सुखदेव, भगतसिंह और राजगुरू भारत के इतिहास में दर्ज वो नाम हैं, जो अपने जन्म से नहीं, बल्कि अपनी सर्वोच्च देशभक्ति के लिए बलिदान करने हेतु जाने जाते हैं. इनकी शहादत ने देश के नौजवानों में आजादी के लिए जोश और ज़ज्बे को भरने का काम किया था.
इन वीरों को फांसी की सजा देकर अंग्रेज सरकार समझती थी कि भारत की जनता डर जाएगी और स्वतंत्रता की भावना को भूलकर विद्रोह नहीं करेगी. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. भारत की जनता पर स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने का रंग इस तरह चढ़ा कि भारत माता के हजारों सपूतों ने सर पर कफन बांध कर अंग्रेजों के खिलाफ जंग छेड़ दी.
आज भले ही देश के ये वीर हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन वह कल भी देश के लिए मिसाल थे और आज भी मिसाल हैं. तो आइये किसी शायर की इन पंक्तियों के साथ हम सिलसिलेवार देश के इन अमर सपूतों से जुड़े कुछ पहलुओं को टटोलने की कोशिश करते हैं:
‘आओ झुक कर सलाम करें उनको, जिनके हिस्से में ये मुकाम आता है,
खुशनसीब होता है वो खून, जो देश के काम आता है’
शहीद भगत सिंह
उन्हें यह फ़िक्र है हरदम, नयी तर्ज़-ए-ज़फ़ा क्या है?
हमें यह शौक है देखें, सितम की इन्तहा क्या है?
दहर से क्यों ख़फ़ा रहें, चर्ख का क्या ग़िला करें,
सारा जहां अदू सही, आओ! मुक़ाबला करें।
यह अलफाज हैं भगत सिंह के, जो उनकी क्रांतिकारी सोच को उजागर करते हैं. पंजाब के एक गांव में जन्मे भगत सिंह मात्र 12 साल के थे, जब जलियांवाला बाग कांड हुआ. उस नृशंस हत्याकांड को देखकर उनके मन में अग्रेजों को मार गिराने का लावा फूट पड़ा.
बताते चलें कि उस समय आजादी के लिए गांधी जी सक्रिय थे, लेकिन उनके अहिंसात्मक तरीके भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को रास न आए, इसलिए उन्होंने अपने लिए क्रांतिकारी रास्ता चुना.
भगत सिंह के मन में क्रांति की ज्वाला तेजी से बढ़ ही रही थी कि काकोरी कांड ने उसमें घी डालने का काम कर दिया. इस कांड में रामप्रसाद बिस्मिल के साथ चार और क्रांतिकारियों को फांसी पर लटका दिया गया था. जिसके बाद भगत सिंह ने तय कर लिया कि वह अंग्रेजों को मार गिराएंगे.
इसी सोच के साथ भगत सिंह चन्द्रशेखर आजाद के साथ ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ में शामिल हो गए. कहा जाता है कि जब भगत सिंह पहली बार आजाद से मिले थे, तो उन्होंने जलती हुई मोमबती पर हाथ रखकर कसम खायी थी कि उनकी जिन्दगी देश पर ही कुर्बान होगी, जिसको उन्होंंने आगे चलकर पूरा भी किया.
वैसे तो भगत सिंह में जज्बे की कमी नहीं थी, लेकिन 1928 में जब साइमन कमीशन के बहिष्कार के दौरान लाठी चार्ज में लाला लाजपत राय की मौत हो गई, तो उनका खूल खौल उठा. उन्होंने इसका बदला लेने के लिए अपने साथियों के साथ मिलकर पुलिस सुपरिटेंडेंट स्कॉट की हत्या की योजना बना डाली.
इसी के तहत 17 दिसंबर 1928 को वह लाहौर कोतवाली के सामने स्कॉट को मारने के लिए घात लगाए बैठे रहे, लेकिन स्कॉट की जगह अंग्रेज अधिकारी जेपी सांडर्स उनका शिकार हो गया. इसके बाद उनका नाम जुड़ा असेम्बली कांड के साथ. असल में
अंग्रेज सरकार दो नए बिल ला रही थी. पब्लिक सेफ्टी और ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल. कहा जाता है कि ये दो कानून भारतीयों के लिए बेहद खतरनाक थे. सरकार इन्हें पास करने का फैसला ले चुकी थी. बिल के आने से क्रांतिकारियों के दमन की तैयारी थी.
Tribute to Bhagat (Pic: newsread.in)
इसलिए 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह ने अपने क्रांतिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर ब्रिटिश भारत की दिल्ली स्थित तत्कालीन सेंट्रल एसेम्बली में बम फेंक दिए. हालांकि इस हमले का मकसद अंग्रेज सरकार को डराना था, इसलिए बम सभागार के बीच में फेंके गए जहां कोई नहीं था. घटना के बाद वहां से भागने के बजाय भगत सिंह वहां खड़े रहे और खुद को अंग्रेजों के हवाले कर दिया. अंतत: उनको फांसी की सजा सुनाई गई, जिसके लिए 24 मार्च 1931 का दिन चुना गया. हालांकि निर्धारित समय से एक दिन पहले यानी 23 मार्च को भगत सिंह को फांसी दे दी गई.
भगत सिंह चाहते तो माफ़ी मांगकर फांसी की सजा से बच सकते थे, लेकिन मातृभूमि के इस सच्चे सपूत को झुकना पसंद नहीं था. इसलिए महज 23 की उम्र में इस वीर सपूत ने हंसते हंसते फांसी के फंदे को चूम लिया.
भगत सिंह अब हमारे बीच भले ही न हो, लेकिन आज भी देश की जनता भगत सिंह को आज़ादी के दीवाने के रूप में देखती है जिसने अपनी जवानी सहित सारी जिन्दगी देश के लिये समर्पित कर दी. उनके जीवन ने हिन्दी सिनेमा को भी प्रेरित किया. उनके नाम पर ‘द लीज़ेंड ऑफ़ भगत सिंह’ फिल्म बनाई गई, जिसे खूब सराहा गया.
भगत सिंह के क्रांतिकारी विचार
- जिंदगी अपने दम पे जी जाती है, दूसरों के कन्धों पे तो सिर्फ जनाजे उठाये जाते हैं.
- जीवन का अर्थ केवल अपने मन को नियंत्रित करना नहीं है, बल्कि इसको विकसित करना भी है.
- क्रांति लाना किसी एक अकेले इंसान की शक्ति के परे है. इसके लिए मिलकर प्रयास करना होगा.
- क्रांति मानव जाति का एक अपरिहार्य अधिकार है. स्वतंत्रता सभी का एक कभी न खत्म होने वाला जन्मसिद्ध अधिकार है.
- क्रांतिकारी विचारों के लिए एक स्वतंत्र भावना का होना बहुत जरुरी है
- प्रेमी पागल और कवि एक ही चीज से बने होते हैं और देशभक्तों को अक्सर लोग पागल कहते हैं.
- राख का हर एक कण मेरी गर्मी से गतिमान है. मैं एक ऐसा पागल हूं जो जेल में आजाद है.
- व्यक्तियों को कुचलकर भी आप उनके विचार नहीं मार सकते हैं.
- निष्ठुर आलोचना और स्वतंत्र विचार, ये दोनों क्रांतिकारी सोच के दो अहम लक्षण हैं.
सुखदेव
पंजाब के शहर लायलपुर में रामलाल थापर के घर 1907 में एक बच्चे का जन्म हुआ था, जिसका नाम रखा गया सुखदेव था पर. कुछ कर गुजरने का जज्बा सुखदेव में बचपन से ही था. भगत सिंह की तरह सुखदेव पर भी जलियांवाला बाग़ कांड का असर पड़ा. चूंकि वह बहुत छोटे थे, इसलिए वह उस वक्त कुछ न कर पाए और पढ़ाई में लग गए.
लायलपुर के सनातन धर्म हाईस्कूल से मैट्रिक पास कर सुखदेव ने लाहौर के नेशनल कॉलेज में प्रवेश लिया, जहां उनकी मुलाक़ात भगत सिंह से हुई. फिर क्या था, भगत सिंह के साथ मिलकर सुखदेव ने अग्रेजों के दमन के खिलाफ योजनाएं बनाना शुरु कर दिया था.
सुखदेव की क्रांतिकारी गतविधियां इतनी ज्यादा बढ़ गईं कि सितम्बर 1928 में ही दिल्ली के फ़िरोजशाह कोटला के खण्डहर में उत्तर भारत के प्रमुख क्रांतिकारियों की एक गुप्त बैठक हुई, जिसमें हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी नाम का एक संगठन बनाया गया, जिसका उत्तरदायित्व सुखदेव को दिया गया. सुखदेव ने इस संगठन में अपनी पूरी जान झोंक दी, जिसके कई सकारात्मक परिणाम देखने को मिले.
जानकार तो यहां तक कहते हैं कि ‘साइमन कमीशन’ के विरोध के दौरान जब लाला जी के देहांत के बाद सेंट्रल एसेंबली के सभागार में जो बम और पर्चे फेंकने की घटना हुई उसके असली सूत्रधार सुखदेव ही थे. उनके लिए यह भी कहा जाता है कि वह युवा क्रांतिकारी आंदोलन की नींव और रीढ़ थे.
अंतत: अपने दोस्त भगत सिंह के साथ सांडर्स की हत्या के मामले में उन्हें भी फांसी की सजा सुनाई गई. 23 मार्च 1931 को उन्होंने हंसते-हंसते फांसी के फंदे को गले लगा लिया और देश के युवाओं की रगों में उबाल भर दिया था.
किन्तु इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि इतने साल बीत जाने के बाद भी हमारा देश अपने इस महान सपूत को वह सम्मान नहीं दे पाया है, जो उसे मिलना चाहिए था? संभवतः आज तक इस महान शहीद का कोई राष्ट्रीय स्मारक नहीं बना है, जो वर्तमान कर्णधारों पर बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है.
Tribute to Shukhdev (Pic: firkee.in)
राजगुरु
24 अगस्त 1908 को पुणे ज़िले के खेड़ गांव में जन्में राजगुरु शिक्षा के लिए बनारस आए, जहां वह गणेश (बाबाराव) सावरकर जी के संपर्क में आए. और यही से शुरु हुआ उनका क्रांतिकारी जीवन.
अपने दोस्तों भगत सिंह और सुखदेव की तरह वह भी क्रांतिकारी गतिविधियों की तरफ तेजी से सक्रिय होने लगे. 19 दिसंबर, 1928 को भगत सिंह के साथ मिलकर लाहौर में जिस साथी ने अंग्रेज़ अधिकारी सांडर्स को गोली मारी थी, वह राजगुरु ही थे.
राजगुरु ‘असेम्बली कांड’ में भी मौजूद थे और मिशन का अंजाम देकर भाग निकले थे, लेकिन जब उन्हें पता चला कि उनके साथी भगत सिंह और बटुक्श्वर दत्त पकड़े गए हैं, तो वह उनके लिए कुछ करना चाहते थे.
चूंकि पुलिस उनको खोज रही थी, इसलिए चंद्र शेखर आजाद ने राजगुरु को बहुत समझाया और उन्हें कुछ समय के लिये पूना जाकर रहने के लिये कहा और राजगुरु उदास मन से पूना चले गये थे.
राजगुरू के बारे में कहा जाता है कि वह अपने उपलब्धियों का बखान बहुत करते थे, जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा. हुआ यूं था कि वह जिस किसी से भी मिलते उससे ही अपने द्वारा सांडर्स को गोली मारने की घटना का वर्णन करते थे.
इसी का फायदा उठाकर एक सीआईडी अफसर ने उनसे मुलाकात कर मित्रता बढ़ाई और सांडर्स कांड का पूरा सच जान लिया. फिर होना क्या था 30 सितम्बर 1929 में राजगुरु को गिरफ्तार कर लिया गया था, जिसके बाद पुलिस ने भगत सिंह और सुखदेव के साथ लाहौर षड़यन्त्र केस में शामिल करके उन पर केस चलाया और अंतत: 23 मार्च 1931 में उनको भी फांसी दे दी.
हालाँकि, इस पूरे प्रकरण से देश के युवाओं को असीमित प्रेरणा मिली और सुखदेव, राजगुरु और शहीद भगत सिंह की जोड़ी हमेशा हमेशा के लिए इतिहास में अमर हो गयी.
Tribute to Rajguru (Pic: dwarkaparichay)
देश पर अपनी जान न्यौछावर कर देने वाले देश के इन लालों की दोस्ती इतनी महान थी कि इन्होंने एक लक्ष्य की प्राप्ति के लिये एक साथ वीरगति प्राप्त की.
आजादी की लड़ाई के लिए उनके योगदान को देश कभी नहीं भूलेगा. देशभक्ति की अनूठी मिसाल देने वाले इन वीरों को शत-शत नमन.
Web Title: Tribute to Bhagat Singh, Sukhdev and Rajguru, Hindi Article
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