अक्सर आप लोगों को ढाबों, फैक्ट्रियों और दुकानों पर छोटे-छोटे बच्चे काम करते दिख जाते होंगे.
इन्हें काम करते देख ऐसा लगता है कि जैसे इनके ऊपर पूरे परिवार को चलाने का बोझ आ गया है. यही अपने घर के सबसे जिम्मेदार सदस्य हैं और ये अपनी उम्र से कहीं ज्यादा बड़े हो गए हैं.
किन्तु, क्या आप जानते हैं कि इनको काम न करना पड़े, इसलिए एक लंबी लड़ाई लड़ी गई.
नतीजा यह रहा कि दुनिया को 'बाल मजदूरी निषेध दिवस' मिला, जिसके कारण बाल मजदूरी में कमी देखने को मिली.
तो आईए जानते हैं कि कहां से बुलंद हुई 'बाल मजदूरी के खिलाफ आवाज-
18वीं-19वीं सदी में दिखा घिनौना रूप!
वैसे तो बाल मजदूरी का इतिहास बहुत पुराना है!
किन्तु, इसके सबसे मज़बूत साक्ष्य मध्य काल के दौरान मिलते हैं. इस समय बच्चे अपने पिता के साथ मिलकर धागा बुनते थे. इससे फिर बाद में कपड़े बनाए जाते थे. इसके साथ ही वे कृषि कार्यों और जानवरों की देख-रेख में भी अपने माता-पिता का हाथ बटाते थे. फिर वक्त बढ़ा तो इसका स्वरूप भी बदलता चला गया.
इसी क्रम में इसका सबसे घिनौना रूप अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में ब्रिटेन में देखने को मिला.
1769 में ब्रिटेन में पहली कपड़ा मिल स्थापित हुई. इसके बाद धड़ल्ले से इनकी संख्या बढ़ती गई. इनमें काम करने के लिए 10 से 12 वर्ष के बच्चों को बुलाया जाने लगा.
अनाथालय से होती थी बच्चों की भर्ती
यहां काम करने की स्थितियां इतनी ख़राब थीं कि, तब ब्रिटेन के मशहूर लेखक चार्ल्स डिकेंस ने इन मिलों को राक्षसी मिलों की संज्ञा तक दे डाली थी. ऐसी राक्षसी मिलें, जो बच्चों को समूचा निगल जाती थीं.
बताते चलें कि इन मिलों में बच्चों को अनाथालय से भर्ती किया जाता था. अपने अधिकारों से अनभिज्ञ बच्चे, यहाँ बिना कुछ बोले दिनभर काम करते थे. इसके बदले न उन्हें ढंग का खाना मिलता था और न ही पैसा.
ये बच्चे बिना किसी सुरक्षा उपकरण के खतरनाक मशीनों के पास दिन में 12 से 14 घंटे काम करते थे. इस दौरान अक्सर उनके साथ दुर्घटनाएं हो जाती थीं और वे जन्म भर के लिए अपाहिज हो जाते थे. इसके साथ ही, चूंकि बच्चे पतले होते थे, इसलिए छोटी चिमनियों की सफाई का काम भी उन्हीं से कराया जाता था. इस कारण कई बार ऊपर से बच्चे गिरते और मर जाते थे!
जब, 1802 में आया पहला फैक्ट्री एक्ट
खैर, इस सबसे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ रहा था. वह तो मुनाफे की दौड़ रफ्तार पकड़े जा रहे थे. इसी बीच जेम्स वाट ने भाप के इंजन का अविष्कार कर दिया, जिसके बाद से तिगुनी गति से तरह-तरह की फैक्ट्रियां खुलने लगीं.
अब इन फैक्ट्रियों में काम करने के लिए अधिक बच्चों की जरूरत पड़ी, इसलिए अब अनाथालयों के साथ-साथ गरीब परिवारों के बाचे भी इन फैक्ट्रियों में भर्ती किए जाने लगे. हालाँकि, फैक्ट्रियों में काम करने की स्थितियां अभी भी जस की तस थीं.
आगे, जब स्थितियां हद से ज्यादा बिगड़ने लगीं तो 1802 में पहला फैक्ट्री एक्ट आया. पर ये बाल मजदूरी को ख़त्म करने और बाल मजदूरों की हालत में सुधार करने में कुछ ख़ास सहायक सिद्ध नहीं हुआ.
...और समाज-सुधारकों ने उठाई आवाज
आगे ब्रिटेन के दार्शनिकों और समाज-सुधारकों ने इस मुद्दे पर खुलकर लिखा और बोला. उन्होंने फैक्ट्रियों में जाकर बाल मजदूरों के हो रहे शोषण के बारे में सबूत इकट्ठे किए. इन सबूतों ने ब्रिटेन की संसद को मजबूर किया कि वह इस दिशा में कुछ निर्णायक कदम उठाए. इसी क्रम में 1819 में कॉटन फैक्ट्री रेगुलेशन एक्ट आया.
इस एक्ट ने 9 वर्ष की उम्र से कम बच्चों का फैक्ट्रियों में काम करना निषेध कर दिया. साथ ही साथ काम के घंटों को 12 कर दिया. इसी क्रम में आगे 1847 में बाल मजदूरी कानून पास हुआ.
इस कानून ने नियमों के लागू करने के लिए फक्ट्रियों पुलिस अफसरों की नियुक्ति की. आगे टेन हावर्स नामक बिल भी आया, जिसके तहत बच्चों और महिलाओं के लिए काम करने के घंटे 10 नियत कर दिए गए.
कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगल्स की भूमिका
इन सब सुधारों के बावजूद स्थितियां अभी आदर्श से बहुत दूर थीं.
बाल मजदूरों का संस्थागत शोषण अभी भी जारी था. इस समय कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगल्स जैसे सामाजिक वैज्ञानिकों ने अपने लेखन द्वारा यह बारीकी से यह समझाया.
उन्होंने बताया कि कैसे इन सब कानूनों के बाद भी पूंजीपति अपनी फैक्ट्रियों में बच्चों का शोषण कर रहे हैं. इन दोनों ने बाल मजदूरी को बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास के लिए बाधा बताया.
साथ ही कहा कि जिस उम्र में बच्चों को खेलना और पढ़ना चाहिए, उस उम्र में फैक्ट्रियों में उनका विनाश हो रहा होता है.
उनकी बातों ने जनता के बीच जागरूकता पैदा की. इस जागरूकता ने कमोबेश संसद पर दवाब डाला कि वह बाल मजदूरी का उन्मूलन करें. इसी क्रम में समय-समय पर कानूनों में सुधार होता रहा.
वैश्विक हुई 'बाल मजदूरी' की समस्या, मगर...
फिर जब ब्रिटेन के आलावा, दूसरे अन्य देशों में औद्योगिक क्रांति हुई, तो बाल मजदूरी की व्यापकता बढती गई. बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में तीसरी दुनियां के देशों में औद्योगीकरण प्रारंभ हुआ तो यह समस्या वैश्विक हो गई.
इस दौरान कानूनों में लगातार सुधार होता रहा, लेकिन जमीन पर परिवर्तन न के बराबर रहा. सन 2000 में अंतर्राष्ट्रीय श्रम विभाग के द्वारा किए गए अध्यन के अनुसार करीब 246 मिलियन बच्चे बाल मजदूरी कर रहे थे. इस आंकड़े को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2002 से हर साल 12 जून को बाल मजदूरी निषेध दिवस मनाना निर्धारित किया.
इस दिन विभिन्न देशों की सरकारें और सामजिक संगठनों के प्रतिनिधि एक मंच पर इकट्ठे होते हैं और बाल मजदूरी को ख़त्म करने के लिए विभिन्न प्रकार के कार्यक्रमों और योजनाओं की घोषणा करते हैं.
इन योजनाओं का असर भी हुआ है. सन 2012 किए गए अध्यन के अनुसार बाल मजदूरी में कमी आई है. 2012 में 168 मिलियन बच्चे बाल मजदूरी कर रहे थे, जोकि पहले की तुलना में बहुत कम हैं.
कुछ ऐसी है भारत की स्थिति...
भारत में बाल मजदूरी को लेकर अभी स्थिति आदर्श नहीं है. हालाँकि, इसमें लगातार कमी आ रही है.
2001 में, जहां 1 करोड़ बच्चे बाल मजदूरी कर रहे थे, वहीँ 2012 में 43 लाख बच्चे ही बाल मजदूर के रूप में पहचाने गए. हालाँकि, यह स्थिति आदर्श नहीं है, लेकिन यह उम्मीद जरूर देती है कि हम सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं.
सुधार हो रहा, भले ही धीमी गति से.
इस सुधार के पीछे 'मनरेगा', 'शिक्षा का अधिकार' और 'मिड डे मील' जैसी सरकारी योजनाएं काफी सहायक सिद्ध हुई हैं. इन सरकारी योजनाओं के साथ-साथ गैर सरकारी संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी इस ओर काफी योगदान दिया है. 'सेव दि चिल्ड्रेन इण्डिया' और कैलाश सत्यार्थी इसके बड़े उदाहरण हैं!
ऐसे में उम्मीद तो यह की जाने चाहिए कि निकट भविष्य में न केवल हमारा देश, बल्कि पूरा विश्व बाल मजदूरी से मुक्त होगा!
क्या कहते हो आप?
Web Title: World Day Against Child Labour: Know What Does Its Struggle Say, Hindi Article
Feature Image Credit: Reddit