी इस समय को एक कैदी की तरह देख रही थीं. यही कारण रहा कि उन्होंने अपनी रचनाओं में बार-बार बंदिनी शब्द का प्रयोग किया है.
इसलिए उनका एक मात्र लक्ष्य इस बंदीगृह से खुद को और अपने जैसे तमाम कैदियों को आजाद करवाना था. इस समय अगर महादेवी वर्मा ने केवल रूमानी और रहस्मयी कवितायें ही लिखी होतीं, तो शायद वे श्री औरबिन्दो की तरह आध्यात्मिक और रहस्यमयी लोगों की श्रेणी में ही फंसकर रह जातीं. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. उनके गद्य में बेबाकी थी.
हालाँकि, बाद में उन्होंने भले ही कुछ वेदों और उपनिषदों के अनुवाद का काम किया, लेकिन उनका साहित्यिक काम कहीं अधिक था. उन्होंने अपने शक्तिशाली गद्य द्वारा सामंती व्यवस्था के कोल्हू में पेरी जा रहीं स्त्रियों की चीखों को शब्द दर शब्द पन्नों पर उकेरकर अपने विद्रोही होने का परिचय दिया.
ऊपर से देखने पर लगता था कि उनके पद्य और गद्य आपस में विरोधी हैं. लेकिन ऐसा था नहीं. उनके पद्य में जो चीज रूमानियत और रहस्यवाद के बीच छिपी होती थी, वही उनके गद्य में सीधे और साफ़ तौर पर दिखती थी. ज्यादातर आलोचक इसे लेकर हमेशा भ्रम में रहे.
स्त्री उन्मूलन की प्रतिबद्ध कार्यकर्ता
महादेवी वर्मा के लिए स्त्री उन्मूलन केवल एक विषयवस्तु नहीं थी. यह उनके लिए एक मिशन था. इसी मिशन के तहत उन्होंने इलाहाबाद में मनीला पीठ नाम का महिला विद्यालय चलाया. इसका एकमात्र उद्देश्य महिलाओं को शिक्षित कर उन्हें स्वावलंबी बनाना था.
उनके स्कूल में हर तरह की स्त्रियाँ आती थीं. जो नहीं आ पाती थीं, वे दूर से ही पढ़ाई करती थीं. अछूत स्त्रियों से लेकर विधवाएं, सब यहाँ कुछ न कुछ सीखती थीं और महादेवी वर्मा को ‘बड़ी गुरुजी’ बुलाती थीं.
महिलाओं को अपनी ही तरह विद्रोही बनाना उनका लक्ष्य था. हालाँकि, पूरे जीवन वे अपने इस आदर्श को जी नहीं पाईं. सत्तर के दशक में उत्तर प्रदेश के हिंदी संस्थान ने उनकी साहित्यिक सेवा के लिए 1 लाख रूपए के पुरस्कार की घोषणा की थी. यह पुरस्कार उन्हें इंदिरा गांधी के हाथों से लेना था.
पहले तो उन्होंने इसे इंदिरा गांधी के हाथों से लेने मना कर दिया. इसके पीछे उनका मानना था कि इंदिरा गांधी के हाथ ‘आपातकाल’ के खून से रंगे हुए हैं. बाद में उन्होंने इसे स्वीकार लिया. इसी तरह उन्होंने मार्ग्रेट थ्रैचर के हाथों से जनपीठ पुरस्कार भी ले लिया. मारग्रेट थ्रैचर वही थीं, जिन्होंने दो दशकों तक साम्राज्यवादी सत्ता चलाई. यह भी एक तरह का आपातकाल ही था.
खैर, जो भी हो! महादेवी वर्मा ने अपने जीवन का एक लंबा समय विद्रोही के रूप में ही गुजारा. उन्होंने एक मिशन के लिए खुद को समर्पित किया और जीवन के बड़े भाग में उससे डिगी नहीं. यही काम मीरा बाई ने अपने समय में किया था. इस तरह उन्होंने ‘आधुनिक मीरा’ के रूप में 11 सितंबर 1987 के दिन हमेशा के लिए विदा ली.
Web Title: Mahadevi Verma: The Modern Meera, Hindi Article
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