मैरी कॉम का नाम शायद ही किसी भारतीय को याद न हो. मुक्केबाजी में भारत के तिरंगे की शान पूरे विश्व में उंचा करने वाली ‘सुपर मॉम’ के बारे में जानकर आपको हैरानी होगी कि मैरी कॉम का बचपन मुक्केबाजी से कोसो दूर था. वह तो मार्शल आर्ट सीखना चाहती थीं.
किन्तु, जब 1998 में एशियन गेम्स में मणिपुर के डिंगको सिंह ने मुक्केबाजी में गोल्ड मैडल जीतकर समूचे भारत को गौरव का पल महसूस करने का मौका दिया, तो एक दुबली-पतली सी लड़की यानी मैरी कॉम को मुक्केबाजी में कुछ कर दिखाने का जज़्बा मिला. बस यहीं से शुरू हुई मुक्केबाजी को लेकर मैरी कॉम की दीवानगी और फिर उन्होंने पलटकर नहीं देखा.
आइये नज़र डालते हैं उनकी उपलब्धियों पर:
मुक्केबाज़ी की ओर पहला कदम
डिंगको सिंह जिस दिन जीते, उसके अगले ही दिन मैरी कॉम उस समय के चर्चित कोच एम.नर्जित सिंह के पास पहुंचीं और बोलीं “सर मुझे मुक्केबाज़ी सीखनी हैै“.
सिंह कुछ देर उन्हें गौर से देखते रहे, फिर बोले, नहीं मैं आपको नहीं सिखा सकता. मैरी कॉम ने खूब मिन्नतें की, लेकिन कोच नहीं माने. आमतौर पर लोग असफलता के बाद चुपचाप होकर बैठ जाते हैं, लेकिन
मैरी कॉम ने हार नहीं मानी और दूसरे कोच के पास जा पहुंचीं. सिंह की ही तरह दूसरे कोच ने भी उनके दुबले-पलते शारीरिक ढांचे को देखकर पहले यह कहते हुए मना कर दिया था कि “तुम दुबली-पतली हो, ज्यादा दिन तक टिक नहीं पाओगी. पर उन्हें मैरी कॉम की जिद्द के आगे अपना फैसला बदलते हुए हां कहना पड़ा.
Inspirational Story of Mary Kom (Pic: Youtube.com)
मुश्किल दौर मेंं जीता पहला स्टेट लेवल टूर्नामेंट
वह इंफाल में अकेली रहती थीं. खुद खाना बनाती थीं, रोज स्कूल जाती थीं. इन सबके बाद भी वह कभी भारतीय खेल प्राधिकरण के सेंटर में पसीना बहाने से पीछे नही हटीं. यही कारण है कि साल 2000 में उन्होंने अपना पहला स्टेट लेवल टूर्नामेंट जीता. यह जीत इतनी बड़ी थी कि अखबारों की सुर्खियां तक बनी. आगे खेलने के लिए मैरी कॉम को पिता के विरोध का सामना भी करना पड़ा, पर
वह रुकने वाली नहीं थीं. अपने पथ पर वह अपने फौलादी इरादों के साथ डटी रहीं. इस सफर में वह कोच के गलत निर्णयों का शिकार हुईं, कई बार रूढ़िवादी लोगों द्वारा अपमान भी सहना पड़ा. पर वो जो एक बार ठान लेती थीं, तो उसे पूरा करके ही दम लेती थीं.
यही कारण है कि वह मुक्केबाज में शीर्ष पर रही हैैं.
18 साल की उम्र में जीता रजत
अपनी कड़ी मेहनत से साल 2001 में उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा शुरू कर दी थी. वह महज 18 साल की थीं, जब उन्होंने पहली बार संयुक्त राज्य अमेरिका में आयोजित एआईबीए महिला विश्व मुक्केबाज़ी चैंपियनशिप में न सिर्फ़ अंतरराष्ट्रीय पदार्पण किया, बल्कि 48 किलो वर्ग में रजत पदक जीतकर देश का सिर गर्व से ऊंचा कर दिया था .
6 विश्व प्रतियोगिताओं में पदक का रिकॉर्ड
मैरी कॉम अकेली ऐसी महिला मुक्केबाज़ हैं, जिन्होंने अपनी सभी 6 विश्व प्रतियोगिताओं में पदक जीते हैं. एशियन महिला मुक्केबाजी प्रतियोगिता में उन्होंने 5 स्वर्ण और एक रजत पदक जीता है. महिला विश्व वयस्क मुक्केबाजी चैंपियनशिप में भी उन्होंने 5 स्वर्ण और एक रजत पदक जीता है. एशियाई खेलों में मैरी ने 2 रजत और 1 स्वर्ण पदक जीता है. ओलंपिक के बारे में इनकी कहानी हम आगे की पंक्तियों में देखेंगे.
कुछ ऐसा रहा स्वर्ण पदकों का दौर
- साल 2002 में उन्होंने तुर्की में द्वितीय एआईबीए महिला विश्व मुक्केबाज़ी चैंपियनशिप में 45 किलो भार वर्ग में स्वर्ण पदक जीता था. उसी साल उन्होंने हंगरी में विच कप में 45 किलो भार वर्ग में स्वर्ण पदक जीता था, जिसके बाद वह मीडिया में छाई रहीं.
- साल 2003 में मैरी कॉम ने भारत में एशियाई महिला मुक्केबाजी चैम्पियनशिप में 46 किलो भार वर्ग में स्वर्ण पदक जीता.
- 2004 में नॉर्वे में महिला मुक्केबाजी के विश्व कप में स्वर्ण पदक जीता.
- 2005 में उन्होंने फिर से 46 किलो वजन वर्ग में ताइवान में एशियाई महिला मुक्केबाजी चैम्पियनशिप और रूस में एआईबीए महिला विश्व मुक्केबाजी चैम्पियनशिप दोनों में स्वर्ण पदक जीता.
- 2006 में उन्होंने डेनमार्क में वीनस बॉक्स कप में स्वर्ण पदक जीता और भारत में एआईबीए महिला विश्व मुक्केबाजी चैम्पियनशिप में फिर से स्वर्ण पदक जीता.
यहीं नहीं रुका कारवां
एक लम्बे ब्रेक के बाद जब वो लौटीं तो लोगों के सामने प्रश्न था कि उनका प्रदर्शन कैसा रहेगा, लेकिन 2008 में चीन में एआईबीए महिला विश्व मुक्केबाजी चैम्पियनशिप में लगातार चौथा स्वर्ण पदक जीतकर उन्होंने साबित कर दिया कि जीतने की आग उनमें तब भी जिंदा थी.
वह आगे बढीं और 2009 में उन्होंने वियतनाम में एशियाई इंडोर खेलों में स्वर्ण पदक को भी अपने नाम कर लिया. 2010 मेंं कजाकिस्तान में एशियाई महिला मुक्केबाजी चैम्पियनशिप में जब भारत की साख दांव पर लगी तो उन्होंने निराश नहीं किया और स्वर्ण पदक के रूप में देश को बड़ा तोहफा दे डाला.
इसी साल उन्होंने बारबाडोस में एआईबीए महिला विश्व मुक्केबाजी चैम्पियनशिप में लगातार पांचवा स्वर्ण पदक भी जीता. इतने सारे स्वर्ण पदक जीतने के बाद भी मैरी कॉम की प्यास कम नहीं हुई थी. दिल मांगे मोर के सिद्धांत पर वह आगे बढ़ी. साल 2011 में, चीन में एशियाई महिलाओं की कप में 48 किलो भार वर्ग का स्वर्ण पदक अपने नाम करने में कामयाब रहीं.
ओलंपिक सफलता का महान कारनामा
साल 2012 मैरी कॉम के लिए महत्वपूर्ण रहा था. इस साल उन्होंने न सिर्फ़ मंगोलिया में एशियाई महिला मुक्केबाज़ी चैंपियनशिप में 51 किलो भार वर्ग में स्वर्ण पदक जीता, बल्कि उन्होंने बेहद अंतिम क्षणों में लंदन ओलंपिक्स के लिए क्वालिफाई किया और ओलिंपिक्स के सेमीफाइनल में जा पहुंचीं.
हालांकि वह यूके के एडम निकोला से 6-11 से हार गईं, लेकिन बावजूद इसके भारत के लिए मैडल पक्का करने में वह सफल रहीं. यही कारण था कि देश ने उन्हें अपनी पलकों पर बिठाया. इसके बाद 2014 के एशियाई खेलों में उन्होंने एक स्वर्ण पदक जीतकर देश का सिर एक बार फिर से ऊंचा कर दिया.
आने वाली देश की कई पीढ़ियां उन्हें याद रखेंगी. ओलंपिक की सफलता ने मैरी कॉम को भारतीय खेल इतिहास में सदा सदा के लिए अमर कर दिया है.
मिले पुरस्कार और सम्मान पर एक नज़र
जिस प्रकार मैरी कॉम के करियर मे आगे-आगे और मैडल्स पीछे-पीछे चलते रहे वैसे ही पुरस्कार और सम्मान भी उनके साथ हो लिए.
मुक्केबाजी में देश का नाम रोशन करने के लिए भारत सरकार ने वर्ष 2003 में उन्हे अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित किया एवं वर्ष 2006 में उन्हे पद्मश्री से सम्मानित किया गया. 2009 को वे भारत के सर्वोच्च खेल सम्मान राजीव गाँधी खेल रत्न से भी पुरस्कृत की गईं.
फिल्म जगत में ‘मैरी कॉम’
मैरी कॉम की कड़ी मेहनत, स्पर्धा और जूनून से प्रभावित होकर फिल्म जगत ने उन पर उनके नाम से एक फिल्म बनाई, जिसका प्रदर्शन 2014 में हुआ. ओमंग कुमार द्वारा निर्देशित इस फिल्म में उनकी भूमिका प्रियंका चोपड़ा ने निभाई.
लोगों ने इस फिल्म को बेहद पसंद किया और मैरी की तरह ये फिल्म भी बहुत सराही गयी. यह फिल्म बताती है कि अगर कुछ कर गुज़रने की ज़िद आपके अंदर हो तो देश-दुनिया की सारी बाधाएं आपके सामने नतमस्तक होकर खड़ी मिलेंगी.
Inspirational Story of Mary Kom (Pic: bollybrit.com )
चलते-चलते …
वैसे तो मैरी काम के बारे में आप बहुत कुछ जानते हैं, पर कुछ नयी बातें भी हैं. किस्सा है मैरी कॉम के पहले-पहले प्यार का. हुआ यूं था कि मैरी कॉम ने अपनी एक यात्रा के दौरान अपना पासपोर्ट खो दिया था, जिसको दोबारा बनवाने के लिए वह प्रयासरत थीं. उसी दौरान जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में उनकी मुलाक़ात दिल्ली विश्वविद्यालय के ओनलर कॉम से हुई, जिन्होंने उन्हें दुबारा पासपोर्ट बनाने में मदद की.
लगातार समान अंतराल पर दोनों के मिलने पर दोस्ती कब प्यार में बदल गयी, पता ही नहीं चला. इस तरह यह लव स्टोरी पांच सालों तक चली और उन्होंने 2005 में ओनलर कॉम से शादी कर ली. आज मैरी दो जुड़वा बच्चों सहित तीन बच्चों की मां है और ओनलर उनके पति हैं.
Inspirational Story of Mary Kom (Pic: diaryawareness. )
मैरी कॉम के पूरा जीवन प्रेरणादायक है. उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाली युवा पीढी उनसे प्रेरणा लेकर अपने जीवन में आगे बढ़ेगी. कम से कम देश की अनेक महिलाओं को उनके रास्ते पर चलने की जरुरत है, ताकि भारत को मैरी कॉम जैसी कई महिला मुक्केब़ाज मिल सकें.
न केवल मुक्केबाजी बल्कि, सफलता के अनेक क्षेत्रों में मैरी कॉम से हर एक को प्रेरणा लेनी चाहिए, खासकर महिलाओं को तो अनिवार्य रूप से.
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