अगर हम जम्मू और कश्मीर के इतिहास के उठाकर देखें, तो शेख अब्दुल्ला के कद के बराबर नेता हमें कहीं नहीं दिखेगा. शेख अब्दुल्लाह को ‘कश्मीर का शेर’ की उपाधि से नवाजा गया. उन्होंने हमेशा जम्मू एवं कश्मीर की जनता के पक्ष में ही सोचा और काम किया. शेख अब्दुल्ला अपने इरादों में अडिग थे. इसके लिए वे बड़ी से बड़ी कीमत चुकाने के लिए भी तैयार रहते थे.
यह उनकी अडिगता ही थी, जिसकी वजह से उन्हें उनके प्रिय दोस्त जवाहरलाल नेहरू ने 11 वर्षों तक जेल में डाल दिया था.उनकी आँखों में उत्साह और चेहरे पर समर्पण का भाव हमेशा रहता था. इसी चीज ने उन्हें कश्मीर की जनता के दिल में बसाया. उनका अंतिम लक्ष्य जम्मू एवं कश्मीर के शोषित तबके को आर्थिक और सामाजिक रूप से मज़बूत बनाना था.
आज जब कश्मीर घाटी विध्वंश के दौर से गुज़र रही है, ऐसे में 'कश्मीर के शेर' के बारे में जानना प्रासंगिक होगा.
'मुस्लिम कांफ्रेंस' का गठन किया
शेर-ए-कश्मीर शेख अब्दुल्ला का जन्म 5 दिसंबर, 1905 के दिन श्रीनगर के पास स्थित सौरा में हुआ था. इस समय आम कश्मीरी गरीबी, भुखमरी और बलात श्रम से जूझ रहे थे. वहीं शेख अब्दुल्ला का परिवार व्यापार से जुड़ा था. इसलिए उन्हें पढ़ने-लिखने का मौका मिला. उन्होंने लाहौर और अलीगढ़ में पढ़ाई की.
अलीगढ़ विश्वविद्यालय से 1930 में भौतिक विज्ञान में परास्नातक की डिग्री हासिल करने के बाद वे श्रीनगर वापस लौट आए. इस समय तक जम्मू एवं कश्मीर रियासत के महाराजा ने बहुसंख्यक कश्मीरी मुसलमानों पर जुल्म बढ़ा दिए थे.
शेख अब्दुल्लाह जैसे जहीन नौजवान से ये सब देखा नहीं गया. उन्होंने आते ही पढ़े-लिखे मुसलमानों को इकठ्ठा करना शुरू किया और आम मुसलमानों के भीतर राजनीतिक एवं सामाजिक चेतना जागृत करने का बीड़ा उठाया.
हालाँकि, यह काम इतना आसान नहीं होने वाला था.
असल में महाराजा ने किसी भी प्रकार की राजनीतिक बैठक पर रोक लगा रखी थी. ऐसे में शेख अब्दुल्लाह ने अपने दोस्तों के साथ मिलकर श्रीनगर में ही एक ‘रीडिंग रूम’ खोला. बाहरी दुनिया की नज़र में तो ये सिर्फ एक ‘रीडिंग रूम’ ही था, लेकिन असल में यहाँ शेख अब्दुल्ला और उनके दोस्तों द्वारा राजनीतिक चर्चाएँ होती थीं.
चर्चाओं के केंद्र में हमेशा महाराजा का दमनकारी शासन रहता था.
धीरे-धीरे इस रीडिंग रूम में और भी पढ़े-लिखे मुसलमान जुड़ते गए. शेख अब्दुल्ला को इसके मुखिया के रूप में पहचाना जाने लगा. जल्द ही इन लोगों ने मिलकर जम्मू एवं कश्मीर की रियासत के प्रशासन में सेवारत मुसलमानों का आंकड़ा निकाला और उसे अखबारों में छपवा दिया. मुसलमानों की संख्या के मुकाबले यह आंकड़ा बहुत कम था.
इन प्रयासों से अब घाटी की बेहाल मुस्लिम आबादी के भीतर महाराजा के खिलाफ रोष पैदा होने लगा था. महाराजा के खिलाफ आए दिन छोटे-मोटे विरोध प्रदर्शन होने लगे थे. मजबूर होकर महाराजा को क्लांसी कमीशन का गठन करना पड़ा. लेकिन ये कमीशन बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी की समस्यायों का कोई ढंग का हल नहीं निकाल पाया.
इस कमीशन की निष्क्रियता के बाद अब वक्त आ गया था कि गरीब मुसलमानों को संगठित करके एक स्वर में उनकी आवाज निरंकुश सत्ता के सामने उठाई जाए. सो ऐसा हुआ भी. 1932 में ‘मुस्लिम कांफ्रेंस’ नाम का संगठन अस्तित्व में आया. इसके पहले ही सम्मलेन में हजारों लोग इकठ्ठा हुए.
'नया कश्मीर' घोषणापत्र और भारत की आजादी
इस संगठन का मुख्य उद्देश्य सताए जा रहे मुसलमानों की आवाज को ऊपर लाना था. यह संगठन कहीं से भी साम्प्रदायिक नहीं था. यही वजह थी कि 1938 में इसके छठवें सम्मलेन में शेख अब्दुल्ला ने गैर-मुस्लिमों को भी आमंत्रित किया था और जल्द ही कांग्रेसी नेता प्रेम नाथ बजाज की सलाह पर संगठन का नाम ‘मुस्लिम कांफ्रेंस’ से बदलकर ‘नेशनल कांफ्रेंस’ कर दिया था.
बाद में प्रेम नाथ बजाज खुद भी इसमें शामिल हो गए थे.
जैसे-जैसे वक्त आगे बढ़ रहा था, वैसे-वैसे शेख अब्दुल्ला आम कश्मीरी आवाम के दिलों में गहरे उतरते जा रहे थे. उन्हें सुनने के लिए हजारों की भीड़ इकट्ठा होती थी. इसी माहौल के बीच 1944 में संगठन ने एक सम्मलेन किया. इस सम्मलेन में कश्मीर के लिए ‘नया कश्मीर’ नाम का घोषणापत्र प्रस्तुत किया गया. यह घोषणापत्र अपने आप में युगांतरकारी था.
इस घोषणापत्र की बुनियाद में धर्मनिरपेक्षता, स्वतंत्रता और समानता जैसे मानवतावादी मूल्य बसे हुए थे. इसमें गरीबों के लिए भूमि के पुनर्वितरण से लेकर महिलाओं की आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता तक की बात थी.
आगे इसी को आधार बनाकर शेख अब्दुल्ला ने महाराजा के खिलाफ 1946 में ‘कश्मीर छोड़ो’ आन्दोलन शुरू किया. इसका परिणाम यह हुआ कि महाराजा ने शेख अब्दुल्लाह को नौ साल के लिए जेल में डाल दिया.
लेकिन कहानी अभी खत्म नहीं हुई थी. भारत और पाकिस्तान को जब आजादी मिली, तब तक महाराजा हरि सिंह ने किसी भी देश में जुड़ने का निर्णय नहीं लिया था. ऐसे में पाकिस्तान ने कश्मीर को हथियाने के उद्देश्य से महाराजा हरि सिंह के ऊपर हमला कर दिया. इस हमले से निपटने के लिए महाराजा ने भारत की मदद मांगी.
महाराजा के इस आग्रह पर नेहरु ने शर्त रखी कि मदद के बदले शेख अब्दुल्ला को रिहा करना पड़ेगा. आगे महाराजा शेख अब्दुल्ला को रिहा कर अपने परिवार के साथ भाग गए. इस उथल-पुथल की स्थिति में नेहरु ने अब्दुल्ला को जम्मू एवं कश्मीर का प्रमुख बनाया. शीघ्र ही शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर में स्वयंसेवकों की फौज खड़ी की. इस फौज ने भारतीय सेना के साथ मिलकर आक्रमणकारी पाकिस्तानी कबीलाइयों को खदेड़ दिया. इसके बाद 5 मार्च 1948 को वे जम्मू एवं कश्मीर के प्रधानमंत्री बनाए गए.
कश्मीर की समस्या और शेख का जेल जाना
प्रधानमंत्री बनते ही उन्होंने ‘नया कश्मीर’ घोषणापत्र को अमल में लाना शुरू कर दिया. उन्होंने गरीबों से लूटी गई जमीनें उन्हें वापस लौटा दीं और शिक्षा व्यवस्था को मज़बूत करना शुरू किया. ये सब काम उन्होंने मात्र चार वर्षों के भीतर किए.
शीघ्र ही अमीर जमींदार उनसे चिढ़ने लगे. इन जमीदारों ने अपने राजनीतिक सूत्रों के जरिये जवाहरलाल नेहरु और शेख अब्दुल्ला के बीच फूट डालनी शुरू कर दी.
श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा गठित प्रजा परिषद् ने जम्मू में शेख अब्दुल्ला के खिलाफ आन्दोलन तेज कर दिया और दूसरी तरफ कांग्रेस के नेता नेहरू को इस बात को लेकर भड़काने लगे कि शेख अब्दुल्ला कश्मीर को भारत से अलग करना चाहते हैं.
इसका परिणाम यह हुआ कि 9 अगस्त, 1953 के दिन शेख अब्दुल्ला को असंवैधानिक तरीके से प्रधानमंत्री पद से हटाकर जेल में डाल दिया गया. जब वे 1964 में जेल से निकले, तब कश्मीर समस्या तो बहुत जटिल हो चुकी थी, लेकिन कश्मीरियों के दिल में उनके लिए प्यार रत्ती भर भी कम नहीं हुआ था.
इसे देखते हुए नेहरू ने उन्हें अपने पास बुलाया और कश्मीर समस्या का हल निकालने की बात कही. इसपर उन्होंने भारत-पाकिस्तान का एक परिसंघ बनाने का प्रस्ताव रखा. नेहरू राजी हुए, तो शेख अब्दुल्ला यह प्रस्ताव लेकर पाकिस्तान गए. पाकिस्तानी नेता इससे साफ़ मुकर गए और इसी बीच नेहरू की मृत्यु हो गई.
अंततः यह योजना धरी की धरी रह गई. इसके बाद भी शेख अब्दुल्ल्ला अपनी तरफ से समस्या का हल निकालने का प्रयास करते रहे. 1968 में उन्होंने चीन से इस संबंध में बात की. इसका परिणाम यह हुआ कि उन्हें एक बार फिर से जेल में डाल दिया गया.
आगे जब वे जेल से बाहर निकले, तो उन्होंने चुनाव लड़ने का फैला लिया और चुनाव जीतकर एक बार फिर से कश्मीर के प्रमुख बने. लेकिन अब कश्मीर की समस्या इतनी जटिल हो चुकी थी कि वे चाहकर भी इसका हल निकालने की स्थिति में नहीं थी. अपनी इसी अधूरी इक्षा के साथ 8 सितंबर 1982 के दिन उनकी मृत्यु हो गई.
Web Title: Sheikh Abdullah: The Lion Of Kashmir, HIndi Article
Feature Image Credit: chinar shade