महाराष्ट्र में दलित और मराठा समुदाय के बीच भड़की हिंसा की खबर सुर्खियों में है. मुंबई, औरंगाबाद, अहमदनगर सहित तमाम शहर इससे प्रभावित हैं. मामला इतना बढ़ गया है कि रेल-बस और मेट्रो सेवाएं बाधित कर दी गईं हैं. यही नहीं सड़कों पर आगजनी व तोड़फोड़ की कई तस्वीरें सामने आई हैं. वहीं मुंबई में सदन की सुरक्षा को बढ़ा दिया गया. कुल मिलाकर पूरा मुंबई बंद है!
अब चूंकि यह हिंसा भीमा-कोरेगांव की लड़ाई की 200वीं सालगिरह पर आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान दो गुटों में भड़की हिंसा में एक शख्स की मौत हो जाने के कारण हुई. ऐसे में यह जानना समायिक रहेगा कि आखिर ‘भीमा-कोरेगांव की लड़ाई’ में ऐसा क्या हुआ था कि इतने सालों बाद भी वह प्रासंगिक बनी हुई है–
अंग्रेजों ने तैयार की थी नींव!
1800 के दशक में ग्वालियर के सिंधिया, इंदौर के होल्कर, बड़ौदा के गायकवाड़ और नागपुर के भोसले के साथ मिलकर मराठा खुद को मजबूत करने में लगे हुए थे. काफी हद तक वह सफल भी रहे.
परिणाम यह रहा कि ब्रिटिशों को न चाहते हुए उनके साथ कई मसलों पर संधि करनी पड़ी.
इसी कड़ी में 1815 के आसपास मराठों की तरफ से पेशवा ने बड़ौदा के गायकवाड़ के साथ मिलकर आपस में राजस्व को साझा करने को लेकर मन बनाया. इसकी सूचना ब्रिटिशों को हुई तो उन्होंने खुलकर इसका विरोध करना शुरु कर दिया. यहां तक कि उन्होंने पेशवा को गायकवाड़ समेत अन्य सभी से संधि तोड़ने तक को मजबूर कर दिया.
इसको लेकर मराठों में आक्रोश बढ़ा तो पेशवा ने पुणे में ब्रिटिश ब्रिटिश रेसिडेन्सी को जला दिया. हालांकि, 1817 में ब्रिटिशों ने उन्हें पराजित करते हुए पुणे पर अपना कब्जा कर लिया. माना जाता है कि सही मायने में बस यही से कोरेगांव की लड़ाई की नींव पड़ गई थी, जिसके परिणाम 1818 में देखने को मिले.
British Soldiers (Representative Pic: commons.)
1818 में पेशवा पुणे की तरफ बढ़े तो…
पेशवा अंग्रेजों के कब्जे वाले पुणे के क्षेत्र को वापस पाना चाहते थे, इसलिए वह यहां-वहां भागते हुए अपनी सेना को एकत्रित करने लगे. जल्द ही वह एक विशाल सेना बनाने में सफल रहे. करीब 28 हजार मराठा सैनिक उनके पास थे. अंग्रेजों को जब इसकी खबर मिली तो उन्होंने उनको रोकने के लिए अपनी सेना को मजबूत करना शुरु कर दिया.
अंग्रेज पेशवा की ताकत को जानते थे. उन्हें पता था कि उन्हें हराना आसान नहीं था, इसलिए उन्होंने हमेशा की तरह इस लड़ाई में भी ‘फूट डालो राज करो’ की नीति अपनाई. इसके तहत उन्होंने ऐसे लोगों की खोज शुरु की, जिनके मन में पेशवा के लिए अंसतोष और नफरत का भाव हो.
जल्द ही वह अपनी खोज में सफल रहे. उन्हें पता चला कि भारतीय मूल के कंपनी सैनिकों में मुख्य रूप से बॉम्बे नेटिव इन्फैंट्री से संबंधित महार रेजिमेंट के सैनिक पेशवा से खासे नाराज थे. इसका फायदा उठाकर उन्होंने उन्हें अपनी सेना का हिस्सा बनाने का योजना बनाई और सफल रहे.
महार सैनिक दुश्मन बनकर खड़े हो गए!
यही कारण रहा कि जब 1818 में पेशवा बाजीराव द्वितीय की अगुवाई में 28 हज़ार मराठा ब्रिटिश पर हमला करने पुणे जा रहे थे. तब रास्ते में करीब 800 महार सैनिक उनका अवरोध बनकर खड़े हो गए.
पेशवा किसी भी कीमत पर पुणे पर अपना कब्जा चाहते थे, इसलिए उन्होंने अपने 2000 सैनिक भेज कर रास्ते का अवरोध बने महार सैनिकों को रास्ते से हटाने का आदेश दे दिया. इस आदेश के तहत मराठा सैनिक कोरेगाँव भीमा पहुंच गए, जहां महार सैनिक उनका इंतजार कर रहे थे.
जैसे ही दोनों सेनाओं का सामना हुआ लड़ाई शुरु हो गई. संख्या में मराठा बहुत ज्यादा थे, किन्तु महार सैनिकों ने उनका डटकर सामना किया. कहते हैं 12 घंटे तक वह अपने मोर्चे पर डटे रहे और जवाबी प्रहार करते रहे. ब्रिटिशों को जैसे ही इस लड़ाई की सूचना मिली उन्होंने अपने दूसरे दल को तुरंत अपनी तरफ से लड़ रहे महार सैनिकों की मदद के लिए भेज दिया.
Real Story of Bhima-Koregaon Battle (Pic: NDTV)
…और इस तरह मनाया जाने लगा ‘विजय दिवस’
दूसरी तरफ ब्रिटिशों के आने की खबर जैसे ही मराठा सैनिकों को मिली उन्होंने तुरंत पीछे हटना ज्यादा उचित समझा. असल में वह इस मोर्चे पर जोश में आकर अपना बड़ा नुकसान नहीं करना चाहते थे. बावजूद इसके अनुमानों की माने तो इस लड़ाई में पेशवा के करीब 500-600 सैनिक मारे गए थे. अंतत इस लड़ाई में पेशवा बाजीराव द्वितीय पर अंग्रेजों ने जीत दर्ज की.
चूंकि, यह जीत महार सैनिकों की वजह से हुई थी, इसलिए उन्होंने इसको विजय दिवस के रूप में मनाना शुरु कर दिया. यही नहीं इस जीत को जीवंत रखने के लिए वहां ‘विजय स्तंभ’ तक बनवाया गया.
आज के दौर में यह दलितों के लिए शौर्यता का प्रतीक बन चुका है. हर साल 1 जनवरी को हजारों की संख्या में दलित समुदाय के लोग यहां अपना इस युद्ध में मृत्यु के प्राप्त हुए लोगों को श्रद्धाजंलि देने के लिए जाते हैं.
दूसरे मत खड़े करते हैं कई ‘सवाल’
खास बात यह है कि यह इस लड़ाई का एक पहलू भर है. वहीं इसके दूसरे पहलुओं की बात करें तो कोई और ही तस्वीर नज़र आती है. इसके अनुसार कुछ लोगों का मानना है कि यह महार सैनिकों ने ब्रिटिशों के लिए नहीं बल्कि अपनी अस्मिता के लिए लड़ी थी. कथित तौर पर उस कालखंड में पेशवा महारों जोकि दलित समुदाय से संबंध रखते थे, उनके साथ दुर्व्यवहार करते थे.
यहां तक कि नगर में प्रवेश करते समय इन लोगों को अपनी कमर में एक झाड़ू बांधकर चलना होता था. ऐसा इसलिए ताकि वह अपने पैरों के निशान झाड़ू से मिटते चले. इसके साथ ही उनके गले में एक बरतन लटकाने का भी चलने था, ताकि वह उसमें थूक सकें और सवर्ण ‘अपवित्र’ होने से बच सके. इसके अलावा कुएं से पानी भरना आदि पर भी उनके साथ भेदभाव किया जाता था.
जाहिर तौर पर यह छुआछूत की पराकाष्ठा ही थी.
इसी कड़ी में एक मत कहता है कि ‘भीमा-कोरेगांव की लड़ाई’ में महारों ने मराठों को नहीं बल्कि ब्राह्मणों को हराया था. ब्राह्मणों ने छुआछूत दलितों पर थोप दिया था, इस कारण वह नाराज थे. ऊपर से जब महार लोगों ने इसका विरोध किया तो ब्राह्मण नाराज हो गए और उन पर जुल्म बढ़ा दिए. परिणाम यह रहा कि नाराज होकर वे ब्रिटिशों से जा मिले और उनकी तरफ से लड़े.
Bhima Koregaon Memorial (Pic: Scroll.in)
खैर, इस लड़ाई का कारण कुछ भी रहा हो, लेकिन सच तो यह है कि सालों बाद भी इसकी चिंगारी किसी न किसी रुप में लोगों के दिलों में सुलग रही है, जो जब कभी भी भड़केगी तो अपने साथ कटु यादें लेकर आएगी. महाराष्ट्र में दलित और मराठा समुदाय के बीच भड़की हिंसा की खबर इसका ताजा उदाहरण हैं, जिसे किसी भी लिहाज से सही नहीं ठहराया जा सकता.
भले ही सरकार इस हिंसा के जिम्मेदार लोगों को पकड़कर सजा दे, लेकिन सच तो यह है कि इसमें एक व्यक्ति की जान गई है, जोकि लौटकर आने वाली नहीं है.
इस कड़ी में समाज को ज़ख्मों पर मरहम लगाने की पहल करनी चाहिए, न कि एक दूसरे के ज़ख्मों को कुरेदना चाहिए.
आप क्या कहेंगे, इस समूचे प्रकरण पर?
Web Title: Real Story of Bhima-Koregaon Battle, Hindi Article
Feature Image Credit: Eskipaper.com