सिनेमा जगत में सुपरस्टार के रूप में विख्यात सुनील दत्त की असल जिंदगी किसी फिल्म की कहानी जैसी ही रही.
आम सिनेमाई नायकों की तरह उन्होंने खुद को केवल रूपहले पर्दे तक ही सीमित नहीं रखा. उन्होंने सिनेमा में तो अपनी प्रतिभा का लोहा तो मनवाया ही, साथ ही असल जिंदगी में भी मुश्किलों का डटकर सामना किया.
वे लोगों के बीच में गए. उन्होंने असहायों की मदद की. भूखों को रोटी और बीमारों को दवा दी. राजननीति में भी अच्छी पारी खेली. ऐसे में उन्हें नजदीक से जानना दिलचस्प रहेगा—
मां ने बढ़ाया आगे
सुनील का जन्म 6 जून, 1929 को ब्रिटिश भारत के खुर्द नाम के गांव में हुआ. वे पांच वर्ष के ही थे, जब उनके पिता की मृत्यु हो गई. इसके कुछ सालों बाद 1947 में विभाजन के समय दंगे हुए और इन्हें पाकिस्तान छोड़कर एक शरणार्थी की तरह पंजाब के अम्बाला जिले में बसना पड़ा.
यहां आने के बाद एक दिन उनकी मां ने उनसे कहा कि जो अपने भूतकाल में फंस जाते हैं, वे कभी फिर जीवन में आगे नहीं बढ़ पाते हैं. शायद इसलिए ही अम्बाला में वे ज्यादा दिन नहीं रुके और मुंबई चले गए.
वहां उन्होंने जय हिन्द कॉलेज में प्रवेश लिया. शुरुआत से ही थिएटर में रूचि थी, इसलिए जल्द ही उन्हें ‘ रेडिओ सेलन’ में नौकरी मिल गई. यह उस समय दक्षिण एशिया का एकलौता व्यावसायिक रेडिओ केंद्र था. इस दौरान उन्होंने देव-आनंद और दिलीप कुमार जैसे सुपरस्टार्स का साक्षात्कार लिया.
कहते हैं बस यहीं से सिनेमा जगत के दरवाजे उनके लिए खुल गए.
‘मदर इंडिया’ से हुए प्रसिद्ध
1955 में रमेश सहगल द्वारा बनाई गई फिल्म ‘रेलवे प्लेटफार्म’ में इन्हें इनका पहला रोल मिला.
इसके बाद सुनील ने कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखा. 1957 में आई फिल्म ‘मदर इंडिया’ ने इनकी पहचान को सिनेमा जगत में और पुख्ता कर दिया. इस फिल्म में सुनील ने बिरजू के रूप में एक नौजवान विद्रोही का रोल निभाकर सबको अपनी कलाकारी का कायल कर लिया. इस फिल्म के एक साल बाद, उन्होंने महान अभिनेत्री नरगिस से शादी कर ली.
कहते हैं कि ‘मदर इंडिया’ की शूटिंग के वक्त एक बार सेट पर भयंकर आग लग गई थी. उसमें नरगिस बुरी तरह फस गई थीं, तब सुनील ने अपनी जान की परवाह ना करते हुए नरगिस को बचाया. इसके बाद दोनों को आपस में प्यार हो गया.
1957 से लेकर 1967 तक का समय उनके एक्टिंग कैरियर के हिसाब से सबसे अच्छा समय रहा.
इस दौरान उन्हें सिनेमा जगत की सबसे जहीन और प्रतिभावान अभिनेत्रियों के साथ काम करने का मौका मिला. इन अभिनेत्रियों में नूतन, साधना, वहीदा रहमान और मीना कुमारी मुख्य रूप से शामिल रहीं.
इस बीच उन्होंने गुमराह (1963), वक्त (1965), हमराज (1967) और पड़ोसन (1968) जैसी सुपरहिट फ़िल्में की.
सुनील दत्त से जुड़ा एक रोचक पहलू यह है कि उनके बचपन का नाम बलराज दत्त था. 1955 में जब उन्हें अपनी पहली फिल्म मिली, तब उन्होंने अपना नाम सुनील दत्त रख लिया.
उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि तब सिनेमा जगत में बलराज साहनी जैसा दिग्गज पहले से ही मौजूद था.
पत्नी की मृत्यु ने तोड़ दिया
1971 से उनके कैरियर में गिरावट आना शुरू हो गई. इस वर्ष आई फिल्म ‘रेशमा और शेहरा’ बॉक्स ऑफिस पर कुछ खास नहीं चली. सुनील को लगा कि अब उनकी चमक फीकी हो रही है, इसलिए उन्होंने खुद को सिनेमा से दूर करना शुरू कर दिया.
आगे उन्होंने 1981 के आसपास अपने बेटे यानी संजय दत्त को फिल्म रॉकी में लांच किया. इसी वर्ष उनकी पत्नी नरगिस की कैंसर से मृत्यु हो गई. इसका सुनील का गहरा झटका लगा और वह पूरी तरह से टूट गए.
किन्तु, कहते हैं न कि आप महान तब ही बनते हैं, जब आप मुश्किल से मुश्किल वक्त में चुनौतियों का सामने खड़ा होना जानते हों. सुनील ने भी यही किया. इस मुश्किल वक्त में उन्होंने निर्णय लिया कि वो अब अपना ध्यान समाज सेवा की तरफ लगाएंगे.
समाज सेवा में लगाया ध्यान
इसके बाद उन्होंने ‘नरगिस दत्त फाउंडेशन’ की नींव रखी.
इस फाउंडेशन का मकसद कैंसर से पीड़ित मरीजों का इलाज करना था. इसके साथ ही उन्होंने पाकिस्तानी क्रिकेटर इमरान खान की मदद एक कैंसर हॉस्पिटल खोलने में की. इसके अलावा एक और कैंसर अस्पताल केन्या में भी खोला.
ऐसा लग रहा था कि मानो अगर उनके वश में हो, तो वे इस धरती पर किसी कैंसर पीड़ित को मरने ही न दें.
इमरान खान की मदद करने पर उनके ऊपर कई सवाल उठे. लोग कहने लगे कि एक हिन्दुस्तानी होकर सुनील किसी पाकिस्तानी की मदद कैसे कर सकते हैं. इसके जवाब में सुनील ने कहा जो, उसे सुनकर ऐसा लगा कि उनके भीतर मानवता कूट-कूटकर भरी है.
उन्होंने कहा कि बीमारी और दुःख का कोई देश और धर्म नहीं होता है, मेरा काम सम्पूर्ण मानवता की सेवा करना है.
वे इतना ही करके संतुष्ट नहीं थे. उन्हें भीतर ही भीतर समाज के लिए कुछ और करने का कीड़ा काट रहा था. वे चाहते थे कि सम्पूर्ण विश्व में शांति और खुशहाली स्थापित हो जाए.
इसी उद्देश्य से उन्होंने बम्बई से अमृतसर तक दो हजार किलोमीटर तक की यात्रा कि और स्वर्ण मंदिर में शांति की स्थापना के लिए प्रार्थना की. इस समय पंजाब में सिक्ख चरमपंथ पूरे उफान पर था.
वे केवल यहां ही नहीं रुके. 1988 में उन्होंने नागाशाकी और हिरोशिमा की यात्रा की और परमाणु हथियारों के खिलाफ अपना प्रतिरोध दर्ज किया.
इसके बाद ‘हैंड्स आक्रोस दि बॉर्डर’ शांति अभियान के तहत उन्होंने श्री लंका, भूटान, नेपाल और बांग्लादेश की यात्रा करके शांति का सन्देश प्रसारित किया. उनसे कई बार पूछा गया कि आखिर वे यह सब क्यों कर रहे हैं. पर वह इसके जवाब में हर बार कहते देते कि मनुष्य को फल की चिंता ना करके अपना कर्म करते रहना चाहिए!
राजनीति में भी नाम कमाया
सुनील के राजनीतिक जीवन की शुरुआत 1981 से हुई. इस वर्ष महाराष्ट्र सरकार ने उन्हें बम्बई शहर का बड़ा नाम बना दिया. 1984 में कांग्रेस की टिकट पर वे उत्तर-पश्चिम बम्बई से सांसद चुने गए.
एक चुनाव को छोड़कर वे लगातार 2004 तक इस सीट से सांसद चुने जाते रहे.
1993 में सुनील ने सांप्रदायिक हिंसा के दौरान अपने बेटे संजय के फंस जाने पर पद से स्तीफा दे दिया था. बताते चलें कि अपने पूरे राजनीतिक कैरियर के दौरान वे झुग्गियों में रहने वालों के लिए काम करते रहे. शायद यही कारण था कि 2004 में उन्हें ‘यूथ अफेयर्स एंड स्पोर्ट्स’ मंत्री का पदभार दिया गया था.
सुनील दत्त ने अपने जीवन में करीब 100 फिल्मों में अभिनय किया, 7 के निर्माता रहे और 6 को निर्देशित किया.
अंतत: 25 मई 2005 को हर्ट अटैक से उनकी मृत्यु हो गई!
इस तरह असली अर्थों में उन्होंने फर्श से अर्श तक की यात्रा की.
Web Title: Sunil Dutt: From A Refugee to Actor and Leader, Hindi Article
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