पिछली सदी में साठ का दशक ऐसा था जब कवि युवाओं के आदर्श हुआ करते थे और कवितायें आत्मा की गहराईयों से लिखी जाती थीं. इस समय की कविताओं में प्रेम नदी के पानी सा बहता था और दुःख किसी छप्पर से बूँद-बूँद चूता था.
शिव कुमार बटालवी ऐसे ही कवि थे. वे पंजाब से थे और उनकी कविताओं में वारिस शाह और गुलाम फरीद के संवेदनात्मक शब्दों की गूँज थी. पंजाब में जैसे पांच नदियाँ उन्मुक्त होकर बहती हैं, वैसे ही कविता शिवकुमार के भीतर से निकलकर बही और लोगों के दिलों में बस गई.
इस कविता में गाढ़े प्रेम के उद्गार थे तो साथ ही विरह की उदासी और दुःख भी. उनकी कविता में शिकायत भरी बेचैनी थी. शराब उनका एकमात्र सहारा थी और वे अतिसंवेदनशील, अस्थिर और आत्मघाती कवि थे.
आईए उनके बारे में जानते हैं…
कॉलेज के दिनों से ही लिखने लगे थे कविता
शिव कुमार का जन्म 23 जुलाई 1936 के दिन बारा पिण्ड, पंजाब में हुआ था. उनके पिता पंडित क्रिशन गोपाल ब्रिटिश सरकार में पटवारी थे. बंटवारे के बाद उनका परिवार बटाला आ गया था. यहाँ आने से पहले शिव कुमार ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा पूरी कर ली थी. उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया था.
शिव कुमार के पिता चाहते थे कि वे कोई सरकारी नौकरी कर लें, लेकिन शिव कुमार इसके लिए कभी राजी नहीं हुए. इस समय शिव कुमार कवितायें लिखना प्रारम्भ कर चुके थे. वे अपने दोस्तों के सामने उनका पाठ करते थे.
इसी समय शिवकुमार मैना नाम की एक लड़की से मिले थे. दोनों को प्रेम हुआ ही था कि एक दिन अचानक से नैना की मृत्यु हो गई. शिवकुमार तो जैसे टूट गए और इसी दुःख में उन्होंने ‘मैना’ नाम का एक शोक-गीत लिख डाला.
मैना से बिछड़ना उस क्रम का हिस्सा था, जिसे शिव कुमार की जिंदगी में बार-बार दोहराया जाना था. मैना के बाद उनकी जिंदगी में कई स्त्रियाँ आईं और बिछड़ गईं. शिव कुमार अतिसंवेदनशील होने की वजह से ऐसे ही शोक-गीत और कवितायें लिखते गए.
ऐसी ही एक कविता की दो पंक्तियाँ हैं, “ चूरी कुट्टाँ ते ओ खाँदा नहीं, वे असीं दिल दा मास खुआया”. मतलब कि उस लड़की ने कभी भी प्रेम का स्वाद नहीं चखना चाहा, इसलिए मैंने उसे अपने दिल का एक हिस्सा चुगने को दिया.
इसी क्रम में उन्हें गुरुबख्स सिंह की बेटी से प्यार हो गया. एक दिन वह उन्हें छोड़कर अमेरिका चली गई और किसी दूसरे व्यक्ति से शादी कर ली. जब शिव कुमार को पता चला कि उनकी पूर्व प्रेमिका ने एक बच्चे को जन्म दिया है, तब उन्होंने ‘मैं एक शिकरा यार बनाया’ शीर्षक की एक कविता लिखी. यह एक प्रेम की कविता थी और पूरे पंजाब में मशहूर हुई.
'लूना' ने बनाया मशहूर
इस समय तक शिव कुमार पंजाब में मशहूर हो चुके थे, लेकिन अभी देश-विदेश में उन्हें पहचाना जाना बाकी था. 1965 में ‘लूना’ नाम से उनका काव्यात्मक नाटक प्रकाशित हुआ. इस नाटक ने उन्हें देश और विदेश में ख्याति दी. इस नाटक ने उन्हें पंजाब के आधुनिक कवि होने का दर्जा दिलाया. इसी नाटक ने उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार दिलाया. इस पुरस्कार को जीतने वाले वे अब तक के सबसे युवा साहित्यकार हैं.
शोहरत पा लेने के बाद भी उनके दिल को सुकून नहीं पहुंचा. ऐसा लगता था कि दुःख उनके जीवन का स्थाई भाव हो चुका था. वे बेतहाशा शराब पीते थे और पूरे समय कवितायें लिखते रहते थे. उन्हें अपने आसपास के लोगों से घृणा सी हो गई थी. उन्हें लोगों के दोहरे व्यवहार पर गुस्सा और दुःख दोनों होता था.
इसी क्रम में वे लिखते हैं, ‘लोहे दे इस शहर विच/ पित्तल दे लोग रेंदे/ सिक्के दे बोल बोलन/ शीशे दे वेस पोंदे.’ मतलब कि लोहे के इस शहर में पीतल के दिल वाले लोग रहते हैं, वे हमेशा पैसे की भाषा बोलते हैं और कांच के कपड़े पहनते हैं.
आगे 1967 में उन्होंने अरुणा से शादी कर ली. अरुणा से उन्हें दो बच्चे पैदा हुए. ऐसा लगा कि अब उनके जीवन से दुःख हमेशा के लिए चला गया है. लेकिन असल में ऐसा था नहीं. उन्हें हमेशा लगता था कि लोग बस एक-दूसरे को धोखा दे रहे हैं. कोई किसी के लिए सच्चा नहीं है. शायद इसलिए ही वे जल्दी मर जाना चाहते थे.
लोगों की क्रूरता उन्हें खाए जा रही थी. आगे वे लिखते हैं, ‘असां तां जोबान रुते मरना, जोबान रुते जो वी मरदा, फुल्ल बने या तारा.’ मतलब कि वे चाहते हैं कि जल्द ही मर जाएं, क्योंकि जो कोई भी जवानी में मरता है, वो या तो फूल बनता है या तारा.
कहलाए जाने लगे 'बिरहा दा सुल्तान'
लोगों के दोहरे व्यवहार और नकलीपन की वजह से उन्होंने कवि सम्मेलनों में जाना बंद कर दिया था. एक मित्र के बार-बार आग्रह करने पर वे 1970 में बम्बई के एक कवि सम्मलेन में शामिल हुए थे. मंच पर पहुँचने के बाद जब उन्होंने बोला तो पूरे हॉल में सन्नाटा छा गया.
उन्होंने बोला कि आज हर व्यक्ति खुद को कवि समझने लगा है, गली में बैठा कोई भी आदमी कवितायें लिख रहा है. इतना बोलने के बाद उन्होंने अपनी सबसे प्रसिद्ध रचना ‘इक कुड़ी जिदा नाम मोहब्बत है, गुम है’ सुनाई. इस पूरे पाठ के दौरान हॉल में सन्नाटा बना रहा.
सच कहा जाए तो शिव कुमार कभी दुःख से बाहर निकल ही नहीं पाए. उन्हें हर समय कुछ न कुछ काटता ही रहा. कभी उन्हें अपनी पुरानी प्रेमिकाओं की बेवफाई याद आती रही तो कभी लोगों के नकलीपन से वे चिढ़ते रहे. इसी दौरान उन्हें 'बिरहा दा सुल्तान' कहा जाने लगा. मतलब ऐसा व्यक्ति, जिसके जीवन में दुःख ही दुःख हैं.
7 मई 1973 के दिन मात्र 36 साल की उम्र में वे मृत्यु को प्राप्त हो गए. यह एक अतिसंवेदनशील कवि के लिए आदर्श मृत्यु थी. ऐसे कवि ज्यादा दिनों तक जिन्दा नहीं रहते हैं.
शिव कुमार बटालवी ने एक बार कहा था कि जीवन एक धीमी आत्महत्या है, हम सब एक धीमी मौत मर रहे हैं और ऐसे मरना एक बुद्धिजीवी के जीवन की अंतिम नियति है. शायद इस धीमी आत्महत्या से बचने के लिए ही वे इतनी कम उम्र में यह दुनिया छोड़कर चले गए.
Web Title: Shiv Kumar Batalvi: A Poet Who Wanted To Die Young, Hindi Article
Feauture Image Credit: Youtube/Saregama