अविश्वास प्रस्ताव!
इस प्रस्ताव की बदौलत जब विपक्ष सरकार को सदन में अपना बहुमत साबित करने के लिए बाधित कर देता है. 17 अप्रैल, 1952 में पहली लोकसभा ने अपना कार्यकाल शुरू किया. तब से लेकर आज तक यह समय के साथ विपक्ष द्वारा इस्तेमाल होता आया है.
हाल ही में, टीडीपी (तेलगु देशम पार्टी) के केसी नैनी ने अगुवाई में मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव को निचले सदन में रखा. इसी के साथ पूरे देश में अप्रस्ताव विश्वास को लेकर चर्चा होनी शुरू हो गई. बहरहाल, NDA सरकार ने तो सदन में अपना बहुमत साबित करते हुए अपनी सरकार को सुरक्षित रखा.
बता दें, भारतीय राजनीति के इतिहास में ऐसे भी मौके आए जब सरकारें गिर गईं. ऐसे में, इस प्रस्ताव के विभिन्न पहलुओं समेत इसके प्रभाव को जानना दिलचस्प रहेगा.
जानते हैं, अविश्वास प्रस्ताव क्यों, कैसे होता है इस्तेमाल और साथ ही, क्या रहा है इसका इतिहास-
ये प्रस्ताव है विपक्ष का अहम हथियार!
जैसा कि अपने नाम से यह कहता है, जब विपक्ष सरकार के खिलाफ अपने अविश्वास को जताता है. जिसके फलस्वरूप, सत्ताधारी सरकार को सदन में विश्वास हासिल करना होता है.
विश्वास हासिल करने के लिए उन्हें सदन में अपना बहुमत साबित करना होता है. यदि वह बहुमत से चूक जाते हैं तो तुरंत उनकी सरकार गिर जाएगी.
यह सर्वविदित है कि लोकसभा में जब तक सरकार के पास बहुमत है, वह तब तक ही वह सत्ता में बनी रह सकती है. इसके लिए उन्हें समय-समय पर अपना बहुमत भी साबित करना पड़ता है.
अविश्वास प्रस्ताव विपक्ष का एक अहम हथियार है. इसके ज़रिये वह सत्ताधारी सरकार पर प्रश्न उठाती है. उनकी नाकामियों पर भी प्रकाश डालते हुए सदन में उस पर चर्चा की जाती है.
इसके साथ ही यह प्रस्ताव विपक्ष को एक-जुट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. यही वजह रही कि इतिहास में कई बार एक जुट होकर विपक्ष ने सरकार गिरा दी.
इस प्रस्ताव का नियम है ही कुछ ऐसा. दरअसल, अगर सदन में यह पास हो जाता है तो प्रधानमंत्री समेत पूरे मंत्रिमंडल को इस्तीफा देना पड़ता है.
सिर्फ लोकसभा में ही लाया जा सकता है यह प्रस्ताव
संविधान के अनुच्छेद 75 के अनुसार, मंत्रिमंडल सामूहिक तौर पर लोकसभा के प्रति जवाबदेह है. ऐसे में यह इसी तर्ज पर लाया जाता है.
इस प्रस्ताव को सिर्फ विपक्ष ही ला सकता है. इसके साथ ही, यह सिर्फ लोकसभा में ही पेश किया जा सकता है. यह राज्यसभा में नहीं लाया जा सकता है.
यह संसद के किसी एक दल द्वारा भी लाया जा सकता है. यदि किसी भी दल को यह लगे कि वह किसी भी वजह से सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाना चाहता है, तो वह लोकसभा की नियमावलियों के अनुसार उसे ला सकता है.अगर सरकार को सत्ता में बने रहना है तो बहुमत तो किसी भी हाल में जरुरी है.
ऐसे में विपक्ष इस अंदेशे के साथ (नहीं भी) कि सरकार सदन में अपना बहुमत नहीं साबित कर पाएगी, प्रस्ताव लाता है. इसके अलावा, कई बार वे इसे कुछ मुद्दों को डिबेट में लाने के लिए भी इसका प्रयोग करते हैं.
...और ये है इसे सदन में लाने की पूर्ण प्रक्रिया
इस प्रस्ताव को किस प्रकार सदन में रखा जाता है. साथ ही, किन बातों का ध्यान रखते हुए यह सदन से पारित होता है. दरअसल, यह लोकसभा की नियमावलियों को ध्यान में रखते हुए लाया जाता है.
यह लोकसभा की नियमावली 198(1) और 198(5) के तहत लोकसभा में लाया जा सकता है. यह 198(1)(क) के तहत स्पीकर के बुलाये जाने पर उनकी अनुमति के बाद ही सदन में रखा जा सकता है.
लोकसभा नियमावली 198(1)(ख) के अनुसार यह लिखित रूप से सदन में सुबह दस बजे तक इसे लाये जाने की खबर सूचना महासचिव को देनी होती है.
198(2) के तहत इस प्रस्ताव को लाने के लिए सदन के 50 सदस्यों का इसके पक्ष में होना अनिवार्य है. इससे एक भी कम संख्या होने पर यह प्रस्ताव नहीं लाया जा सकता.
198(3) की नियमावली कहती है कि अगर स्पीकर द्वारा अनुमति मिलने के बाद यह प्रस्ताव पारित हो जाता है. इसके बाद राष्ट्रपति इसपर चर्चा के लिए एक या उससे ज्यादा दिन निर्धारित करता है.
198(4) में प्रस्ताव पर चर्चा हो जाने के बाद, स्पीकर वोटिंग द्वारा निर्णय लेने के लिए घोषणा करेंगी. इसके अलावा, 198(5) के तहत स्पीकर सदन में सदस्यों के भाषण की समय सीमा भी तय कर सकती हैं.
बता दें, भारत के राष्ट्रपति भी सरकार को अपना बहुमत साबित करने के लिए कह सकते हैं. सरकार बहुमत साबित नहीं कर पाती है. मंत्रिमंडल को इस्तीफ़ा देना होगा और अगर वो ऐसा नहीं करते तो मंत्रिमंडल बर्खास्त कर दिया जाता है.
जब इस प्रस्ताव ने गिरा दी कई सरकारें!
शुरुआत में इसका इस्तेमाल प्रतीकात्मक विरोध के तौर पर होता था. यह सिर्फ सरकार को हमेशा जवाबदेह बनाये रखने के लिए होता था. बाद में समय के साथ इसका प्रयोग काफी बढ़ गया. खासकर कि जब गठबंधन की सरकारें बनना शुरू हुईं.
यह अविश्वास प्रस्ताव सबसे पहले देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु की सरकार के खिलाफ आया था. साल 1963 में नेहरु जी को इसका सामना करना पड़ा था. विपक्ष के नेता आचार्य जे.बी कृपलानी ने यह प्रस्ताव रखा था.
इस प्रस्ताव का सामना आज तक इंदिरा गाँधी ने सबसे ज्यादा बार किया है. उनके खिलाफ यह चार बार तो केपीएम नेता ज्योतिर्मय बासु द्वारा ही लाया गया. साथ ही, अटल बिहारी वाजपेयी ने भी दो बार उनके खिलाफ यह प्रस्ताव सदन में रखा.
पहली बार साल 1978 में मोरारजी देसाई की सरकार गिर गयी. उन्होंने इसका सामना दो बार किया था. पहली बार तो वह किसी तरह बच गए थे. जबकि दूसरी बार उन्हें अपनी कुर्सी गिरने का अंदेशा हो गया था. लिहाज़ा, उन्होंने मतविभाजन से पहले ही अपना इस्तीफ़ा दे दिया.
इसके एक साल बाद 1979 में चौ. चरण सिंह की सरकार भी इसी फलस्वरूप ही गिर गयी थी. जिसके लिए उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था.
इसके बाद, वीपी सिंह की सरकार भी तब गिर गयी जब बीजेपी ने राष्ट्रीय संयुक्त मोर्चा सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया था.
इसके बाद 1993 में, यह नरसिम्हा राव के खिलाफ भी लाया गया लेकिन उन्होंने सदन में बहुमत साबित कर दिया. आगे चलकर, 1997 में संयुक्त मोर्चा सरकार गिर गयी जब कांग्रेस ने अपना समर्थन वापस ले लिया. जिसके परिणामस्वरूप, एचडी देवगौड़ा को अपना इस्तीफा देना पड़ा.
साल 1998 में इंद्रकुमार गुजराल ने भी संसद में अपना बहुमत खो दिया और संयुक्त मोर्चा सरकार को इस्तीफा देना पड़ा.
इस प्रस्ताव की सबसे ज्यादा चर्चा तब हुई जन साल 1999 में अटल ने सिर्फ एक वोट अपना बहुमत खो दिया. इससे पहले उनकी तेरह दिन की सरकार भी गिर गयी थी.
साल 2009 में मनमोहन सिंह को भी अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ा था. उन्हें यह अमेरिका के साथ की गयी परमाणु डील के संदर्भ में करना पड़ा था. हालांकि, उन्होंने संसद में अपना बहुमत साबित कर दिया.
Web Title: No Confidence Motion: A Key Weapon Of Opposition In Parliament, Hindi Article
Feature Image Credit: swarajyamag